औपचारिक रूप से नहीं, सच्च्े दिल से निमंत्रण देने की ज़रूरत थी !
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी ने नई संसद के उद्घाटन पर विपक्ष के बायकाट की तुलना बेटी की शादी से की है। उनका कहना है कि बेटी की जब शादी होती है तो पुराने गिले-शिकवे भूल कर सभी नाते-रिश्तेदार, परिजन और यार-दोस्त एक जगह जमा हो ही जाते हैं। लेकिन, नीरजा चौधरी यह लिखते समय भूल गईं कि ऐसा तभी हो पाता है, जब लड़की का बाप दो-तीन महीने पहले माहौल बनाना शुरू कर देता है। रूठे हुए लोगों को मनाने की नियोजित कोशिशें होने लगती हैं। धीरे-धीरे परिस्थिति ऐसी बन जाती है कि असंतुष्ट रिश्तेदारों में ़खुद ही निमंत्रणपत्र पाने की इच्छा पनपने लगती है। अगर बेटी के बाप की जगह नरेंद्र मोदी को रख कर देखा जाए तो क्या सरकार, भाजपा और मोदी द्वारा ऐसा कोई प्रयास होता हुआ दिखा? औपचारिक रूप से उन्होंने सभी को बुलाया था, पर सच्चे दिल से किसी को बुलाने की जहमत उन्होंने नहीं उठाई। शायद इस मौके पर आम सहमति बनाने की ज़रूरत उन्होंने नहीं महसूस की होगी। अगर भारतीय राजनीति के इतिहास को आम सहमति की रोशनी में देखें तो समझने में मुश्किल नहीं होगी कि नई संसद के उद्घाटन पर कोई आम सहमित क्यों नहीं बन पाई? दरअसल, यह समस्या गहरी है और मोदी के पहले की अवधि से जुड़ी हुई है। मोदी के शासन में इसी अभिव्यक्तियां तीखी ज़रूर हुई हैं।
नई संसद का भवन कितना भी ़खूबसूरत और विशाल क्यों न हो, उसके भीतर लोकतंत्र की आत्मा तभी धड़केगी जब वह एक नई राष्ट्रीय सहमति की नुमाइंदगी भी करती दिखाई देगी। विडम्बना यह है कि संसद की नई इमारत बनाने में जिस तरह की प्रशंसनीय तत्परता और योजना दिखाई दी है, उसका 100 वां हिस्सा भी अगर नई सहमति बनाने में ़खर्च किया गया होता तो इस समय उसके उद्घाटन का क्षण विवादास्पद न होकर एक सच्चे राष्ट्रीय पर्व का रूप ले लेता। यहां राष्ट्रीय सहमति से तात्पर्य उद्घाटक कार्यक्रम में केवल विपक्षी पार्टियों की भागीदारी से नहीं है, बल्कि इसका ताल्लुक एक बहुमुखी सहमति से है। एक ऐसी सहमति जो देश में विभिन्न धर्मों की मौजूदगी को सम्बोधित होती है, जो कई मुद्दों पर पक्ष-विपक्ष को स्वाभाविक रूप से एक मंच पर पहुंचा देती और जो सार्वजनिक जीवन में होने वाली चर्चा को कटुता और ध्रुवीकरण से निकाल कर रचनात्मकता की दिशा में ले जाती। विशेष बात यह है कि ऐसी सहमति तब बनती है जब विभिन्न राजनीतिक दल भी अपने सांगठनिक जीवन में सहमतिमूलक प्रक्रियाओं से चलाये जाते हैं। ऐसी सहमति तब बनती है, जब राष्ट्रीय जीवन कुछ तयशुदा मानकों के आधार पर अपनी शक्ल-सूरत ग्रहण करता है। मानकों की यह संहिता बदलती रह सकती है, पर इनमें होने वाला परिवर्तन भी सहमति के नवीकरण पर आधारित होता है। कहना न होगा कि केवल ऐसी राष्ट्रीय सहमति ही लोकतंत्र को मूल्यपरक बनाये रखने की गारंटी है। केवल ऐसी सहमति ही लोकतंत्र को महज़ चुनावी प्रतियोगिता पर आधारित हो कर मूल्यविहीन होने से रोक सकती है। यही है वह सहमति जो लोकतंत्र को विजेताओं का तंत्र बनने से रोकती है, बावजूद इसके कि विजेता पार्टिया और विजेता नेता ही लोकतंत्र का नेतृत्व करते हैं। हम सब जानते हैं कि देश की आबादी में 75 से 80 प्रतिशत आबादी हिंदू है। हिंदू मतदाता ही किसी पार्टी को अंतत: जिताते और हराते हैं। अल्पसंख्यक मतदाताओं की भूमिका बहुत थोड़े से निर्वाचन-क्षेत्रों को छोड़ कर पूरक ही होती है। लेकिन, क्या इसका मतलब यह निकाल लेना चाहिए कि