अतिक्रमण की बढ़ती प्रवृत्ति पर रोक लगाना ज़रूरी

 

उत्तराखंड के हल्द्वानी में रेलवे की जमीन पर अतिक्रमण का मामला पिछले दिनों सुर्खियों रहा। उत्तराखंड हाईकोर्ट के आदेश पर रोक लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने वहां के निवासियों को राहत दी है। लेकिन हल्द्वानी की घटना कई सवाल खड़े करती है। अहम् सवाल यह है कि सालों-साल चले इस अतिक्रमण को रोकने के लिये जवाबदेह लोग दशकों क्यों सोते रहे। ऐसा नहीं है कि जिम्मेदार लोगों के पास इन सवालों का जवाब नहीं है। जवाब सबके पास है लेकिन इस मामले में थोड़ा या कम दोष सारी व्यवस्था का है, इसलिए कोई मुंह खोलना नहीं चाहता। 
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार बनभूलपुरा और गफूर बस्ती में रेलवे की भूमि पर करीब 50 साल पहले अतिक्रमण शुरू हुआ था। अतिक्रमण अब रेलवे की 78 एकड़ जमीन पर फैल गया है। स्थानीय लोगों का दावा है कि वे 50 साल से भी अधिक समय से यहां रह रहे हैं। उन्हें वोटर कार्ड, आधार कार्ड, राशन कार्ड, बिजली, पानी, सड़क, स्कूल आदि सभी सुविधाएं भी सरकारों ने ही दी हैं। लोग सभी सरकारी योजनाओं का लाभ भी उठा रहे हैं। पीएम आवास योजना से भी लोग लाभान्वित हो चुके हैं। दावा है कि वे नगर निगम को टैक्स भी देते हैं।
नैनीताल हाईकोर्ट की सख्ती के बाद 2016 में आरपीएफ  ने अतिक्रमण का मुकद्दमा दर्ज किया, लेकिन तब तक करीब 50 हज़ार लोग रेलवे की ज़मीन पर आबाद हो चुके थे। नैनीताल हाईकोर्ट ने नवम्बर 2016 में रेलवे को 10 सप्ताह में अतिक्रमण हटाने के सख्त आदेश दिए थे। इसके बाद भी रेलवे, आरपीएफ  और प्रशासन नरमी दिखाता रहा। रेलवे का दावा है कि उसकी 78 एकड़ जमीन पर अवैध कब्जा है और 4365 कच्चे-पक्के मकान बने हैं। 
इसमें कोई दो राय नहीं कि दशकों के अतिक्रमण को रातों-रात तो बिल्कुल नहीं हटाया जा सकता। नि:संदेह, करीब पचास हज़ार लोगों को आनन-फानन में नहीं हटाया जाना चाहिए। यहां तमाम स्थायी आवासों के साथ ही कई सरकारी स्कूल, बैंक, विभाग, मंदिर-मस्जिद आदि बने हुए हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात सुप्रीम कोर्ट ने यह कही कि हज़ारों लोगों को हटाने से पहले उनके पुनर्वास की व्यवस्था होनी चाहिए। शीर्ष अदालत इस बाबत सात फरवरी को रेलवे व सरकार का पक्ष सुनेगी। बाकायदा उत्तराखंड सरकार को अपना पक्ष रखने के लिये नोटिस भेजा गया है। 
विडम्बना यह है कि ऐसे अतिक्रमण की स्थिति पूरे देश में बनी हुई है। अपनी जड़ों से उखड़े, रोज़गार की तलाश में शहरों की तरफ  आए लोग तथा भू-माफियाओं की साजिश के चलते बेचे गये भूखंडों के खरीददार इन अतिक्रमणों के केंद्र में रहते हैं। दरअसल वोटों की राजनीति, स्थानीय प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार आदि इन अवैध बस्तियों को पनपने का मौका देती है। जब पानी सिर के ऊपर से गुज़रने लगता है और सरकार या कोर्ट की तरफ  से मामला उजागर होता है तो स्थानीय प्रशासन बसे लोगों को हटाने की कार्रवाई में तुरंत जुट जाता है। 
