पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद अब कांग्रेस का भविष्य क्या होगा ?

तीन राज्यों में हारने के बाद कांग्रेस का क्या होगा? क्या वो पहले की तरह सिकुड़ जायेगी? क्या उसका मनोबल टूट जायेगा? क्या ‘इंडिया’ गठबंधन में उसकी भूमिका सिमट जायेगी?
चुनाव से पहले यह बात कही जा रही थी कि कांग्रेस तीन राज्यों में आसानी से जीत जायेगी। मध्यप्रदेश में शिवराज सरकार के खिलाफ ज़बरदस्त नाराज़गी थी, लोग बदलाव की बात कर रहे थे। वहां सभी को लग रहा था कि कांग्रेस भारी बहुमत की ओर बढ़ रही है लेकिन हुआ बिल्कुल उल्टा। छत्तीसगढ़ जो कांग्रेस का सबसे बड़ा किला था, वो भी धराशायी हो गया और भूपेश बघेल जिनको भारतीय राजनीति का बड़ा सितारा समझा जा रहा था, वो भी खेत हो रहे। अशोक गहलोत ने तो अपने पैर में ही कुल्हाड़ी मार ली। अगर वो सचिन को साथ लेकर चलते तो इस वक्त उनकी सरकार होती। तीनों राज्यों में पराजय कांग्रेस के माथे पर एक नया बदनुमा दाग है। लेकिन तेलंगाना में कांग्रेस की जीत एक उम्मीद की किरण है। वहां कांग्रेस ने एक बेहद मज़बूत नेता के.सी.आर. और उनके दल को शिकस्त दी है। बिल्कुल नये नेता पर दांव लगाया और वो कामयाब रहा। क्या तेलंगाना कांग्रेस के भविष्य की राजनीति की रूपरेखा लिख सकता है? क्या पार्टी को तेलंगाना कोई सबक दे सकता है?
हिंदी पट्टी की हार से एक बात साफ है कि भाजपा इस इलाके में बेहद मज़बूत है और उसको हराने के लिये कांग्रेस को कुछ नया करना होगा और साथ ही ये भी समझना होगा कि आपसी सिर फुटव्वल करने से भाजपा का ही फायदा होगा।  दरअसल, कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी उसके इंदिरा गांधी के जमाने के नेता हैं। जो दरबारी राजनीति की उपज हैं और नेहरू गांधी की चमचागिरी करके राजनीति के शीर्ष तक पहुंचे हैं। ये नेता दरबार राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं। ये हमेशा दरबार में रह कर शहमात का खेल खेलते रहते हैं। अशोक गहलोत को कायदे से 2018 विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री नहीं बनाना चाहिये। कांग्रेस नेतृत्व ने सचिन का हक मार कर गहलोत को मुख्यमंत्री बनाया जो कांग्रेस की सबसे बड़ी गलती थी। और 2018 की जीत 2023 में कांग्रेस की हार का कारण बनी। सचिन पाइलट ये अपमान कभी भूल नहीं पाये और न ही ये समझ पाये कि एक हार से ज़िंदगी खत्म नहीं होती। सचिन को पहले तो गहलोत के नाम पर तैयार नहीं होना चाहिये और अगर तैयार हो गये तो पूरे पांच साल गहलोत के साथ रहना चाहिये। बीच में ब़गावत का कोई अर्थ नहीं है। गहलोत को भी सचिन को साथ लेकर चलना चाहिये जो उन्होंने नहीं किया। लिहाजा हारना ही था।
गहलोत को ये म़ुगालता हो गया कि वो अपनी कल्याणकारी नीतियों और प्रचार के भरोसे फिर से सरकार बना सकते हैं। जो न तो होना था और न ही हुआ। कांग्रेस के लिये सबसे बड़ा सबक यहीं है कि अगर वो समय रहते बड़े और कड़े फैसले नहीं कर सकते तो फिर पार्टी के लिये आगे का रास्ता संकरा ही होता जायेगा। नेहरू गांधी परिवार को ये समझना चाहिये कि राजनीति में कोई सगा नहीं होता। दरबारी तब तक नेहरू गांधी परिवार के सगे थे, जब तक उनको लगता था कि वो उनको जिता सकते हैं और जैसे उन्हें लगा कि नेहरू गांधी परिवार कमजोर हो गया है और उन्हें नहीं जीता सकता, तो दरबारियों ने गिरगिट की तरह रंग बदलना शुरू कर दिया और नौबत यहां तक आ गई कि गहलोत हो या फिर कमल नाथ दोनों ने चुनावों में नेहरू गांधी परिवार की नाफरमानी की। उनके फैसलों को मानने से इंकार किया। ये बात पूरी पार्टी को पता है और इससे नेहरू गांधी परिवार तो कमजोर हुआ ही, उनकी छवि भी बाकी राज्यों में खराब हुई है। ऐसे में कांग्रेस को हार के बाद अब दिल कड़ा करके दरबारी नेताओं को हार के लिये ज़िम्मेदार ठहराते हुये, नई लीडरशिप को आगे लाना चाहिये ताकि सारी पार्टी को संदेश जाये कि दरबारियों के दिन निकल गये। 