हर सरकारी समारोह को मुख्यत: हिंदू-रीति रिवाजों का प्रदर्शन बन कर ही रह जाना चाहिए? क्या हमें सरकारी कार्यक्रमों को करने के लिए किसी ऐसी सामासिक विधि पर आम सहमति नहीं बना लेनी चाहिए जिससे अल्पसंख्यक समुदाय स्वयं को नज़रअंदाज़ न महसूस करें? क्या यह ज़िम्मेदारी स्वयं को हिंदू नेता कहने वालों की नहीं है? वे भी स्वयं को संविधान के प्रति प्रतिबद्ध कहते हैं। गणतंत्र दिवस की परेड राष्ट्रीय पर्व मनाने की एक ऐसी ही सामासिक विधि है जिसकी संरचना पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, पहले शिक्षा मंत्री मौलाना आज़ाद और पहले शिक्षा सचिव हुमायूँ कबीर के बीच हुई लम्बी चर्चा के बाद तैयार की गई थी। यह शिक्षाप्रद चर्चा रिकॉर्ड पर है और आसानी से पढ़ी जा सकती है। अगर इसकी भावना का पालन किया जाता तो नई संसद के उद्घाटन में अल्पसंख्यकों की उपस्थिति केवल सर्वधर्म प्रार्थनासभा की प्रतीकात्मकता में न समेट दी जाती। क्या नई संसद के उद्घाटन और राम मंदिर के शिलान्यास के वक्त हुए कर्मकांडों में कोई अंतर नहीं होना चाहिए था?
जब तक कांग्रेस पार्टी का संगठन राज्यों और केन्द्र के नेतृत्व के बीच संतुलन और सहमति से चलता था, तब तक कांग्रेस आम सहमति की लोकतांत्रिक भावना का प्रतिनिधित्व करती थी। जैसे ही पार्टी पर एक व्यक्ति और उसकी मंशा (इंदिरा गांधी) का कब्ज़ा हुआ, चुनावी विजयों का दौर ज़रूर लम्बा खिंच गया पर वह सहमतिमूलक नहीं रह गई। इसी तरह अटल बिहारी और आडवाणी के ज़माने में भारतीय जनता पार्टी भी एक सहमतिमूलक पार्टी प्रतीत होती थी। यही कारण था कि आडवाणी के सामने उमा भारती पैर पटकते हुए बाहर निकल गई थीं, पर उन्हें पार्टी से निष्कासित नहीं किया गया था। मोदी के ज़माने में पार्टी का आकार बहुत तेज़ी से बढ़ा है। उसकी चुनावी जीतों का सिलसिला भी पहले के मुकाबले बहुत ज्यादा है। जिस तरह कांग्रेस पर इंदिरा गांधी का कब्ज़ा है, मोदी-शाह के नेतृत्व का भी पार्टी पर कब्ज़ा जैसा है, वह सहमतिमूलक ढंग से काम करते नहीं दिखते। क्षेत्रीय पार्टियों की भी यही स्थिति है। उन पर एक नेता या एक परिवार का शिकंजा है। उस नेता के ग्ऱाफ में गिरावट या परिवार के बिखरने का मतलब होता है, पूरी पार्टी का बिखर जाना।
आम तौर पर सहमति वही नेता बना पाते हैं जिनमें अपनी साख और राजनीति को लेकर ज़बरदस्त आत्मविश्वास होता है। ऐसा यकीन हम अतीत के तीन-चार नेताओं में पाते हैं। नेहरू के अलावा दो और नाम हैं राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण।
दक्षिणपंथी राजनीति में अटल और आडवाणी ऐसे ही नेता थे। लोहिया ने ़गैरकांग्रेसवाद का ऐतिहासिक प्रस्ताव रात-भर बहस करने के बाद एक ऐसे व्यक्ति द्वारा रखवाया था जो उस प्रस्ताव का विरोधी था। इस श़ख्स का नाम था जॉर्ज ़फर्नाडीज़। यह जेपी के नेतृत्व के इर्द-गिर्द पैदा हुई सहमति का ही परिणाम था, जिसके कारण 1977 में जनता पार्टी बना कर इंदिरा गांधी को चुनौती दी जा सकती थी। गुजरात में हुई मुसलमान विरोधी हिंसा के बाद अटल बिहारी मोदी की मुख्यमंत्री पद से छुट्टी करना चाहते थे। अगर वे अड़ जाते तो मोदी का राजनीतिक भविष्य उसी समय अंधकारमय हो जाता। लेकिन, जब अटलजी को लगा कि पार्टी में सहमति इस परिवर्तन के पक्ष में नहीं है तो उन्होंने अपना ़कदम वापिस खींच लिया। देश में चुनाव कोई भी जीत-हार रहा हो, समहतिमूलक नेता और पार्टी का आगमन होना अभी ब़ाकी है।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।