सत्यवादिता के अचार का ज़ायका

दुनिया में वही काम करना चाहिए जो सारे कर रहे हो ज्यादा अलग दिखने की इच्छा जीव का जंजाल और मनोरंजन का सामान बना देती है। ऐसा ना हो की सारी दुनिया पूरब जा रही है और आप पश्चिम की तरह निकल जाए। जिसका नतीजा होगा कि आप अकेले पड़ जाएंगे और अकेली जान लाख बवाल झेलने पड़ते हैं। इंसान को याद रखना चाहिए कि वह इंसान है भगवान नहीं, की अकेले वह जिंदा रह जाएगा।
अगर दुनियादारी के हिसाब से नहीं चला जाए तो कब हिसाब किताब गड़बड़ा जाए कहां नहीं जा सकता। जब सारी दुनिया तीन को पांच बोल रही हो तो अकेले तीन बोलकर क्या ही उखाड़ा जा सकता है। दुनिया का तो कुछ नहीं उखाड़ा जा सकता है। हां खुद ज़रूर उखड़ जाना पड़ेगा। उससे बहुत बढ़िया है कि जब सब  तीन को पांच बोल रहे हैं तो खुद भी पांच ही बोला जाए। और जीवन को आनंद से जिया जाए।
आजकल के जमाने में सत्यवादिता बहुत महंगा शौक है। समर्थ और संपन्न ऐसे शौक को पालते नहीं है। और गरीब की पालने की हैसियत नहीं होती है। सत्य बोलना हाथी पालने से भी ज्यादा भारी भरकम काम है। उसकी खुराक सबके बस की बात नहीं होती है। सबसे पहले तो जहां अपने रहने की आजकल जगह बड़ी मुश्किल से मिलती है। वहां पर हाथी को कहां पर रखा जाए? इसीलिए भूल कर भी हाथी पालने का विचार मन में ना लाना ही उचित है।
जैसे सत्य किताबों में अच्छा लगता है। वैसे ही हाथी भी जंगल में ही अच्छे लगते हैं। और शांति से रह सकते हैं। तो अपने सत्य के  हाथी को जंगल में ही रहने दीजिए उसे जीवन में लाने का प्रयास मत कीजिए। वरना जो भुगतान आपको भुगतना पड़ेगा कि आप उसी हाथी के भार के नीचे दबकर अपनी जान गंवा बैठेंगे। 
और आप इस धरती पर परमानेंट के लिए नहीं आए हैं। कुछ दिन की जिंदगी है चैन से जिए और दूसरों को भी जीने दे। इसीलिए ऐसे सब प्रयोग करने से पहले उनके खतरों के बारे में भी खबरदार रहे।
आज के जमाने में सत्यवादिता एक बीमारी से ज्यादा कुछ नहीं, जिससे सब दूर रहना चाहते हैं। आप चोर को चोर कह दीजिए। डाकू को डाकू कह दीजिए। उसके बाद अपना हालत देख लीजिए कैसा होता है। गोबर लाल जब बच्चे थे तो उन्होंने किताब में लिखे को सच मान लिया। किताब में लिखा था कि ‘सदा सत्य बोलना चाहिए’! लेकिन उनकी मूर्खता की यह हद थी कि उन्होंने इसे सच मानते हुए इसको गांठ बांध लिया। और पहला सत्य स्कूल में बोला जब मास्टर ने पूछा कि बच्चों बताओ मेरी कुर्सी की टांग किसने तोड़ी, तो पूरी क्लास चुप थी। दुनियादारी के हिसाब से गोबर लाल को भी चुप रहना चाहिए था।
लेकिन गोबर लाल पर सत्यवादी बनने का भूत चढ़ा हुआ था। और उन्होंने तोड़ने वाले के बारे में बता दिया मास्टर ने शाबाशी दिया। लेकिन तोड़ने वाले ने उनको बड़े तबियत से तोड़ा 2 महीने तक हल्दी दूध पीनी पड़ी। फिर भी उनकी अकल की खिड़की नहीं खुली। अब अकल की खिड़की कोई सरकारी काम तो है नहीं की घूस दे दिला के कर लिया जाए। घर वाले बस उनकी बुद्धि पर अपना माथापीट कर रह सकते थे।
और गोबर लाल खुद से यह नहीं समझ पाए की हाथी के दांत खाने के कुछ और होते हैं। और दिखाने के लिए कुछ और होते हैं। इसीलिए गोबर लाल की जिंदगी बचपन से ही झटको से भरी हुई थी। इतने झटके तो किसी खटारा टेंपो और टूटी फूटी सड़क पर भी नहीं आते जितना गोबर लाल की जिंदगी में थे। दो कदम चलते हैं और मुंह के बाल गिर कर अपने दांत तुड़वा लेते हैं।
फिर भी इन झटको से वह सुधर नहीं सके उनका तो भगवान ही मालिक था। घर वालों को उनसे कोई आशा नहीं थी। उनके इसी चाल चरित्र के कारण बचपन में घर के लोग मानते थे कि वह किसी पूर्व जन्म की पाप की सजा है। जिसे भुगतना उनकी नियति है। रिश्तेदारों ने मूर्ख राज की उपाधि से सम्मानित कर रखे थे और सहपाठी तो पागल कब का घोषित कर चुके थे। और पागल के संग कौन रहने जाए इसीलिए सब दूर-दूर रहते थे।
असली दुख तो विवाह होते ही शुरू हो गया बेचारे शादीशुदा जिंदगी में सत्यवादिता से काम लेते और एक नई मुसीबत को रोज मोल लेते। और जब तक उन्हें किताब के लिखा और वास्तविक जिंदगी का अंतर समझ में आया तब तक बहुत सारे भूकंप उनके जिंदगी को तहस-नस कर चुके थे। अब वह बैठकर अपनी सत्यवादिता का अचार लगा सकते थे। क्योंकि इस जमाने में सत्य का अचार के अलावा कुछ नहीं लगाया जा सकता।

मो. 8736863697

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