स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के बाद भी मानसिक गुलामी से मुक्ति नहीं

हमारा देश अपनी स्वतंत्रता के 76 वर्ष पूरे कर चुका है। 75 वर्ष को अमृत महोत्सव के रूप में पूरे देश में, पूरी दुनिया में मनाया गया। 15 अगस्त, 2023 को 77वीं वर्षगांठ मनाई गई। जितने कार्यक्रम देश में किए जाते हैं, निश्चित ही पहले से भी ज्यादा धूमधाम से किए गए। भाषण भी बढ़िया हो गए, राशन भी मिल गया, लेकिन प्रश्न यह है कि आज़ादी की आत्मा किस बोझ के नीचे दबी है। जब भारत स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहा था तो उस समय के कवि गाते थे,  ‘बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हीये को सूल।’ भारतेंदु जी ने यह भी लिखा,  ‘अपनी भाषा है भली, भलो अपनो देश, जो कछु है अपनो भलो, यही राष्ट्र संदेश।’
अब बहुत-से प्रश्न सुरसा के मुंह की तरह फैले हुए हैं। इनका न तो कोई उत्तर दे रहा है और न ही समाधान। प्रश्न यह है कि हमारे देश में अभी तक हमारी राष्ट्र भाषा क्यों नहीं घोषित हो सकी। हम बचपन से पढ़ते-पढ़ाते आए, हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा है, लेकिन कालेज की शिक्षा प्राप्त करने के बाद जब यह जानकारी मिली कि हिन्दी राष्ट्रीय भाषा है, राष्ट्र भाषा नहीं। बड़ा दुखद है कि देश के बहुत-से राज्यों में हिन्दी अभी सम्पर्क भाषा है और अंग्रेज़ी भी, लेकिन विडम्बना यह है कि सम्पर्क भाषा के रूप में पंजाब समेत कई राज्य अंग्रेज़ी को तो गले लगा रहे हैं परन्तु हिंदी के लिए कोई स्थान नहीं। पंजाब सरकार के कार्यालयों में पंजाबी तो हमारी राज्य भाषा रहनी ही चाहिए, परन्तु इसके साथ प्रभुत्व अंग्रेज़ी का है। हिन्दी देखने को नहीं मिलती। पिछले समय में पंजाब के स्कूलों को स्मार्ट स्कूल बनाने का अभियान चला और धन भी खर्च किया गया।
 एक ज़िला शिक्षा अधिकारी से पूछा गया कि आखिर स्मार्ट स्कूल की परिभाषा क्या है, वहां विशेष क्या होगा? उत्तर मिला—अंग्रेज़ी माध्यम और गले में नेकटाई अर्थात स्वतंत्रता के पश्चात भी हम में यह विश्वास नहीं बन सका कि अपनी भाषा में शिक्षा लेकर या किसी भी भाषा में शिक्षा प्राप्त करने की छूट देकर हमारे बच्चे स्मार्ट हो सकते हैं। सभी जानते हैं कि पंजाब के स्कूलों में दसवीं श्रेणी तक पंजाबी माध्यम में पढ़ना है, परन्तु आठवीं के पश्चात अंग्रेज़ी माध्यम की छूट है हिन्दी की नहीं। आज स्थिति यह हो गई कि हर व्यक्ति यह सिद्ध करना चाहता है कि वह अंग्रेज़ी बोल सकता है और उनके बच्चे अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ते हैं।
बहुत अच्छा हो यदि स्वतंत्रता के 77वें वर्ष में इतना तो कर दिया जाए कि देश की किसी भाषा में हमारी दुकानों, कार्यालयों के नाम पट्ट लगें। पंजाब में पंजाबी और दूसरे राज्यों में उनकी राज्यभाषा तो दिखाई दे, परन्तु इसके साथ कम से कम उत्तर भारत में तो अंग्रेज़ी का कोई औचित्य नहीं। भेड़ चाल तो ऐसी हो गई है कि गांव के किसी कोने में छोटी-सी दुकान, खोखे तक चलाने वाला भी कोशिश करता है कि अंग्रेज़ी लिखी जाए जिससे उसकी ज्यादा पहचान हो। खानपान का सामान बेचने वाले क्या यह विश्वास बना चुके हैं कि अगर उनके डिब्बों पर हिन्दी या पंजाबी में दुकान या खाद्य पदार्थ का नाम लिखा जाएगा तो उसकी गुणवत्ता कम हो जाएगी। एक और बात, जो लोग अपनी भाषा के लिए आंदोलन में गए, जेलों में बंद रहे, उनके परिवार भी आज अंग्रेज़ी को ही प्राथमिकता दे रहे हैं। 
 किसी भी सरकारी भवन या अन्य कार्याल्य में फोन कीजिए, वहां से जय हिंद नहीं गुड मार्निंग, गुड ईवनिंग सुनने को मिलेगी। हमारे तथाकथित बढ़िया पब्लिक स्कूल बच्चों के गले में नेकटाई लटकाकर उन्हें उनकी मातृ भाषा न बोलने का आदेश देते हैं।  याद रखिए, महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कहा था कि समय और योग्यता के अनुसार विश्व की 84 श्रेष्ठ भाषाएं पढ़ सकते हैं तो पढ़िए, परन्तु मां को मां का स्थान देना ही चाहिए। डाक्टर राजेंद्र प्रसाद ने यही दर्द अनुभव किया था। उन्होंने कहा था कि प्राचीन काल में भारत स्वतंत्र गांवों का स्वतंत्र देश था। मध्यकाल में गांव तो स्वतंत्र रहे, परन्तु देश गुलाम हो गया। 
आज देश स्वतंत्र है, परन्तु हमारी मानसिकता गुलामी की हो गई। इसलिए स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मनाने के बाद भी 76 वर्ष के आज़ादी जश्न धूमधाम से मनाकर भी 77वें वर्ष में हमारी गलियों, बाज़ारों में आज़ादी नहीं। पिछले दिनों मदनलाल ढींगरा का बलिदान दिन मनाते हुए हमारे पंजाब के एक वरिष्ठ अधिकारी ने इस बात पर दुख प्रकट किया कि आज़ादी के इतने वर्ष बाद अंग्रेज़ों के नाम पर लारेंस रोड, एलबर्ट रोड, मकबूल रोड, सर्कुलर रोड, हाल गेट, क्वींज रोड आज भी चलते हैं। इसके साथ ही हुसैनपुरा, इस्लामाबाद, शरीफपुरा जैसे नाम जो 1947 में ही बदले जाने चाहिए थे, वे आज भी चल रहे हैं। आखिर क्यों?