पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव — किसान निभाएंगे निर्णायक भूमिका

पांच राज्यों की 679 विधानसभा सीटों में होने वाला यह चुनाव अगले साल लोकसभा के लिए होने वाले आम चुनावों के पहले का मिनी जनमत होगा। इसलिए यह आश्चर्य नहीं है कि राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिज़ोरम में होने जा रहे इन विधानसभा चुनावों में देश का आवश्यकता से अधिक ध्यानाकर्षित किया है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि हिंदी पट्टी के तीनों राज्यों में भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला है। इन विधानसभा चुनावों को सेमीफाइनल भी कहा जा रहा है और यह भी कि फाइनल यानी 2024 में होने वाले आम चुनावों को इन विधानसभा चुनावों के नतीजे प्रभावित करेंगे। लेकिन यह गैर-ज़रूरी उत्तेजना है। इन पांच विधानसभा चुनावों के नतीजों से अगले साल के लोकसभा चुनावों के नतीजों को निकालना फिजूल होगा। क्योंकि इन राज्यों में पिछले कुछ चुनावों के चक्रों से मालूम होता है कि मतदाताओं ने विधानसभा और उसके बाद के लोकसभा चुनावों में अक्सर अपने मत का प्रयोग अलग-अलग तरह से किया है। 
बहरहाल, इस बार कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जो लोकसभा चुनाव में भी अपना रंग दिखायेंगे, खासकर जिनका संबंध कृषि व किसानों से है। नई दिल्ली में 9 अक्तूबर 2023 को उक्त पांच राज्यों की विधानसभाओं के लिए चुनाव की घोषणा करते हुए चुनाव आयोग ने 24-दिन की मतदान खिड़की खोली जोकि 7 से 30 नवम्बर तक की है और मतगणना 3 दिसम्बर 2023 को होगी। छत्तीसगढ़ में मतदान दो चरणों में होगा। इसके नक्सल-प्रभावित दक्षिण क्षेत्र में वोटिंग 7 नवम्बर को होगी और मध्य प्रदेश की सीमा से लगे उत्तरी क्षेत्र में 17 नवम्बर 2023 को लोग अपने मत का प्रयोग करेंगे। बाकी राज्यों में एक चरण में मतदान होगा- मध्य प्रदेश व मिज़ोरम में 7 नवम्बर 2023 को, राजस्थान में 23 नवम्बर को और तेलंगाना में 30 नवम्बर 2023 को। इन राज्यों में 16.14 करोड़ मतदाता (जिनमें लगभग 60 लाख नये मतदाता हैं) 679 विधायकों को चुनेंगे। सबसे ज्यादा मतदाता (5.6 करोड़) मध्य प्रदेश में हैं, जो 230 विधायक चुनेंगे और सबसे कम वोटर (8.5 लाख) मिज़ोरम में हैं, जो विधानसभा की 40 सीटों के लिए अपने मत का प्रयोग करेंगे। जबकि छत्तीसगढ़ में 2 करोड़ वोटर व 90 सीटें, राजस्थान में 5.3 करोड़ वोटर व 200 सीटें और तेलंगाना में 3.2 करोड़ वोटर व 119 सीटें हैं। 
कायदे में एक विधायक को अधिकतम एक लाख मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करना चाहिए, इसलिए मिज़ोरम को छोड़कर शेष चारों राज्यों में जनप्रतिनिधि-मतदाता अनुपात असंतुलित है, जिससे सरकार के स्तर पर जनता का उचित प्रतिनिधित्व नहीं हो पा रहा है। इन पांचों विधानसभा चुनावों का मूल्यांकन करने के लिए चार राज्यों को तो जाति, कल्याणकारी योजनाओं व कृषि मुद्दों के लेंस से देखना होगा और मिज़ोरम में देशज़ मुद्दा महत्वपूर्ण है। मिज़ोरम में 1989 के बाद शायद पहली बार मुख्यमंत्री के रूप में नया चेहरा देखने को मिले। पिछले तीन दशकों से इस राज्य में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर दो ही व्यक्तियों को देखा गया है- कांग्रेस के लाल थान्हावला और मिज़ो नेशनल फ्रंट (एम.एन.एफ.) के वर्तमान मुख्यमंत्री ज़ोरमथंगा। लेकिन इस बार कांग्रेस का नेतृत्व लाल्सवता कर रहे हैं और कांग्रेस व एम.एन.एफ. धुव्रों को एक नया मज़बूत दावेदार ज़ोरम पीपल्स मूवमेंट चुनौती दे रहा है, जिसके नेता पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी लालदुहोमा हैं, जो 1984 में सांसद चुने गये थे। मिज़ोरम में मणिपुर की देशज हिंसा, म्यांमार, अत्यधिक कज़र् और निरंतर बिगड़ती नार्को समस्या प्रमुख चुनावी मुद्दे हैं। मिज़ोरम के युवा ‘परिवर्तन’ की मांग कर रहे हैं और 2017 में स्थापित ज़ोरम पीपल्स मूवमेंट ने ‘बदलाव’ का ही वायदा किया है।
