गांव पत्तड़ कलां का पातर तथा उसके पात्र

मार्च 2010 में प्रकाशित इंडियन स्टैस्टीकल लाइब्रेरी की देहाती डायरैक्टरी के अनुसार 2880 लोगों की आबादी तथा 570 हैक्टेयर रकबे वाले गांव पत्तड़ कलां में 13 जनवरी, 1945 के दिन एक चमत्कारी घटना घटित हुई। करतारपुर-कपूरथला मार्ग से कुछ दूर इस गांव की बीबी गुरबख्श कौर (पत्नी हरभजन सिंह) ने एक ऐसे प्राणी को जन्म दिया जिसने इस गांव का नाम पूर्वी तथा पश्चिमी पंजाब में ही नहीं, पंजाबी जानती तथा बोलती कुल दुनिया में रौशन कर दिया। सुरजीत पातर नामक यह जीव इस माह की 11 तारीख को अलविदा कह गया है। 
गुरमति कालेज, पटियाला की प्रिंसीपल जसबीर कौर ने मुझे सो रहे को उठा कर यह समाचार दिया तो यू-ट्यूब पर डाले उसके अपने गांव की फेरी वाले शब्द मन को ढाढस बंधा रहे थे : 
ओ खुशदिल सोहनियों रूहो, 
रुमझुम रुमकदे खूहो,
मेरे पिंड दीओ जूहो,
तुसीं हरगिज़ ना कुमलाइओ,
मैं इक दिन फेर आऊणा है।
नी किक्करो, टाहलिओ, डेको,
नी निम्मो, साफ दिल नेको,
ते पिप्पलो, बाबिओ वेखो,
तुसीं धोखा ना दे जाइओ, 
मैं छावें बहिण आऊणा है,
मैं एक दिन फेर आऊणा है।
जे चक्क घुम्मे घुमारां दा, 
तपे लोहा लुहारां दा,
मेरा संदेश प्यारां दा,
उन्हां तीकर वी पहुंचाइओ,
मैं इक दिन फेर आऊणा है।
अगले दिन अजीत समाचार पत्र समूह ने उन्हें पंजाबी साहित्य का बाबा बोहड़ कह कर उनके निधन को एक युग का अंत कहा तथा ट्रिब्यून ट्रस्ट के चेयरमैन एन.एन. वोहरा ने उनकी निम्नलिखित लाइनें दोहराईं :
एह जु रंगां ’च चितरे ने खुर जाणगे
एह जो मरमर ’च उकरे ने मिट जाणगे।
बलदे हत्थां ने जिहड़े हवा विच्च लिखे
लफ्ज़ ओही हमेशा लिखे रहिणगे।
इसी प्रकार ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ ने ‘पिच्छों रह गया की ढाढस बनौण लई’ फैज़ अहमद फैज़ के शब्द याद करवाए :
बड़ा है दर्द का रिश्ता ये दिल ़गरीब सही
तुम्हारे नाम पे आएंगे ़गम-गुसार चले।
पंजाबी तथा हिन्दी के सभी समाचार पत्रों ने उनके योगदान तथा उपलब्धियों का ज़िक्र किया। मार्क्सवादी समाचार पत्र ‘देश सेवक’ सहित। प्रकाशक हरीश जैन ने उन्हें ‘हवा में तैरता दीया’ कह कर उनकी चाल के भीतर के तरकस तथा चेहरे की लय पहचानी और ये शब्द भी याद किए :
तेरे कलाम नूं जज़्बे बहुत महीन मिले
दिखाई देन, जो हंझू दी घुर्दबीन मिले 
इन पंक्तियों का लेखक भी उसके ही शे’अर तथा शब्द दोहराता है :
मैं राहां ’ते नहीं तुरदा
 मैं तुरदा हां तां राह बणदे
युगां तों काफले आऊंदे 
इसे सच्च दे गवाह बणदे 
कदी दरिया इकल्ला तैअ 
नहीं करदा दिशा आपणी 
ज़मीं दी ढाल, जल दा वेग
 ही रल मिल के राह बणांदे 
जदों तक लफ्ज़ जिऊंदे ने,
 सुखनवर जिऊण मर के वी
ओह केवल जिस्म हुंदे ने 
