ज्ञानवापी : मंदिर के अवशेषों पर बनी मस्जिद

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की सर्वे रिपोर्ट ने प्रमाणित कर दिया कि वाराणसी के ज्ञानवापी परिसर में स्थित एक हज़ार साल से भी ज्यादा पुराने विशाल हिन्दू मंदिरों को खंडित कर मस्जिद बनाई गई है। यहां काशी विश्वनाथ का बड़ा हिन्दू मंदिर था। इसके अवशेषों के प्रतीक चिन्ह सर्वेक्षण में मिले हैं। इसी संरचना के ऊपर मस्जिद बना दी गई थी। मस्जिद के निर्माण में भी मंदिर के पत्थरों का प्रयोग किया गया। एक स्थान पर महामुक्ति मंडप लिखा होने के साथ हनुमान और गणेश की खंडित मूर्तियां मिली हैं। ये खुलासे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की रिपोर्ट से हुए हैं। बीते साल वाराणसी ज़िला अदालत के आदेश पर तीन माह से भी अधिक समय तक ज्ञानवापी परिसर का आधुनिक वैज्ञानिक उपकरण के माध्यम से कराए सर्वेक्षण के बाद यह तथ्यात्मक रिपोर्ट सार्वजनिक की गई है। रिपोर्ट 839 पृष्ठों की है। यह रिपोर्ट लगभग अयोध्या के राम जन्मभूमि मंदिर जैसी ही है। राम मंदिर के सर्वेक्षण में पुरातत्वविद् के.के. मोहम्मद भी शामिल थे। 
दरअसल ज्ञानवापी मस्जिद परिसर के सर्वेक्षण कराने का निर्णय वाराणसी के न्यायालय द्वारा ले लिए जाने के बाद ही यह साफ हो गया था कि ज्ञानवापी मस्जिद में मंदिर होने के पुख्ता सबूत मिलेंगे। इसीलिए मुस्लिम पक्ष इस कोशिश में था कि सर्वे होने ही न पाए। इस उद्देश्य से मुस्लिम पक्ष ने एक याचिका भी अदालत में दायर की थी, लेकिन यह याचिका खारिज कर दी थी। इस याचिका में दावा किया था कि ‘विशेष उपासना स्थल कानून-1991’ के तहत आज़ादी के बाद जो भी धर्म स्थल जिस अवस्था में हैं, उसी रूप में रहेंगे। इस सिलसिले में विजय शंकर रस्तोगी नामक व्यक्ति ने न्यायालय में तर्क दिया था कि वर्तमान में विवादित स्थल की धार्मिक स्थिति 15 अगस्त, 1947 को मंदिर की थी अथवा मस्जिद की, इसके निर्धारण के लिए साक्ष्यों की आवश्यकता है। दरअसल विवादित स्थल विश्वनाथ मंदिर का ही एक भाग है। इसलिए एक अंश की धार्मिक स्थिति का निर्धारण नहीं किया जा सकता, बल्कि ज्ञानवापी परिसर का भौतिक साक्ष्य लिया जाना ज़रूरी है। जिसे पुरातात्विक सर्वेक्षण द्वारा जांच करवा कर स्पष्ट किया जाए कि इस मस्जिद के नीचे और इसकी दीवारों के अंदरूनी हिस्सों में कोई मंदिर था अथवा नहीं। तथ्यों के आधार पर प्राचीन विश्वनाथ मंदिर के ध्वस्त अवशेषों पर मस्जिद की दीवारों के अंदरूनी और बाहरी तौर पर विद्यमान बताए गए हैं। मंदिर की दीवारों और दरवाज़ों को चिनकर मस्जिद का वर्तमान ढांचा खड़ा किया गया है। पुराने विश्वनाथ मंदिर के अलावा समूचे परिसर में अनेक देवी-देवताओं के छोटे-छोटे मंदिर थे, जिनमें से कुछ आज भी मौजूद हैं। इन साक्ष्यों के संदर्भ में साक्ष्य और इतिहास पुस्तकें भी प्रस्तुत की गई थीं। दरअसल भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 के अंतर्गत अधिनियम की धारा 57 (13) के तहत सामान्य इतिहास की पुस्तकों में भी वर्णित ऐतिहासिक तथ्य को साक्ष्य के तौर पर मान्यता प्राप्त है। इस संदर्भ में 1937 में प्रकाशित इतिहासकार डा. अनंत सदाशिव अल्तेकर की पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ बनारस’ अदालत में प्रस्तुत भी की गई थी। पुस्तकों के अनुसार वर्तमान में जो ज्योतिर्लिंग स्थापित है, उसकी प्राण-प्रतिष्ठा 1780 में महारानी अहिल्याबाई ने कराई थी।
गत सदी के अंत तक जो भी लोग विश्वनाथ मंदिर के दर्शन करने गए हैं, उन्हें स्पष्ट रूप से दिखाई देता था कि एक टूटे प्राचीन मंदिर के ढांचे पर कथित मस्जिद बनाई जा रही है। मंदिर का चबूतरा और आलीशान सफेद पत्थर के स्तंभ स्पष्ट दिखाई देते थे। बताया गया है कि इसी परिसर में एक कुआं है, जिसमें वह शिवलिंग हैं, जो तोड़े गए मंदिर में स्थापित था। इस आशय के यहां बोर्ड भी लगे हैं। कूप के ऊपर लोहे का जाल डाल दिया है। इस मामले में भाजपा प्रवक्ता अश्विनी उपाध्याय की याचिका पर पूजा स्थल विशेष प्रावधान अधिनियम-1991 की वैद्यता को चुनौती भी दी गई थी। 1991 में केन्द्र सरकार द्वारा सभी धर्मस्थलों से जुड़े विवादों में यथास्थिति बनाए रखने की दृष्टि से यह कानून बनाया था। हालांकि अयोध्या के राम जन्मस्थल-बाबरी मस्जिद विवाद को इस कानून के दायरे से बाहर रखा गया था। इस कानून के मुताबिक 1947 से पहले जो धर्मस्थल जिस स्थिति में थे, उसी स्थिति में रहेंगे, यह बाध्यकारी शर्त जुड़ी है। इसी बूते वाराणसी की अंजुमन इंतजामिया का दावा था कि ज्ञानवापी मस्जिद को इसी कानून के तहत सुरक्षा मिलनी चाहिए यानी अंजुमन भली भांति जानता था कि मंदिर की बुनियाद पर मस्जिद टिकी है। अब सर्वे रिपोर्ट ने इस सच्चाई का खुलासा भी कर दिया है। 
मंदिरों को तोड़े जाने और धर्मांतरण का सिलसिला इस्लामिक शासकों के भारत में आने के साथ ही शुरू हो गया था। इनमें वाराणसी का काशी विश्ववनाथ मंदिर तो है ही, इसके अलावा मथुरा का कुष्ण जन्मभूमि मंदिर भी है। इस मंदिर को तोड़ कर शाही ईदगाह मस्जिद बना दी गई। दिल्ली की कुतुबमीनार भी इसी संकट से गुजरी है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि कुतुबद्दीन ऐबक ने इस परिसर में 27 हिन्दू व जैन मंदिर तोड़कर इसे वर्तमान रूप दिया था। हालांकि कुतुबमीनार का निर्माण दिल्ली के तोमर राजाओं ने कराया था, ऐसे साक्ष्य डॉ. हरिहर निवास द्विवेदी ने अपनी पुस्तक ‘दिल्ली के तोमर’ में दिए हैं।
वाराणसी पर मुस्लिमों के आक्रमण और मंदिरों को तोड़े जाने की ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में बात करें तो जिन इतिहासकारों ने इतिहास घटना और साक्ष्यों के आधार पर लिखा, उन सब ग्रंथों में मुस्लिम शासकों द्वारा वाराण्सी में विश्वनाथ मंदिर को तोड़े जाने के साथ अन्य एक हज़ार मंदिरों को तोड़ने का उल्लेख भी मिलता है। 1193 में थानेश्वर के युद्ध में पृथ्वीराज के मारे जाने तथा 1194 में काशी तथा कन्नौज के गाहड़वाल के राजा जयचंद को हराने के बाद मोहम्मद गोरी ने अपने सेनापति कुतुबद्दीन ऐबक को बनारस पर हमला करने के लिए भेज दिया। इस युद्ध में हिन्दुओं की हार हुई और किले पर ऐबक ने कब्ज़ा कर लिया। इसके बाद लूट और यहां के एक हज़ार मंदिर तोड़ने की शुरूआत हुई। लूट की सम्पत्ति को 1400 ऊंटों पर लादकर ऐबक ने गोरी के पास भेज दी। इससे खुश होकर गोरी ने कुतुबद्दीन को दिल्ली का सुल्तान बना दिया और खुद अपने देश लौट गया। 
अकबर के शासन काल 1585 में टोडरमल ने अपने गुरु पंडितराज भट्टनारायण के आग्रह पर विश्वनाथ मंदिर फिर से बनवाया, किन्तु 1669 में औरंगज़ेब की आज्ञा से एक बार फिर पुनर्निमित सभी मंदिरों को तोड़ दिया गया। इसी दौरान विश्वनाथ मंदिर के स्थान पर ज्ञानवापी मस्जिद बनाई गई। बहरहाल, पुरातत्वीय परीक्षण की आंखों द्वारा खोजे गए 32 शिलालेख एवं प्रतीक चिन्हों ने ज्ञानवापी की सच्चाई उजागार कर दी है। 

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