अभी नायब सिंह सैनी सरकार को कोई ़खतरा नहीं 

हरियाणा के तीन निर्दलीय विधायकों द्वारा प्रदेश की भाजपा सरकार से समर्थन वापस लिए जाने से लोकसभा चुनाव से पहले नायब सिंह सैनी के नेतृत्व वाली सरकार को भारी झटका लगा है। भाजपा सरकार से समर्थन वापस लेने वाले निर्दलीय विधायकों में चरखी-दादरी के विधायक सोमवीर सांगवान, नीलोखेड़ी के विधायक धर्मपाल गोंदर और पुंडरी के निर्दलीय विधायक रणधीर गोलन शामिल हैं। इन तीनों विधायकों ने भाजपा सरकार से समर्थन वापस लेने का पत्र राज्यपाल को भेज दिया है और पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र हुड्डा की मौजूदगी में कांग्रेस को समर्थन देने का ऐलान किया है। पहले यह भी चर्चा थी कि बादशाहपुर विधानसभा क्षेत्र के निर्दलीय विधायक राकेश दौलताबाद भी इन तीनों विधायकों के साथ सरकार से समर्थन वापस लेने वाले हैं लेकिन शाम तक राकेश दौलताबाद इन तीनों विधायकों के साथ नहीं आए। इन तीनों विधायकों के ऐलान से प्रदेश की भाजपा सरकार पर दबाव बढ़ गया है और संख्याबल के हिसाब से प्रदेश सरकार अल्पमत में आ गई है। लेकिन संवैधानिक तौर पर भाजपा सरकार को अगले साढ़े तीन महीनों तक किसी प्रकार का कोई खतरा नजर नहीं आता। 
 कांग्रेस लाई थी अविश्वास प्रस्ताव 
विधानसभा के बजट सत्र में कांग्रेस पार्टी भाजपा के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लेकर आई थी, लेकिन यह अविश्वास प्रस्ताव सदन में सफल नहीं हो पाया था। इतना ही नहीं प्रदेश में जब मनोहर लाल खट्टर के स्थान पर नायब सैनी ने मुख्यमंत्री पद संभाला था, तब उन्होंने सदन में निर्दलीय विधायकों के सहयोग से बहुमत साबित किया था। संवैधानिक दृष्टि से प्रदेश सरकार के खिलाफ 22 फरवरी को जब अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था तो उसके बाद अगले 6 महीने तक सरकार के खिलाफ कोई अविश्वास प्रस्ताव नहीं लाया जा सकता। यानी 22 अगस्त तक प्रदेश सरकार को अल्पमत में होने के बावजूद किसी प्रकार का कोई खतरा नजर नहीं आता। वैसे भी हरियाणा विधानसभा के चुनाव सितम्बर-अक्तूबर में होने हैं और प्रदेश सरकार अगस्त में भी विधानसभा भंग कर चुनाव करवाने की घोषणा कर सकती है। 
संख्याबल में पिछड़ी भाजपा
संख्याबल के हिसाब से प्रदेश की भाजपा सरकार अब पिछड़ गई है। 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत हासिल नहीं हुआ था। 90 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा को 40, कांग्रेस को 31, जजपा को 10, इनेलो व हलोपा को 1-1 और 7 निर्दलीय विधायक चुनाव जीते थे। भाजपा ने प्रदेश को स्थिर सरकार देने के लिए जजपा के साथ गठबंधन करके सरकार बनाई और सातों निर्दलीय विधायकों और एकमात्र हलोपा विधायक गोपाल कांडा ने भी सरकार को समर्थन देने का ऐलान किया था। जजपा कोटे से दुष्यंत चौटाला उपमुख्यमंत्री और देवेंद्र बबली व अनूप धानक मंत्री बने और कई विधायक चेयरमैन बनाए गए थे। 7 निर्दलीय विधायकों में से महम के विधायक बलराज कुंडू ने कुछ समय बाद ही भाजपा सरकार से समर्थन वापस ले लिया था और किसान आन्दोलन के दौरान चरखी-दादरी के विधायक सोमवीर सांगवान ने भी सरकार से समर्थन वापस लेने का ऐलान करते हुए अपना चेयरमैन पद छोड़ दिया था। जबकि जजपा व अन्य निर्दलीय विधायकों और हलोपा का सरकार को निरंतर समर्थन मिलता रहा। किसान आन्दोलन खत्म होने के बाद सोमवीर सांगवान फिर सरकार के साथ आ गए थे। 
रणजीत बने केबिनेट मंत्री
निर्दलीय विधायकों में से चौधरी देवीलाल के बेटे और रानियां से निर्दलीय विधायक रणजीत सिंह को कैबिनेट मंत्री बनाया गया था। बाद में आदमपुर के कांग्रेस विधायक कुलदीप बिश्नोई द्वारा कांग्रेस पार्टी व विधायक पद से इस्तीफा देने के बाद कांग्रेस विधायकों की संख्या घटकर 30 रह गई थी और उनके स्थान पर कुलदीप बिश्नोई के बेटे भव्य बिश्नोई के भाजपा टिकट पर विधायक बनने से भाजपा विधायकों की संख्या बढ़कर 41 हो गई थी। प्रदेश में खट्टर सरकार के इस्तीफे के बाद भाजपा ने जजपा से अलग होकर निर्दलीय विधायकों के दम पर प्रदेश सरकार बना ली थी और निर्दलीय रणजीत सिंह को फिर से कैबिनेट मंत्री बना दिया था। भाजपा ने जजपा के कुछ नाराज चल रहे विधायकों को भी अपने साथ जोड़ने का प्रयास किया। निर्दलीय विधायकों को यह उम्मीद थी कि जजपा कोटे से खाली हुए तीन मंत्री पद और भाजपा के कुछ मंत्रियों की मंत्रिमंडल से छुट्टी होने पर उन्हें मंत्री पद मिल जाएगा। इतना ही नहीं जजपा से बगावत करके सरकार को समर्थन देने का प्रयास कर रहे कुछ जजपा विधायक भी मंत्री पद पाने की उम्मीद लगाए हुए थे। लेकिन मनोहर लाल खट्टर के स्थान पर जब नायब सिंह सैनी सरकार बनी तो रणजीत सिंह के अलावा किसी भी अन्य निर्दलीय, हलोपा या जजपा के तथाकथित बागी विधायक को मंत्रिमंडल में स्थान नहीं मिला और धीरे-धीरे सभी निर्दलीय विधायकों में मायूसी छाने लगी। 
खट्टर व रणजीत का इस्तीफा
मनोहर लाल खट्टर द्वारा मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के साथ ही विधायक पद से भी इस्तीफा दे दिया गया था ताकि नए मुख्यमंत्री नायब सैनी विधायक बन सकें। मुख्यमंत्री नायब सैनी अभी भी विधायक नहीं हैं और वह अभी तक कुरुक्षेत्र से सांसद हैं। भाजपा ने उन्हें करनाल विधानसभा सीट जो खट्टर के इस्तीफे से खाली हुई थी, से विधानसभा उम्मीदवार बनाया है। खट्टर के इस्तीफे से भाजपा के विधायकों की संख्या घटकर 40 रह गई। इसके अलावा निर्दलीय विधायक रणजीत सिंह को भाजपा ने हिसार लोकसभा क्षेत्र से प्रत्याशी बनाया है और उनके द्वारा विधानसभा से इस्तीफा दिए जाने के साथ ही प्रदेश में निर्दलीय विधायकों की संख्या 6 और विधानसभा में विधायकों की कुल संख्या घटकर 88 रह गई है। महम के निर्दलीय विधायक बलराज कुंडू पहले ही सरकार से समर्थन वापस ले चुके हैं। तीन अन्य निर्दलीय विधायकों के भाजपा सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद भाजपा के साथ मात्र 2 निर्दलीय विधायक रह गए हैं। इनमें से बादशाहपुर के निर्दलीय विधायक राकेश दौलताबाद द्वारा किसी भी समय सरकार से समर्थन वापस लेने की चर्चाएं शुरू हो गई हैं। सरकार को बहुमत के लिए 45 विधायकों की जरूरत है। भाजपा के अपने 40 विधायकों के अलावा 2 निर्दलीय और एक मात्र हलोपा विधायक गोपाल कांडा का समर्थन हासिल है। ऐसे में विपक्षी दलों द्वारा राज्यपाल से भाजपा सरकार को बर्खास्त कर तुरंत विधानसभा चुनाव करवाने की मांग उठने लगी है। 
22 अगस्त तक खतरे से बाहर सरकार
22 फरवरी को सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव विफल हो जाने के बाद अभी 22 अगस्त तक सरकार खतरे से बाहर मानी जा रही है। वैसे भी भाजपा के कई नेता जजपा के बागी विधायकों के संपर्क में हैं ताकि जरूरत पड़ने पर जजपा के बागी विधायकों की मद्द लेकर सरकार बचाई जा सके। जजपा के बागी विधायकों में भी दो धड़े हैं। एक धड़ा भाजपा के साथ जाने और दूसरा धड़ा कांग्रेस के साथ जाने के लिए अपनी गोटियां बिठाने में लगा हुआ है। पूर्व उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला के साथ उनकी माता व बाढ़डा की विधायक नैना चौटाला, जुलाना के विधायक अमरजीत ढांडा और उकलाना के विधायक अनूप धानक खुलकर साथ हैं। 
बागी जजपा विधायकों में से गुहला-चीका के विधायक ईश्वर सिंह और शाहबाद के विधायक रामकरन काला के बेटे कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं। ऐसे में जजपा विधायक पार्टी लाइन से बाहर जाकर किसी अन्य पार्टी को विधानसभा में व्हिप का उल्लंघन करके समर्थन देने की स्थिति में नहीं हैं। इन तीन निर्दलीय विधायकों द्वारा सरकार से समर्थन वापस लिए जाने और खुलकर कांग्रेस के समर्थन में आने से जहां लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के चुनाव अभियान को भारी धक्का लगा है, वहीं सरकार के अल्पमत में आ जाने से सरकार की संवैधानिक स्थिति को लेकर भी सवाल उठने लगे हैं।  

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