गांवों की तरक्की के बिना संभव नहीं देश का विकास 

चलो गांव की ओर
 

देश के आज़ाद होने से लेकर अब तक, जो भी नेता या दल सत्ता में रहे हैं, वे आम लोगों को भरमाते रहे हैं कि भारत गांवों का देश है और ग्रामीण क्षेत्रों का विकास प्राथमिकता है। हम इसी भ्रम में जी रहे हैं कि कभी तो यह सच होगा और जो यह कहते रहें हैं, अपनी बात पर खरा उतरेंगे, लेकिन यह मृग मरीचिका ही सिद्ध हुई है। राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने कितना सही कहा था कि ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी सुविधाएं पहुंचाने से ही देश का भाग्य बदल सकता है। इसका अर्थ यह नहीं था कि शहर न हों, बल्कि यह था कि गांव भी शहरों जैसे हों।
यह बात जानते हुए भी कि देश को पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था का सपना हमारे साढ़े छ: लाख गांव पूरा कर सकते हैं क्योंकि दो तिहाई आबादी इनमें ही रहती है। विडम्बना यह है कि ‘डेमोग्राफिक डिविडेंड’ यानी आबादी का हमारी खुशहाली में योगदान सबसे ज्यादा ग्रामवासियों का होने पर भी वे ही सबसे अधिक बदहाल हैं। ज़रा सोचिए, शहर में इमारतें बनानी हैं तो गांवों से लेबर आती है, अगर न आये तो काम बंद। कारीगर चाहिए तो भी वहीं से आते हैं, यहां तक कि घरेलू कर्मचारी आदि भी। अक्सर देखने को मिलता है कि शहर से लड़के-लड़कियां गांव इसलिए जाते हैं कि बस कुछ घूमना-फिरना, पिकनिक जैसा हो जाये और ऐसे लोग देखने को मिल जायें जिन्हें पास बैठाकर बातें कर सकें और साथ ही स्वयं को बड़ा महसूस कर सकें।
सच से सामना  
वास्तविकता यह है कि गांव के बिना हमारा गुज़ारा नहीं और ग्रामवासियों के साथ बैठना गवारा नहीं। अधिकतर गांवों के विकास की स्थिति यह है कि अगर वहां कोई परिवार यह चाहे कि अपने बच्चों को पढ़ाए-लिखाए तो स्कूल अभी भी पुराने से खंडहर जैसे मकान में मिलेगा जिसका ताला खोलने के लिए कोई तब आयेगा जब उसे अपने काम से फुरसत मिलेगी। पढ़ने की सुविधाएं इतनी कि अभी भी पेड़ के नीचे या टूटे फूटे कमरे में तीन टांग की कुर्सी और ईंट के सहारे रखी मेज़ मिलेगी। ब्लैक बोर्ड होगा लेकिन उस पर लिखा कैसे जाये, यह अध्यापक को सोचना पड़ता है। आदर्श स्कूल के नाम पर कुछ इमारतें हैं, लेकिन उनमें झुंड की तरह बच्चों को भर कर पढ़ाने की प्रक्रिया को पूरा किया जाता है। ज़ाहिर है जिसकी मज़र्ी हो वहां आये और जो न आये उसकी हाज़िरी रजिस्टर में खानापूर्ति हो जाती है, क्योंकि साल के अंत में आंकड़े दिखाने पड़ते हैं कि कितने विद्यार्थी पढ़ कर निकले। अब आठवीं पास को चौथी के प्रश्न भी हल करने न आये तो इससे क्या फर्क पड़ता है क्योंकि नकल करना यहां मौलिक अधिकार की श्रेणी में आता है और कोई इसे रोक नहीं सकता बल्कि कानून भी बन जाता है।
देश की सकल घरेलू उतपाद (जीडीपी0 में कृषि और उस पर आधारित उद्योगों जैसे पशु पालन, डेयरी और अन्य व्यवसायों का सबसे अधिक योगदान है, लेकिन जो लोग इन सब से जुड़े हैं, उनका रहन-सहन ऐसा कि पिछड़े हुए लगते हैं। गांवों में आशा वर्कर और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता एक तरह से वहां की रीढ़ हैं, लेकिन उन्हें जो पैसा मिलता है, उसे सुनकर हंसी आये बिना नहीं रहेगी। 