जो सिवियां विच्च सुआह बणदे।
*
जो विदेशां ’च रुलदे ने रोज़ी लई
ओह जदों देश परतणगे अपने कदी
कुझ तां सेकणगे मां दे सिवे की अगन 
बाकी कबरां दे रुख हेठ जा बहिणगे।
पंजाब के काले दिनों में उनकी रचनाकारी में अतीव संवेदना थी : 
लग्गी नज़र पंजाब नूं, एहदी नज़र उतारो 
लै के मिर्चां कौड़ीया,ं इहदे सिर तों वारो
सिर तों वारो, वार के, अग्ग दे विच्च साड़ो
लग्गी नज़र पंजाब नूं, एहदी नज़र उतारो।
देश विभाजन के समय पंजाब कितना भी बांटा गया हो, वह दोनों पंजाबों को अविभाजित देखता था :
एह पंजाब कोई निरा जुगराफिया नहीं
एह एक रीत, एक गीत, इतिहास वी है
किन्ने झक्खड़ तुफानां ’चों लंघिया ए
एहदा मुखड़ा कुछ कुछ उदास वी है
मुड़ के शान इसदी सूरज वांग चमकू
मेरी आस वी है, अरदास वी है।
वह यहां की कृषि तथा गांवों को बेहद प्यार करते थे। दिल्ली की सीमा पर किसान आन्दोलन के बारे उनके बोल आज भी हवाओं में गूंज रहे हैं : 
एह बात निरी ऐनी ही नहीं, 
न एह मसला सिर्फ किसान दा ए।
एह पिंड दे वस्सदे रहिण दा ए, 
जीहनूं तौखला उज्जड़ जाण दा ए। 
निश्चय ही उनकी इस भावना की जड़ें गांव पत्तड़ कलां की सरज़मीं में थीं। 
सुरजीत पातर का अंतिम सप्ताह बड़ा व्यस्तता वाला था। मैं उन्हें सप्ताह भर पहले ही पंजाब कला परिषद् के आंगन में मिला था नये स्थापित हुए आडियो, वीडियो, स्टूडियो के उद्घाटन के समय। वह थका-थका सा प्रतीत हो रहा था, परन्तु अगले दिन उसने बरनाला वालों को भी इन्कार नहीं किया। फिर वहां के कार्यक्रम में शमूलियत करके वापिस आकर कवियों की किसी बैठक में भाग लेने के लिए जगराओं भी रुक गया। ऐसी व्यस्तता के बाद आशा पुरी लुधियाना अपने घर आकर ऐसे सोया कि सोया ही रह गया। संसार को सुच्ची तथा सच्ची अलविदा कह गया। उन पेड़-पौधों, सूर्य, चन्द्रमा, पशु-पक्षियों, अंधेरे, प्रकाश तथा तितलियों से बहुत दूर जो उसके तन-मन में समाये हुए थे।  
यह भी नोट करने वाली बात है कि जब उसका हल्का-फुल्का तथा कोमल शरीर अग्नि की भेंट हो रहा था तो सारा संसार मातृ दिवस मना रहा था। वह भी अर्श पर बैठी अपनी माता की गोद में जा बैठा था। माता भुपेन्द्र कौर को ढाढस बंधाने की ज़िम्मेदारी उसके दोनों बेटों अंकुर तथा मनराज पर आ गई है। इधर स्वयं को अच्छा वार्ताकार कहने वाले मेरे जैसे को तो यह भी नहीं सूझ रहा कि उसके चले जाने से उत्पन्न हुए शून्य को कैसी शब्दावली से भरा जाए। यहां भी मुझे उसके संत सिंह सेखों के निधन पर इस्तेमाल किए गए शब्दों की शरण लेनी पड़ रही है, ‘कल तक लुधियाना शहर के इस ओर भी एक सतलुज बह रहा था जो अचानक रुक गया। सदा के  लिए। सदा सदा के लिए। 
बहुत प्यारे सुरजीत पातर को उसकी अलविदा मुबारक!