अगर रेवंत रेड्डी चुनाव जीता सकते हैं तो कमलनाथ और अशोक गहलोत की ज़रूरत क्या है? पार्टी को हर राज्य में रेवंत रेडी जैसे नेताओं की ज़रूरत है। यानी ऐसे लोग जो मोदी राज की राजनीति को समझते हैं, सबको साथ लेकर चल सकते हैं और मोदी की तरह आक्रामक राजनीति 24 घंटे कर सकते हैं। पार्टी को कमल नाथ जैसे नेताओं की ज़रूरत नहीं है जो कार्यकर्ताओं का सम्मान नहीं करते, आलाकमान की बात नहीं मानते और सिर्फ अपने स्वार्थ की पूर्ति में लगे रहते हैं। और कड़ी मेहनत नहीं कर सकते। ये वो नेता हैं जो आज भी इंदिरा युग में जी रहे हैं, जब कांग्रेस के सामने कोई चुनौती नहीं थी और वो आसानी से जीत जाते थे। उन्हें मेहनत नहीं करनी पड़ती थी और इंदिरा के नाम पर बड़े-बड़े पद लपक लेते थे। आज हालात बदल गये हैं। पार्टी बेहद कमजोर हो गई है। मोदी जैसा नेता प्रधानमंत्री है जो न केवल चौबीस घंटे मेहनत करते हैं बल्कि साम दंड भेद सब तरह के हथकंडे अपनाने से भी गुरेज़ नहीं करते। ये दरबारी नेता आरामतलबी के शिकार हैं। मेहनत करना इनके बूते की बात नहीं है। ऐसी नई उम्र के लोग, जिनके अंदर जीतने की आग हो और भाजपा की तरह हर हथकंडा अपनाने से परहेज़ न करें। अगर कांग्रेस ऐसा कर सकती है तो फिर वो 2024 की लड़ाई मज़बूती से लड़ सकती है नहीं तो कोई उम्मीद नहीं है। 
एक चीज़ कांग्रेस को इस चुनाव में सांत्वना दे सकती है कि तीनों राज्यों में जहां कांग्रेस हारी है, वहां उसके वोट 40 से अधिक हैं। यानी हार के बाद भी जनता का विश्वास उनमें है, वो भाजपा और मोदी की नीतियों से सहमत नहीं हैं, वो हिंदुत्व को देश के लिये ठीक नहीं मानते। ये वोटर आज भी कांग्रेस की तरफ उम्मीद से देख रहा है। सी.एस.डी.एस. के सर्वे के मुताबिक भाजपा के तमाम दावों के बावजूद दलित और आदिवासी वोटरों का झुकाव कांग्रेस की तरफ ज्यादा है। अल्पसंख्यक तबका पूरी मज़बूती के साथ कांग्रेस में आस्था जता रहा है। उच्च जातियां और ओबीसी का एक तबका भाजपा के साथ है। पढ़े लिखे तबके का बड़ा हिस्सा भी भाजपा को वोट देता है। यानी गरीब, मज़दूर और कमजोर किसान को भाजपा से अधिक उम्मीद नहीं है। वो कांग्रेस में अपना भविष्य देख रहा है। उच्च जातियां हिंदुत्व के वशीभूत हो भाजपा को वोट दे रही हैं, लेकिन गरीब महंगाई और बेरोज़गारी से बुरी तरह परेशान हैं। वो बदलाव चाहता है। कांग्रेस इस बड़े वर्ग को साथ रखने के अलावा अगर दो तीन प्रतिशत नये वोटरों को अपनी ओर आकर्षित कर ले तो भाजपा को लिये उत्तर भारत में भी लोकसभा में सीटों के नुकसान का खतरा झेलना पड़ सकता है। मोदी इस बात से वाकिफ हैं इसलिये वो कल्याणकारी स्कीम के ज़रिये गरीबों और आदिवासियों को लगातार अपनी ओर खींचने की कोशिश कर रहे हैं। अगले पांच साल के लिये मुफ्त राशन योजना को बढ़ाना, उसी दिशा में एक बड़ा कदम है। कांग्रेस को इसकी काट खोजनी होगी। 
फिर कांग्रेस यदि लोकसभा के चुनावों के लिए अभी से अगर कमर कस ले और कर्नाटक और तेलंगाना में भाजपा को हराने के लिये रणनीति बनाकर उतर जाये तो केंद्र में भी भाजपा को बहुमत पाने से रोक सकती है। कर्नाटक में भाजपा को 2019 लोकसभा में 28 में से 25 सीटें मिली थीं। अगर वो भाजपा की सीटें आधी कर पाये तो भाजपा को ज़ोर का झटका लगेगा। तेलंगाना में भाजपा को 17 में से 4 सीटे 2019 में मिली थी। ये सीटें भी भाजपा की कम हो सकती हैं बशर्ते वो कोशिश करे। वो कर सकती है क्योंकि वहां उसकी अपनी सरकार है। अकेले इन दोनों राज्यों में, जहां भाजपा 2023 में विधानसभा का चुनाव बुरी तरह हार चुकी है, और उसका संगठन भी मज़बूत नहीं है, साथ ही भाजपा कई गुटों में बंटी हुई है, तो भाजपा को अच्छा खासा नुकसान हो सकता है।