आरक्षण से ज्यादा हताशा में जल रहा है महाराष्ट्र

महाराष्ट्र से बाहर जिन लोगों को मराठा आरक्षण आंदोलन के उग्र होने की खबर पिछले एक सप्ताह से ही है, उन्हें जान लेना चाहिए कि यह आग इस साल के अगस्त माह से सुलग रही है। सितम्बर से तो बकायदा महाराष्ट्र के कई क्षेत्रों में मौजूदा आरक्षण आंदोलन शुरु हो चुका था, लेकिन तब देश के ज्यादातर हिस्सों में इसकी कोई खबर नहीं थी। पिछले 12 दिनों में 13 आंदोलनकारी हताशा में आत्महत्या कर चुके हैं। प्रदेश के 30 बस डिपो बसों का परिचालन पूरी तरह से बंद हो चुके हैं, 22 सरकारी बसें अभी तक पूरी या आंशिक रूप से फूंकी जा चुकी हैं, जिस कारण प्रदेश के कई क्षेत्रों में उनका चलना मुश्किल हो गया है। इन स्थितियों से गुजरते हुए आज हालात ये हो चुके हैं कि पुलिस की मौजूदगी में भी महाराष्ट्र के विधायक तक पूर्णत: सुरक्षित नहीं है। जिस समय बीड़ के माजलगांव विधानसभा के विधायक प्रकाश सोलुंके के घर में आंदोलकारी पथराव कर रहे थे, उस समय पुलिस के एक दर्जन जवान वहां मौजूद थे, लेकिन वह उन्हें रोक पाने की स्थिति में नहीं थे। आन्दोलनकारियों ने घर में आग लगा दी, 5 मोटर साइकिलें और तीन कारें जलकर राख हो गईं। अगर इस समय तक एक ट्रक से ज्यादा पुलिस वाले मौके पर नहीं पहुंचे होते तो विधायक और उनका परिवार जो आज सुरक्षित है, पता नहीं किस हालत में होता।
कुल मिलाकर अगर देखें तो महाराष्ट्र आरक्षण से ज्यादा हताशा में जल रहा है। ऐसा हो भी क्यों न प्रदेश में राज्य सरकार की कुल 5,50,000 नौकरियां हैं और अकेले मराठों की आबादी 4 करोड़ से ऊपर है, जिसमें नौकरी चाहने वाले युवा 18 से 35, ही 38 लाख से ऊपर हैं। प्रदेश में अगर बेरोज़गारी की सरकारी दर को ही मान लिया जाए तो इस समय महाराष्ट्र में कम से कम 15 से 16 लाख नौकरियां अगर मराठा युवकों को देना संभव हो, तब कहीं जाकर इस आंदोलन का मकसद संभव हो सकता है, जोकि सपने में भी संभव नहीं है। महाराष्ट्र की 12 करोड़ 66 लाख से ज्यादा आबादी में करीब 34 प्रतिशत मराठा हैं और इन मराठों में करीब 76 प्रतिशत महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। ये आंकड़े जानबूझकर मैं इसलिए दे रहा हूं; क्योंकि आंदोलनकारी और पहले आरक्षण का लोलीपॉप देने वाले और फिर जब लोग भड़क जाएं तो उन्हें समझाने की असफल कोशिश करने वाले राजनेता जान लें कि वह किस आग से खेल रहे हैं? यह कितनी बड़ी विडंबना है कि जिस समाज में हर जाति का व्यक्ति सामाजिक रूप से यह साबित करने में लगा रहता है कि वह बहुत सी जातियों से ऊपर है, उसी समाज में आरक्षण एक ऐसा बड़ा लालच बनकर उभरा है, जिसके लिए हर कोई पिछड़ी जाति का होना या मान लिया जाना चाहता है।
महाराष्ट्र में पिछले दो महीनों से भी ज्यादा समय में यह आंदोलन धीरे-धीरे उग्र हुआ है, आज स्थिति यह है कि सत्ता पक्ष हो या विपक्ष सभी पार्टियों के राजनेता डरे हुए हैं कि अगर जल्द इस पर काबू नहीं पाया गया तो भारी अव्यवस्था फैल जायेगी। इसलिए हर कोई लगभग एक जैसी भाषा बोलने लगा है। लेकिन पूछा जाना चाहिए कि इन्हीं राजनेताओं में से तो वो लोग भी हैं, जिन्होंने एक-दूसरे पर आरोप लगाकर यह माहौल बनाया कि दूसरा, मराठों को आरक्षण नहीं देना चाहता, जिसकी वजह से प्रदेश में मराठा पिछड़े हुए हैं। हालांकि सुनने वाले और उस पर यकीन करने वाले लोग कभी भी न तथ्यों पर गौर करते हैं और न हकीकत जानने की कोशिश करते हैं। हकीकत यह है कि महाराष्ट्र में जिन मराठों को आरक्षण के बिना बुरी स्थिति में पहुंचा गया बताया जा रहा है, वास्तविकता यह है कि उन्हीं के हाथ में ज्यादा से ज्यादा राजसत्ता और संसाधन हैं।
