बासमती की बिक्री से किसान व निर्यातक दोनों खुश

भरपूर फसल लेने के बाद लाभकारी दाम पर बासमती की फसल बेचने के बाद मिले दाम से किसान बहुत खुश हैं। उन्हें गत वर्ष के मुकाबले 20 से 30 प्रतिशत तक अधिक दाम मिले हैं। पूसा बासमती-1121 किस्म जो अधिक किसान लगाते हैं और खपतकारों की मनपसंद है, ने 5000 रुपये प्रति क्ंिवटल तक बेची। गत वर्ष यह किस्म 3200 से 4000 रुपये प्रति क्ंिवटल बिकी थी। पूसा बासमती-1509 किस्म के उत्पादकों ने 4000 रुपये प्रति क्ंिवटल के लगभग दाम वसूल किये। गत वर्ष तो इस किस्म का दाम 3200 से 3500 रुपये प्रति क्ंिवटल तक ही मिला था। पूसा बासमती-6 (पूसा 1401) किस्म 4500 से 4700 रुपये प्रति क्ंिवटल बिकी। गत वर्ष यह किस्म 4100-4200 रुपये प्रति क्ंिवटल बिकी थी। इसी प्रकार पूसा बासमती-1692, पूसा बासमती-1718 किस्मों की कीमत किसानों को गत वर्ष के मुकाबले अधिक मिली। नई पूसा बासमती-1847 किस्म जिसके दाम को लेकर किसान बड़ी उम्मीदें लगाए बैठे थे, उन्हें उम्मीद के अनुसार दाम नहीं मिला। 
आल इंडिया राइस एक्सपोर्ट्स एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष और बासमती के प्रसिद्ध निर्यातक विजय सेतिया कहते हैं कि दूसरे देशों से बासमती की मांग लाभदायक दाम पर बड़ी संतोषजनक रही, क्योंकि भारत सरकार ने गैर-बासमती सफेद चावल के निर्यात पर पाबंदी लगा दी थी। दूसरे देशों में बासमती की मांग बढ़ गई और दाम भी किसान एवं निर्यातकों के पक्ष में हो गए।  पंजाब ने 31 लाख हैक्टेयर से अधिक रकबे पर धान की काश्त की, जिसमें 6 लाख हैक्टेयर रकबा बासमती का भी शामिल है। यहां सिंचाई के अधीन रकबा 98.9 प्रतिशत है। धान की फसल की पानी की ज़रूरत बहुत ज़्यादा होने के कारण राज्य में भू-जल का स्तर प्रत्येक वर्ष नीचे जा रहा है। गत 25 वर्ष से सरकार द्वारा धान की काश्त के अधीन रकबा कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं, परन्तु सफलता नहीं मिली। पंजाब पारम्परिक तौर पर चावल उत्पादन का रकबा न होने पर भी भारत के चावल उत्पादन का 10वां भाग पैदा करता है। यहां कृषि धान-गेहूं की फसलों तक ही सीमित है। धान खरीफ की मुख्य फसल है। फसली-विभिन्नता में सफलता न मिलना कृषि के संकट का मुख्य कारण बनता जा रहा है। इसमें सफलता इसलिए नहीं मिल रही, क्योंकि धान व गेहूं की सरकारी खरीद है और सरकार इन फसलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद करती है। शेष फसलों के मंडीकरण के लिए किसानों को बड़ा परेशान होना पड़ता है। जिन फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) घोषित भी किया जाता है, उन फसलों की सरकारी खरीद न होने के कारण वे मंडी में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर नहीं बिकतीं। 
बासमती की मांग दूसरे खाड़ी तथा मध्य-पूर्व देशों, अमरीका तथा यूरोपियन यूनियन के देशों में बढ़ गई है। निर्यातकों के लिए भी निर्यात की न्यूनतम कीमत 1200 डालर प्रति टन से कम करके 950 डालर प्रति टन किए जाने के बाद बासमती का निर्यात आसान और लाभदायक हो गया है। घरेलू मंडी में भी बासमती की मांग एक अनुमान के अनुसार 25 प्रतिशत तक बढ़ गई है, क्योंकि अब विवाह-शादियों व पार्टियों में भी बासमती चावल इस्तेमाल किए जाने लग पड़े हैं। किसान अगले वर्ष भी बासमती का अच्छा दाम मिलने की उम्मीद लगाए बैठे हैं। बासमती की काश्त के अधीन रकबा बढ़ाने के लिए वे अभी से सोच-विचार कर रहे हैं। लाभदायक बासमती की नई किस्में पूसा बासमती-1885, पूसा बासमती-1886 तथा पूसा बासमती-1847 विकसित होने से उन्हें अधिक उत्पादन की प्राप्ति की भी उम्मीद है। बासमती के व्यापारी भी किसानों को बता रहे हैं कि आगामी वर्ष गत वर्ष की भांति मंडी में बासमती के अच्छे दाम रहने की सम्भावना है। फसली विभिन्नता के पक्ष से चाहे फसलों एवं सब्ज़ियों की काश्त के अधीन रकबा बढ़ाने के प्रयास किए जा रहे हैं, परन्तु इसमें कोई अधिक वृद्धि नहीं हो रही। फलों में तो किन्नू की काश्त प्रधान है, जो फलों के अधीन रकबे में से लगभग आधे रकबे पर की जा रही है। सब्ज़ियों की काश्त में अकेले आलू के अधीन ही आधा रकबा है। आलू में कई वर्ष मंदा आ जाने के कारण उत्पादकों का उत्साह रकबा बढ़ाने संबंधी कम होता जा रहा है, चाहे कि पंजाब आलू का बीज पैदा करके भारत के दूसरे राज्यों को भेजता है। 
पंजाब सरकार को आगामी खरीफ सीज़न के लिए विभिन्नता के पक्ष से उचित योजनाबंदी करनी चाहिए, जिसमें बासमती का रकबा बढ़ाने पर ज़ोर देना चाहिए। कृषि क्षेत्र में ठहराव नहीं आने देनी चाहिए। इसके साथ ही व्यापार, उद्योग तथा निर्माण आदि के कार्य चलते हैं। गांवों के नौजवान कृषि छोड़ कर विदेशों को जा रहे हैं। उन्हें कृषि में लगाए रखने के लिए बासमती की फसल आकर्षण का केन्द्र बन सकती है।