विकसित राष्ट्र हो जाने का इंतज़ार

हमने देखा उनकी आंखों में हमारी पहचान खो चुकी थी। आज उनके द्वार पर दस्तक दूं, तो वह अजब ऊब के साथ हमारी ओर देखेंगे, जैसे कहते हों, ‘मियां हमारा पीछा छोड़ो।’ वे दिन गये जब मियां खलील खां फाख्ता उड़ाया करते थे। बड़े कारोबारी ढंग से न जाने कितने दिन उन्होंने हमें चने के झाड़ पर चढ़ाया था। न जाने कितनी अनुकम्पाओं, बेवजह का प्रशस्ति गायन, और उनका वायदा कि हम हमेशा आपके साथ चलेंगे। एकाध बरस नहीं, गाड़ी मिलने पर पूरे पांच बरस नहीं बल्कि कम से कम केवल एक सहस्त्राब्धि तक। जी हां, यह ऐसे मेहरबान थे, जो हमें एक हज़ार साल तक ज़िन्दा रखने की बात कह रहे थे, और उजली सदियों के आगमन की झलक हमें दिखला रहे थे।
़खबर आयी कि जिस तरह से हम जन्म के फिसड्डी साबित देशों की अगली पांत में आ गये थे। महामना की कृपा से बिल्कुल उसी तरह क्या हम सबको पछाड़ कर दुनिया का शीर्ष बन जायेंगे एक दिन? 
अभी जैसे कभी अपने देश पर सदियों तक शासन करने वाली गोरी धरती अर्थात ग्रेट ब्रिटेन के वासियों को हमने पछाड़ दिया उसी तरह पांचवीं से तीसरी और तीसरी से पहली आर्थिक ताकत बनते देर नहीं लगेगी। हमें भी उन्होंने कहा था। बिल्कुल वैसे ही जैसे आजकल हर दिन प्रकाशित होने वाली लेखकों और कलाकारों की शीर्ष सूची में हमारा कहीं नाम भी न होने के बावजूद अन्य गायब नामों वाले मित्रों ने अपनी सूचियां बना कर अपने आपको उसके शीर्ष पर रख कर लोगों के दिलों पर बिजलियां गिरा दीं, पर यहां तो आलम यह है बन्धु, ‘नंगा  नहायेगा क्या और निचोड़ेगा क्या?’ इसलिए जब किसी तौलिये से लेकर रुमाल तक की सहायता लेकर अपना अंधेरा और तिरस्कृत चेहरा किसी के दिखाने की चेष्टा भी कहीं नहीं, तो अब आखिरी वक्त में कैसे मुसलमान हो जायें? 
बिल्कुल उसी तरह जैसे देश ने आज़ादी और नव-निर्माण की पौन सदी का अमृत महोत्सव मना लिया। जो धनी थे, वे सर्वशक्तिमान हो गये, और देश के नब्बे प्रतिशत अपनी आंखों में नये नूर की तलाश में बेनूर थे, बेनूर ही रहे। सूरदास भी तो आंखों से बेनूर थे, लेकिन उन्होंने सूर सागर की रचना कर दी, और उनका अन्तस भीतर से आलोकित किसी रौशनी से जगमगा उठा और हम सब?
यहां तो जगमगाती है दुनिया भर में सबसे तेज़ देश की विकास गति की कृपा, ऊंची-ऊंची इमारतों की नित्य नई मंज़िलों पर निरन्तर सौभाग्य जैसी उजाले की लड़ियां।
लेकिन देश की बहुसंख्या जो चिरंजीवी अंधेरे में बैठी है, उसे अच्छा जीवन प्रदान कर देने की तारीख पर तारीख। आपने आज़ादी और विकास का अमृत महोत्सव मना लिया, और आम आदमी को राष्ट्रीयता के गौरव को पुन: समर्पण का सन्देश मिला, केवल एक दिलासा, कि अब तुम्हारे विकास की भी खोज कर ली जाएगी, और तुम्हारे लिये मूलभूत आर्थिक ढांचे का निर्माण शुरू होगा, अब। यहां सपनों के साकार होने की कम से कम उम्र एक चौथाई सदी है। तब बनोगे तुम एक पिछड़े हुए या विकासशील राष्ट्र से विकसित राष्ट्र। बीच के रास्ते का नया नामकरण हो गया है। विकास पथ और कर्त्तव्य पथ से भी आगे अमृत पथ। आओ शतकीय महोत्सव मनाने की तैयारी कर लो। तब एक महा-उत्सव होगा, विकसित राष्ट्र हो जाने का। तुम जो मांगोगे वह मिलेगा। जी नहीं, अलादीन का चिराग नहीं, जो शिक्षा तुमने हासिल की है, उसके मनोचित नौकरी मिलेगी, पहनने के ऊल जलूल की जगह सही कपड़े होंगे, और सिर छिपाने के लिए मिलेगी एक छत। फुटपाथी लोग भला इससे अधिक की उम्मीद भी कैसे करें? सपनों भरा राजपाट शुरू करते हुए आम आदमी के साथ एक वायदा किया गया था, कि आप सुबह बिस्तर से उठेंगे और आपके हर खाते में पन्द्रह-पन्द्रह लाख रुपये होंगे। अभी दुनिया भर में एक सर्वेक्षण हुआ है, जहां बताया गया है कि हर देश के नागरिक अपने सदा खुश रहने के लिए कितने रुपये वार्षिक कमाने की आशा रख सकता है। जहां बाहुबलि देशों की इच्छा करोड़ों रुपये से कम नहीं, वहां बेचारे भारतीय कहते हैं कि हमें वर्ष में सोलह लाख रुपये ही मिल जायें तो हम खुश हैं। हमें लगता है इसमें भी पन्द्रह लाख तो वही है, जिनका उनके खाते में आ जाने का सपना अब बाबा आदम के ज़माने का हो गया है।
हां, यह अवश्य कह दिया है, कि असल सुख कमा कर खर्च करने में है, कौड़ी-कौड़ी बचा थैलियों में रखने में नहीं। इसलिए तो बढ़ती कीमतों से संघर्ष करने के लिए बचतों की बंधी जमा पर ब्याज की दर इतनी बढ़ायी, लेकिन मिज़र्ा ़गालिब के वंशजों से उनके सूत्र वाक्य ‘कज़र् की पीते थे मय’ का अनुसरण करते हुए कज़र् लेने कर भी महंगी चीज़ों की मांग से कमी नहीं की। प्रति व्यक्ति औसत कज़र् के आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश में हर फटीचर आदमी औसतन लाखों रुपये के कज़र्े से दबा हुआ है, लेकिन अब उत्सव-त्यौहार के दिनों में कज़र् लेकर खर्च कर देने की बिल्ली उनके दिमाग पर कूद रही है। यूं देश में नव-उत्पादित वस्तुओं की मांग कम नहीं होती, और हम दुनिया की पांचवीं आर्थिक महा-शक्ति से तीसरी बन जाते हैं। यह सब कमाल किया विकास दर के बढ़ने के साथ इस देश के फैलते हुए मध्य वर्ग ने। करोड़ों ़गरीब लोगों का आंकड़ा बढ़ जाने की हमें क्या परवाह? उनकी सुध तो देश में रिकार्ड रियायती गेहूं बंटने की योजना ले तो रही है। देखो हमने इनके भूख से न मरने की गारंटी दे तो दी, अब इनके लिए काम-धाम मांगने की ज्यादती तो न करो।