इंतज़ार और अभी...और अभी

 

इंतज़ार के एहसास में से जब रोमांस निकल जाए, तो आदमी अपने आपको रियायती अनाज की दुकान के बाहर खड़ा पाता है। इसके द्वार पर पुराना अली गढ़ी ताला झूल रहा है। न जाने कब इसका दुकान मालिक वापस आएगा, और बाहर इंतज़ार में खड़ी इस लम्बी कतार पर अपनी कृपादृष्टि प्रदान करेगा और कहेगा, ‘आओ, मित्रो एक-एक करके अपना रियायती गेहूं का हिस्सा लेते जाओ।’ लेकिन ज़िन्दगी इतनी सरल और सहज कहां है? इंतज़ार करते लोगों का सब्र का प्याला लबरेज हो जाता है। रियायती गेहूं बांटने वाला तो देवदूत हो गया, या अपनी दुकान के पिछवाड़े खुलने वाले चोर दरवाज़े का मालिक। आप आंकड़े गिनते रहिये कि भारत एक ऐसा कल्याणकारी देश है कि जिसकी अस्सी प्रतिशत जनता में सरकार रियायती गेहूं बांट देती है। लेकिन उस अस्सी प्रतिशत में हमने तो कभी अपने आप को नहीं पाया। चिरौरी, मिन्नत या बीच के किसी दलाल की मदद से यह अनाज कभी किसी को मिलता है कभी, नहीं मिलता। 
सरकार ने भूख से न मरने देने की गारंटी दे रखी है। लेकिन भूख को न सह सकने के कारण, या अपने सपनों के धूल-धूसरित हो जाने के कारण नौजवानों की खुतकशी पर तो कोई बन्दिश नहीं है न। वे खुदकुशी करते रहते हैं। हमने उनके आंकड़ों के मानसिक विक्षिप्तता की कोटि में डाल देते हैं। जनाब भूख से नहीं मरे, हमने तो भुखमरी से किसी को न मरने देने का कानून पास कर रखा है। अब वर्तमान सेहत ढांचे में कोई मिसफिट होकर मर जाए, तो इसमें कल्याणकारी सरकार को क्यों दोष देते हो?
आप यह सच न बताइएगा कि इस व्यवस्था में अगर आप दुनिया की सबसे अधिक कार्य-योग्य जनता वाले इस देश में नौजवानों को उचित रोज़गार की गारंटी दे देते तो वह मिसफिट होकर यूं न मरते।  बेशक जैसे इंतज़ार कभी रुमानी हुआ करता था, ऐसे ही मिसफिट हो जाना, निर्वासित या अकेला पड़ जाना भी कभी एक रुमानी शब्द हुआ करता था, गलदश्रु भावुकता से ओत-प्रोत। देवदास क्या मिसफिट नहीं थे। शरत चन्द्र महोदय ने अपनी अट्ठारह बरस की उम्र में इस उपन्यास में एक ऐसे मिसफिट त्रासद नायक का सृजन कर दिया, जो उम्र भर पारो के गांव जाकर उससे अपने बीमार जिस्म की देखभाल करवाने की दुराशा में यही कहता रह गया, ‘अभी और कितनी देर है, भाई गाड़ी वाले बस कहते-कहते यूं ही उसने पारो के ज़मींदार बाबू की हवेली के बाहर दम तोड़ दिया। और उसके बाद देश की पूरी नौजवान पीढ़ी को रोज़ी-रोटी, कपड़ा और मकान प्राप्त करने की इच्छा रखने के गुनाह में बस यही कहता छोड़ गया, ‘अभी और कितनी देर है भाई गाड़ी वाले।’
गाड़ी वालों के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं, और यहां पराजय और हताशा से सत्रस्त नौजवानों की यह पराजित पीढ़ी पढ़ाई-लिखाई छोड़, आइलैट्स अकादमियों के फज़र्ी वीज़ा माहौल द्वारा दिलाए या जुटाए गए अपेक्षित बैंडों की सहायता से विदेश पलायन का सपना देखते-देखते बूढ़ी हो जाती है। आज देश के आसपास बहुत से पड़ोसी देश बेशक नौजवानों की कमी और बूढ़ों की प्रचुर मात्रा की समस्या से जूझ रहे हैं। लेकिन अपने यहां तो नौजवानों की कमी नहीं है। हां, इंताज़ार करते-करते ही वे बूढ़े हो गये और अब नशे की गोलियों को गले से लगाते हुए दर्द भरे स्वर में कह देते हैं, ‘इंतज़ार और अभी और अभी।’
लगता है इस देश को हमने किसी तिरस्कृत रेलवे स्टेशन का उजाड़ प्रतीक्षालय बना दिया है। सतीश गुजराल की किसी पेंटिंग की तरह उदास लोग अपने घुटनों में सिर दिए हुए, जीवन की उस रेल का इस रेलवे स्टेशन पर रुकने का इंतज़ार करते रहते हैं, जो उनके लिए अच्छे दिनों का तोहफा लाएगी। लेकिन उपहार बंटने का संदेश लेकर आने वाली रेलगाड़ियां उनके इस स्टेशन पर नहीं रुकतीं। कभी कभार रुकती है यहां एक टटपूंजी मालगाड़ी, जिस पर उन जैसे बेटिकट यात्रियों का चढ़ना मना है। 
सफलता की घोषणाओं के इस सैलाब में देश की यह युवा पीढ़ी अपने आपको कहीं भी नहीं पाती। कल के छुटभैये तेज़ी से उन्हें पीछे छोड़ महामानव बन गए और टूटते हुए ख्वाबों के सलीब ढोते हुए ये नौजवान केवल सोचते हैं कि भला अलबर्ट कामू ने अपने उपन्यास ‘आऊटसाइडर’ या ‘बाहरी आदमी’ में क्या लिखा होगा? 
इन उपन्यासों में क्या लिखा है, उन्हें नहीं पता। लेकिन उनके पास तो अपने कई और सवालों के जवाब भी नहीं हैं। भ्रष्टाचार को न सहने की घोषणाओं के बावजूद इस देश में भ्रष्टाचार की मदद के बिना एक पत्ता भी क्यों नहीं हिलता? क्यों यहां ‘सब चलता है’ एक लोकप्रिय सूत्र वाक्य बन गया है? क्यों मेहनत का अर्थ व्यर्थ हो गया है? और कामयाब वह है जो कोई काम न करे, बस उसे काम का आडम्बर करना आना चाहिए। यहां अधूरी सड़कें, अधबने पुल, नित्य नई परियोजनाओं की घोषणा का मातम मनाते हैं, और मिथ्या सफलता के आंकड़े उनका अभिषेक करते रहते हैं। कभी बड़े बूढ़े आपको आशीर्वाद दिया करते थे, ‘चिरंजीवभव’ आजकल चरण-वंदना का जवाब मिलता है, ‘मरजीवी बनो।’ अर्थात् हर रोज़ अपने एक नये सपने के देहत्याग के बाद एक नया सपना देखने की कुव्वत पैदा करो क्योंकि मरजीवी कभी मर पाता नहीं, बस मर मर कर जीता रहता है, अपने जैसे सब लोगों के साथ।