कई दशक पहले जब इसकी शुरुआत हुई थी तब इसके मूल में यह भावना थी कि ऐसे कार्यकर्ता तैयार किए जाएं जिनके मन में सेवा-भाव हो, बस ज़रूरत भर का पैसा मिल जाये, उनके लिए काफी है। इनका कोई वेतनमान नहीं, कोई सुविधा नहीं, केवल सेवा करनी है। अब लाखों कार्यकर्ता हैं जिन्हें आंदोलन करने की ज़रूरत पड़ती है कि कम से कम इतना तो मिले कि इज़्ज़त की रोटी मिल जाये और ठीक से रह सकें, लेकिन यह संभव नहीं।
खैर, कहां तक ग्रामीण क्षेत्रों का दु:खड़ा कहा जाये, अब इसे बदलने की ज़रूरत है। अगर समानता और न्याय पर आधारित समाज की रचना करनी है तो संरचना यानी इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करना होगा जिससे ग्राम विकास की सही तस्वीर सामने आये। इसके लिए यह सोच बनानी होगी कि शहर जाकर रोज़ी-रोटी कमाना या कोई उद्योग लगाना और व्यवसाय करना ग्रामवासियों की इच्छा पर निर्भर हो न कि मजबूरी हो, वे जाना चाहे तो जायें वरना कोई ज़रूरत नहीं। वर्तमान स्थिति तो यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों में पलायन रुकने के स्थान पर तेज़ी से बढ़ता जा रहा है।
ग्रामीण क्षेत्रों में उद्योग स्थापित हों
 इसके लिए सबसे पहले नौकरी और रोज़गार की व्यवस्था के लिए गैर-कृषि आधारित उद्योग लगाने होंगे और इसके लिए उस क्षेत्र में उपलब्ध कच्चे माल यानी लोकल मैटीरियल का इस्तेमाल करने की अनिवार्यता हो तथा स्थानीय आबादी को ट्रेनिंग देकर नौकरी पर रखने की बाध्यता हो। सरकार ज़मीन दे और उसके बदले उस स्थान पर उन्हीं उद्योगपतियों या व्यवसायियों को आमंत्रित करे जो इन शर्तों को पूरा कर सकते हों। इससे होगा यह कि उस क्षेत्र का विकास अपने आप होने लगेगा। स्कूल, ट्रेनिंग सेंटर खुलेंगे, वर्करों के लिए टाउनशिप बनेगी, स्वास्थ्य सुविधाएं जैसे डिस्पेंसरी, अस्पताल स्थापित होंगे। आने-जाने के साधन तैयार होंगे और वे सब चीज़ें होंगी जो आधुनिक जीवन के लिए चाहिए। उदाहरण के लिए एनटीपीसी द्वारा स्थापित प्लांट को लिया जा सकता है जिसके लिये यह एक आवश्यक शर्त होती है कि उस क्षेत्र में स्थानीय आबादी के लिए वे सभी सुविधाएं उपलब्ध की जायें जो वहां ज़रूरी हैं।
जब सभी उद्योग प्राथमिकता और आवश्यकता के आधार पर ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित होने लगेंगे तो फिर सड़क भी बनेगी, बस अड्डा बनेगा तो रेलवे स्टेशन भी और हो सकता है कि हैलीपैड या एयरपोर्ट भी बनाना पड़ जाये। जब उद्योग होगा तो बैंकिंग व्यवस्था भी स्थापित होगी, संचार और संवाद के साधन निर्मित होंगे, डिजिटल लिटरेसी होगी तो आधुनिक टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल होगा। यह यहीं तक सीमित नहीं रहेगा, इसका असर निश्चित रूप से खेतीबाड़ी और उससे जुड़े व्यवसायों पर भी पड़ेगा।
ग्रामीण क्षेत्रों में औद्योगिक इकाईयां लगने से सामाजिक दायित्व की भावना को बल मिलेगा। हिंसा की वारदातें कम होंगी और लोग भाईचारे और सहयोग की भावना के साथ रह सकेंगे। यहां केवल इस बात का ध्यान रखना होगा कि वही उद्योग लगने चाहिएं जिनसे पर्यावरण को नुकसान न पहुंचता हो, प्रदूषण मुक्त हों और प्राकृतिक संसाधनों तथा खनिज संपदा पर विपरीत प्रभाव न पड़ता हो। क्या सरकार इस तरह की नीति बनाकर बड़े पैमाने पर समस्त ग्रामीण क्षेत्रों को औद्योगिक केन्द्र बनाने की किसी योजना को क्रियात्मक रूप दे सकती है, यह सरकार ही नहीं, सामान्य नागरिक के सोचने का भी विषय है।