रेलवे की ज़मीन पर कितना अतिक्रमण है, इसे जानने के लिए राज्य सरकार और रेलवे ने मिलकर संयुक्त सर्वे किया। 2017 में हुए सर्वे में सामने आया कि भारतीय रेलवे की ज़मीन पर 4,365 अतिक्रमण हैं। 31 मार्च, 2019 को जारी रेलवे मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीय रेलवे पास के 4.78 लाख हेक्टेयर ज़मीन उपलब्ध है। इसमें 821.46 हेक्टेयर ज़मीन पर अतिक्रमणकारियों का कब्जा है। मंत्रालय की रिपोर्ट में कहा गया है कि अतिक्रमण को हटाने के लिए स्थानीय स्तर पर रेलवे सर्वे करता है। सर्वे के दौरान रेलवे की ज़मीन के दायरे में आने वाली झुग्गी, झोपड़ी और अवैध कब्जे को रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स और स्थानीय प्रशासन की मदद से हटवाया जाता है। पुराने अतिक्रमण के लिए, जहां कोई एक पार्टी इसके लिए उत्तदायी नहीं है वहां पर पब्लिक प्रिमाइसेस एक्ट 1971 के तहत कार्रवाई की जाती है। राज्य सरकार और पुलिस की सहायता से अनाधिकृत कब्जाधारियों को बेदखल किया जाता है। 
सवाल यह है कि इस समस्या का समाधान शुरुआत में ही क्यों नहीं तलाशा जाता। सवाल यह भी कि हल्द्वानी में बनभूलपुरा की जिस 29 एकड़ ज़मीन पर अतिक्रमण की बात की जा रही है, उसे रेलवे भूला हुआ क्यों था? ऐसा तो नहीं था कि स्थायी संरचनाएं रातों-रात बन गई थीं। दरअसल, इस अतिक्रमण पर रेलवे की नज़र तब पड़ी जब इस क्षेत्र से लगती नदी में रेत के अवैध खनन के तार इस इलाके की बस्तियों से जुड़े। मामला 2013 में उठा था और फिर दस साल बाद सुप्रीम कोर्ट में जाने के बाद राष्ट्रीय चर्चा का विषय बना। दरअसल, यह अतिक्रमण की गुत्थी गहरे तक उलझी हुई है। कुछ लोगों का दावा है कि वे गृहकर व जल-कर भर रहे हैं तो स्थानीय निकायों ने कैसे इस अतिक्रमण करके बने मकानों को मान्यता दी? कुछ लोग ज़मीन के दस्तावेजों के कानूनन वैध होने के दावे कर रहे हैं, तो कुछ का कहना है कि देश के विभाजन उपरांत कुछ लोगों के चले जाने के बाद खाली पड़े घरों की नीलामी में उन्होंने इन्हें खरीदा था। बहरहाल, हाड़ कंपाती सर्दी में हज़ारों लोगों को सुप्रीम कोर्ट के फैसले से फिलहाल राहत तो मिली है, लेकिन यह समस्या का अंतिम समाधान नहीं। इसके निस्तारण में लम्बा वक्त लगेगा। 
इसमें कोई दो राय नहीं कि हल्द्वानी में  अवैध कब्जा प्रकरण  से देश प्रदेश की सरकारें, राजनीतिक दल व यहां की पूरी व्यवस्था बेनकाब हो गयी है। देश में किस खौफनाक ढंग से घुसपेठ हो रही है और शासन, प्रशासन सहित पूरा तंत्र अपने स्वार्थों में लिप्त हो कर मौन साधे हुये है। सीमांत प्रांत उतराखण्ड की शांत वादियों में इतनी बडी घुसपेठ उतराखण्ड के साथ देश की सुरक्षा के लिये गंभीर खतरा हो सकता है। 
राजनीति की वजह से देश में अवैध अतिक्रमण की प्रवृत्ति बढ़ती है। जबकि कोशिश यह होनी चाहिए कि देश में अतिक्रमण की प्रवृत्ति को बढ़ावा न मिले। वहीं दूसरी ओर यह रेलवे और अन्य विभागों के लिये सबक है कि वे अपनी भूमि की नियमित देखभाल करते रहें ताकि फिर ऐसी नौबत न आये।