मिज़ोरम से अलग जो चार राज्य चुनाव में जा रहे हैं उनमें बिहार का जाति सर्वे अपना रंग दिखाता प्रतीत हो रहा है। इस संदर्भ में कांग्रेस ने एकदम स्पष्ट पक्ष लेते हुए राष्ट्रीय स्तर पर जाति सर्वे की मांग की है। अशोक गहलोत ने राजस्थान में जाति सर्वे कराने का आदेश दिया है और मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने वायदा किया है कि सत्ता में आने के बाद वह राज्य में जाति सर्वे करायेगी। इस विषय पर भाजपा का स्टैंड अस्पष्ट है और इन चुनावों के नतीजे तय करेंगे कि वह लोकसभा चुनावों के लिए क्या लाइन अपनाती है। कहने का अर्थ यह है कि ‘जिसकी जितनी जनसंख्या, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ एक प्रमुख मुद्दा बन गया है और आगे आने वाले चुनावों में भी बना रहेगा। कल्याणवाद भी सभी पार्टियों व राज्यों में एक साझा विषय के रूप में उभरा है। तेज़ आर्थिक विकास के बावजूद औपचारिक सेक्टर में पर्याप्त जॉब्स उत्पन्न नहीं हो सके हैं। राजनीतिज्ञ जानते हैं कि कल्याणकारी योजनाएं अनौपचारिक जॉब्स के खतरों को कम कर देती हैं। भारत के सबसे रईस राज्यों में से एक तेलंगाना, जहां प्रति व्यक्ति जी.डी.पी. 3.1 लाख रूपये है, में कांग्रेस ने ‘गारंटियों’ पर आधारित कल्याणकारी योजना बनायी है। 
मध्य प्रदेश में सत्ता विरोधी लहर से बचने के लिए भाजपा रेवड़ियां बांटने पर निर्भर कर रही है, जिनमें महिलाओं को मासिक आय ट्रान्सफर करना भी शामिल है। छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल की तुलना में मध्य प्रदेश, राजस्थान व तेलंगाना के मुख्यमंत्रियों के समक्ष किसानों के कठिन प्रश्न अधिक हैं। यह अपने आप में कहानी है और शायद यह भी बताती है कि सभी पदधारी मुख्यमंत्रियों में बघेल सबसे कम असुरक्षित क्यों हैं। हालांकि चुनावों की समीक्षा करते समय अधिकतर आलोचक जाति व सामुदायिक वोटिंग इरादों पर अधिक फोकस करते हैं और अक्सर कृषि को बोरिंग विषय मानकर अनदेखा कर देते हैं, लेकिन इस बार जो ट्रेंड फिलहाल दिखायी दे रहा है, उसमें किसान निर्णायक भूमिका में प्रतीत हो रहे हैं, जोकि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान व तेलंगाना में बहुसंख्यक मतदाता भी हैं। गौरतलब है कि मध्य प्रदेश की 72.4 प्रतिशत आबादी किसानी से जुड़ी हुई है और लगभग यही हाल छत्तीसगढ़ (70 प्रतिशत), राजस्थान (62 प्रतिशत) और तेलंगाना (60 प्रतिशत) का है। इसके बावजूद कृषि का सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जी.एस.डी.पी.) में हिस्सा किसानों की संख्या की तुलना में बहुत कम है- मध्य प्रदेश में 36.3 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 32 प्रतिशत, राजस्थान में 24 प्रतिशत और तेलंगाना में 21 प्रतिशत। इसका अर्थ यह है कि जो पार्टियां सत्ता में हैं और जो सत्ता में आना चाहती हैं, उनमें से किसी ने भी किसानों की सुध नहीं ली है। 
इस बार इन राज्यों में बारिश ने भी अपना अजीबोगरीब रूप दिखाया है। किसान अपनी स्थिति को लेकर बहुत परेशान हैं और इस समय केवल किसान के रूप में सोच रहे हैं। इसलिए अनुमान यह है कि इन राज्य चुनावों में किसान सामान्य से अधिक बड़ी भूमिका निभायेंगे, जोकि निर्णायक भी हो सकती है। दिलचस्प अंतर-दलीय डायनामिक्स भी अपना खेल दिखा रहे हैं। कांग्रेस में पॉवर स्ट्रक्चर अब आलाकमान-सीमित नहीं रहा है बल्कि क्षेत्रिय नेताओं को अधिक ज़िम्मेदारी दी जाने लगी है। दूसरी ओर भाजपा पहले की तरह राज्यों के नेताओं को प्रोत्साहित नहीं कर रही है, सारी शक्ति मोदी-शाह तक केन्द्रित हो गई है, इसलिए राजस्थान में वसुंधरा राजे और मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान उसके मुख्यमंत्री-चेहरा नहीं हैं। तेलंगाना में के.सी.आर. को भाजपा नहीं बल्कि कांग्रेस चुनौती दे रही है। मिज़ोरम में कांग्रेस व एम.एन.एफ. के सामने ज़ोरम पीपल्स मूवमेंट है, जिससे वहां मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है। बहरहाल, इस बात की गारंटी अवश्य है कि परिणाम दिवस पर जबरदस्त नाटक देखने को मिलेगा।-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर