जाति की बैसाखी के सहारे खड़ा होता विपक्ष

राजनीतिक भविष्य तलाशत रहा विपक्ष जातिगत जनगणना को बैसाखी बना रहा है, जो कभी भी गिर सकती है। नेता, नीति और साफ  नीयत से रहित समूचा विपक्ष शगूफा गठबंधन सिद्ध हो रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में समाज, राष्ट्र और वैश्विक पटल पर सुधार, प्रदर्शन व बदलाव जारी हैं। देश बदल रहा है। तत्काल निर्णय लेकर जन कल्याणकारी योजनाएं लागू की जा रही हैं। विपक्ष के पास प्रत्येक सकारात्मक मुद्दे के विरोध में कोई ठोस मुद्दा न होने पर भी वह वर्ग भेद, सांप्रदायिक वैमनस्य और अब जातिगत जनगणना का राग अलापने पर आमादा है। विगत दिनों बिहार में जातिगत आधारित गणना की रिपोर्ट जारी हुई। 
रिपोर्ट में प्रमुखता से सामने आया कि प्रदेश में 63 प्रतिशत पिछड़ा वर्ग और 19 प्रतिशत अनुसूचित जाति की संख्या है। आबादी के अनुसार प्रमुख जातियों की संख्या इस प्रकार दी गई है—यादव 1.86 करोड़, दुसाध 69.43 लाख, रविदास 68.69 लाख, कुशवाहा 55.06 लाख, मुसहर 40.35 लाख, ब्राह्मण 47.81 लाख, राजपूत 45.10 लाख, कुर्मी 37.62 लाख, बनिया 30.26 लाख, कायस्थ 7.857 लाख। प्रदेश में पिछड़ा वर्ग की संख्या 27.12 प्रतिशत के साथ 3.54 करोड़ है तो अत्यंत पिछड़ा वर्ग 36.1 प्रतिशत के साथ 4.70 करोड़ है। साथ ही राज्य की कुल आबादी में 82 प्रतिशत हिन्दू और 18 प्रतिशत मुस्लिम बताए गए हैं। हिन्दू स्वर्ण की जनसंख्या में कमी और प्रति हज़ार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या 953 भी बताई गई है। लगभग 9 दशक बाद बिहार में जातिगत गणना के कई निहितार्थ भी हैं। यह गणना किसी जाति की दशा अथवा उसके जीवन में कुछ परिवर्तन कर पाएगी, यह कहना भी मुश्किल है। ध्यातव्य है कि स्वतंत्रता के बाद से ही बिहार जाति आधारित राजनीति के कारण भिन्न-भिन्न रूपों में पिछड़ा रहा। वहां भिन्न-भिन्न प्रकार के अपराध के आंकड़े, महिलाओं की स्थिति, शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्थाएं आज भी चिंताजनक हैं। 
स्वतंत्रता के पहले भी भारत में जाति और सम्प्रदाय की दीवारें खड़ी हुई थी, इसके मूल में ब्रिटिश मानसिकता थी, किंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी जाति-सम्प्रदाय आदि के आधार पर विभाजन के माध्यम से राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति का सिलसिला जारी है। सर्वविदित है कि स्वतंत्रता के बाद राजनीति के पदासीन लोग जाति-सम्प्रदाय और परिवारों की परिधि में संकुचित होते चले गए, उनमें समाज और राष्ट्र के उत्थान की भावना उपेक्षित ही रही। प्रादेशिकता, जाति, भाषाई विविधता की राजनीति विभिन्न नेताओं और दलों के केंद्र में रही, भारत भाव उनके चिंतन में न आ सका। बिहार में जाति आधारित गणना न केवल बिहार अपितु समूचे देश में जाति के नाम पर विभाजन की मानसिकता को ही बढ़ावा देगी। जाति विशेष की संख्या के अनुसार व्यवस्थाओं में हिस्सेदारी की बातें होने लगी हैं। अगड़े-पिछड़े के विभाजन के साथ जन सामान्य में मतभेद पैदा करने के प्रयास हो रहे हैं। प्रश्न यह है कि लोकतंत्र में जन प्रतिनिधि चुने जाएं या जाति प्रतिनिधि।
भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है, जिसमें हम भारत के लोग की भावना प्रधान है। क्या जातिगत प्रतिनिधित्व हम की भावना को कमज़ोर नहीं करेगा? आज सभी व्यवस्थाओं में आपसी तालमेल और सहभागिता से देश मज़बूत होकर आगे बढ़ रहा है। जातिगत गणना के मूल में कोरी सियासत है, यदि इन आंकड़ों के माध्यम से योजनाएं बनाकर जीवन स्तर को बेहतर करने की बात है तो वह भी केवल छलावा ही है। क्या अगड़ी कही जाने वाली जातियों में लाखों लोग गरीबी का शिकार नहीं हैं? क्या जन कल्याण के लिए गरीबी सबसे बड़ा आधार नहीं होना चाहिए? जातीय गणना विकसित भारत की राह में एक बड़ी अड़चन बन सकती हैं। विगत कुछ वर्षों से जन सामान्य में आपसी सहयोग एवं सामाजिक समरसता की भावना बढ़ी है। सबका साथ, सबका विकास और अंतोदय की भावना से किसान, मज़दूर एवं गरीबों के कल्याण हेतु योजनाएं आकार ले रही हैं। ऐसे में जातीय गणना बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा देगी, जिससे सामाजिक सौहार्द बिगड़ने और वर्ग संघर्ष बढ़ने की संभावनाएं तीव्र होगी। 
विकसित भारत के लिए जन-जन का जुड़ना आवश्यक है। क्या जाति की संकीर्णताओं में उलझकर विकसित भारत का संकल्प पूरा हो सकेगा? गांधी जी ने जात-पात को लेकर कहा था, ‘मैं जात-पात को नहीं मानता। यह समाज का फालतू अंग है और तरक्की के रास्ते में रुकावट जैसा है। इसी तरह आदमी-आदमी के बीच ऊंच-नीच का भेद भी मैं नहीं मानता। हम सब पूरी तरह बराबर हैं।’ यह विडम्बना ही है कि गांधी जी के सिद्धांतों पर चलने का दावा करने वाली कांग्रेस ने हाल ही में कार्यसमिति की बैठक के दौरान जातिगत जनगणना कराने के साथ ओबीसी, एससी-एसटी को आबादी के हिसाब से भागीदारी देने के एजेंडे पर मोहर लगाई है। ऐसा लगता है कि राजनीतिक स्वार्थपूर्ति हेतु अब उसके पास भ्रम और भय फैलाने का यह अंतिम मौका है। ‘इंडिया’ गठबंधन के कुछ दल इससे असहमत भी हैं लेकिन नीयत स्पष्ट न होने से वे भी चुप हैं। आज भ्रष्टाचार, आतंकवाद, विस्तारवाद, सबको शिक्षा, सबको स्वास्थ्य, सबको पोषण, सबको सुरक्षा आदि सैकड़ों मुद्दे ऐसे हैं जिन पर गंभीरता से काम करते हुए ही सर्वोदय का संकल्प पूरा हो सकता है। जाति, सम्प्रदाय और क्षेत्रीयता के जाल में उलझकर इस देश ने बहुत कष्ट सहे हैं। आज इससे बाहर निकालने की आवश्यकता है। ध्यान रहे जातिगत जनगणना से कुछ समय के लिए राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति तो हो सकती है लेकिन विकसित भारत और भविष्य के भारत की राह में यह एक बड़ी बाधा सिद्ध होगा, क्योंकि विकसित भारत का रास्ता तो जाति, वर्ग और सम्प्रदायविहीन समाज की सोच से ही बन सकता है। (युवराज)