आरक्षण के अपने तर्क हो सकते हैं और यह भी सही है कि महाराष्ट्र में मराठा समुदाय के द्वारा आरक्षण की मांग पिछले चार दशकों से हो रही है, जिसमें साल 1982 में इस आंदोलन के चलते मराठा नेता अन्ना साहब पाटिल ने खुदकुशी तक कर ली थी। वास्तव में राजनीतिक पार्टियां अपने तात्कालिक स्वार्थ के लिए समुदायों को न सिर्फ आधी अधूरी बातें बताती हैं बल्कि ऐसे तात्कालिक राजनीतिक फैसलों में उलझा देती हैं कि अंत में वो ठगे जाते हैं। जैसे कि पिछली फडणवीस सरकार ने मराठाओं को 16 प्रतिशत आरक्षण दे दिया था, लेकिन बॉम्बे हाईकोर्ट ने सरकारी नौकरियों में घटाकर 13 प्रतिशत और शैक्षणिक संस्थानों में 12 प्रतिशत कर दिया लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे भी रद्द कर दिया क्योंकि इंद्रा साहनी मामले की रोशनी में 50 प्रतिशत से आरक्षण ज्यादा नहीं हो सकता और महाराष्ट्र में पहले से ही करीब 52 प्रतिशत आरक्षण मौजूद है।
हालांकि मराठों को अपने राजनीतिक लाभ के लिए भड़काने वाले राजनीतिक पार्टियां यह कभी स्पष्ट नहीं करती कि महाराष्ट्र में 45 प्रतिशत से ज्यादा विधानसभा सीटें, 52 प्रतिशत से ज्यादा राज्यसत्ता में हिस्सेदारी, हमेशा मराठों की रही है। 1960 में महाराष्ट्र के गठन के बाद से अब तक 20 मुख्यमंत्री रहे हैं जिनमें 12 मुख्यमंत्री मराठा समुदाय से ही रहे हैं। मौजूदा एकनाथ शिंदे भी मराठा ही हैं। राज्य के विभिन्न संसाधनों में भी 33 प्रतिशत मराठों का 50 प्रतिशत से ज्यादा का कब्ज़ा है। लेकिन अपनी ताकतवर राजनीतिक हैसियत के कारण कोई भी राजनीतिक पार्टी मराठों को यह सब बताने और समझाने की कोशिश नहीं करती, जिसका नतीजा यह है कि ज्यादातर मराठा युवकों को लगता है कि उनकी समस्या का सारा कारण यह है कि उन्हें आरक्षण नहीं हासिल। इसलिए वह अपनी सारी ताकत, सारी ऊर्जा उग्र रूख अख्तिर करके आरक्षण हासिल करने में लगाये हुए हैं। जबकि महाराष्ट्र देश के उन गिने चुने राज्यों में है जहां उद्द्यमिता का शानदार वातावरण है। अगर विभिन्न सरकारों ने मराठा युवकों को सिर्फ आज की ज़रूरी कुशलताओं से लैस करने की उनमें भावना भरी होती तो आज महाराष्ट्र में करीब 4 करोड़ के आसपास विभिन्न तरह के जिन रोज़गारों की मौजूदगी है। उनमें बड़ी तादाद में मराठा युवक होते, लेकिन ऐसा नहीं है। अगर बड़े पैमाने पर मराठा युवकों को टेक्निकल एजुकेशन दी गई होती, उसमें उन्हें दक्ष किया गया होता, तो न सिर्फ आज लाखों युवकों को विभिन्न तकनीकी रोज़गार क्षेत्रों में नौकरियां मिली होतीं बल्कि राज्य के उद्योग जगत में उनकी बड़ी भूमिका होती, जो कि नहीं है। 
आज महाराष्ट्र के विभिन्न प्राइवेट रोज़गार क्षेत्रों में मराठा युवकों की भागीदारी अपनी जनसंख्या से बहुत कम है। क्योंकि ज्यादातर युवाओं ने अपनी ताकत सरकारी नौकरी पाने और उसमें भी आरक्षित नौकरी पाने में लगा रखी है। महाराष्ट्र में इसीलिए प्राइवेट नौकरियों में खासकर तकनीकी क्षेत्र में स्थानीय मराठा युवकों की वह भागीदारी नहीं है, जो स्थानीयता के चलते उनकी होनी चाहिए। महाराष्ट्र देश में सबसे ज्यादा प्राइवेट इंजीनियर और डॉक्टर पैदा करता है। लेकिन इनमें मराठा युवकों की तादाद उनके जनसांख्यिकीय अनुपात के मुकाबले में बहुत कम है। क्योंकि राज्य में राजनेताओं ने कभी इस समुदाय को आगे बढ़ने के लिए शिक्षा और तकनीकी कुशलताओं के महत्व को समझाया ही नहीं है।
शायद इसकी वजह यह है कि इस तरह के आंदोलनों से लोगों को भावनात्मक तरीके से गोलबंद नहीं किया जा सकता और न ही उसका राजनीतिक फायदा उठाया जा सकता है। यही कारण है कि हाल के दशकों में सभी राजनीतिक पार्टियों ने प्रदेश के सबसे बड़े कामगार समुदाय को आरक्षण के लोलीपॉप से बरगलाते रहे हैं, जिसका नतीजा यह हुआ है कि आज यह समुदाय इस कदर हताशा में डूब गया है कि महज पिछले पांच दिनों में ही छह युवकों ने सरेआम आत्महत्या करके अपना जीवन खत्म कर लिया। आरक्षण के आग में झुलसते महाराष्ट्र के भोले भाले युवाओं को बचाने के लिए और उन्हें हताश के इस चक्रव्यूह से निकालने के लिए राजनेताओं को ही नहीं बुद्धिजीवियों को भी आगे आना चाहिए। नहीं तो यह आग देश के भविष्य को जलाकर राख कर देगी। 

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर