कामयाब हो जाने का इंतज़ार

देश खुशहाल हो गया है, इसकी खबरें हमें मिलने लगी हैं। यहां महंगाई मिटा दी गई है, इसकी सूचना दे दी गई है। भ्रष्टाचार को तो अब शून्य स्तर पर भी सहन नहीं किया जाएगा, इसके बिना तो सत्तासीन होते नेताओं का भाषण शुरू ही नहीं होता। लेकिन सबसे नई सूचना यह है कि इस देश से ़गरीबी को मिटा दिया गया है। अब देश में केवल दो प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जिन्हें अत्यन्त गरीब कहा जा सकता है। नहीं तो बकाया सब लोगों को ़गरीबी रेखा से बाहर निकाल लिया गया है।
हम भूखे नंगों की उन कतारों को नज़र-अन्दाज़ करके नौकरी दिलाऊ विभाग की उन खिड़कियों की ओर देखना चाहते हैं, जहां आजकल काम के लिए छटपटाते नौजवानों की कतारें नहीं लगतीं। क्या इसका अर्थ यह कि उस पूरी युवा-शक्ति को काम मिल गया, जो बरसों से काम देने की अर्जी के साथ इनकी चौखट पर खड़ी थी। बरसों से खाली आसामियों के नियुक्ति-पत्र बड़े बाजे-गाजे के साथ समय के सारथी बांट देते हैं, तो क्या अब हम यह मान लें कि अब किसी को नौकरी नहीं चाहिये? सरकार ने तो लोगों को भूख से मरने देने की गारंटी दी थी, लेकिन अब तो बेकारी के अभिशाप से पीड़ित नौजवानों की आत्महत्या करने की खबरें भी बन्द हो गईं।
आजकल समाचार पत्रों के शीर्षक बेकारों द्वारा आत्महत्या करने के समाचारों के नहीं छपते, क्योंकि सरकार उनके द्वार पर रियायती अनाज का बोरा लेकर चली गई है। चलो, मान लिया कि बोरियां बांटने वाले कारिन्दों ने अभी तक आपके द्वार पर दस्तक नहीं दी, लेकिन इन कतारों का रिवाज़ तो बदल गया है न! अब फैले हुए हाथों की ये कतारें रियायती अनाज बांटने वाले लाला की दुकान के बाहर नहीं लगतीं, परन्तु मोहल्ले के मीर मुंशियों ने उन्हें आपके मोहल्ले के बाहर लगवाना तो शुरू कर दिया। जनाब उनकी चौधर कायम रहेगी, तभी तो वे पार्षद से सांसद की यात्रा तय कर सकेंगे न। महामना को ही क्यों, पूरे देश को जैसे यात्रा में रहने का मज़र् हो गया है। यह बड़ा ़गरीब, बहुत अल्प विकसित देश था। आज़ाद हुआ तो पिछड़ेपन के इन बन्धनों को तोड़ कर विकास यात्रा पर निकल गया। ़गरीबी, बेकारी, महंगाई और भ्रष्टाचार खत्म कर देने की यह यात्रा। जी हां, एक कभी न खत्म होने वाला स़फर करने में व्यस्त है यह देश। गरीबी हटाओ, खुशी बढ़ाओ का अभियान चलाते हैं, तो पता चलता है, गरीबी केवल आंकड़ों, और उद्घोषणाओं में हटती है। पूरे देश को इसका उत्सव मना लेने का सन्देश मिल जाता है। भूख से निजात पाने का उत्सव जो भविष्यहीन नौजवानों को असमय बूढ़ा बना देता है। भरी जवानी में सपनाहीन हो जाने का उत्सव चलता है, जो विश्वविद्यालय से मिलने वाली डिग्रियों को अर्थहीन बना देता है। इसलिये अब विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़ रही है, लेकिन उनके परिसर खाली पड़े हैं।
सर्व-शिक्षा अभियान से दाखिला लेने वालों की संख्या बढ़ी है, लेकिन अध-बीच इन्हें छोड़ जाने वाले छात्रों की संख्या की कोई गिनती नहीं करता। स्कूलों-कालेजों से भगौड़े हो रहे छात्र ऊंची डिग्रियों की आकांक्षा छोड़ कर पारपत्र पाने की इच्छा से दीवाने हो रहे हैं। बाज़ारों का मिजाज़ बदल गया है। अब वहां विदेशों के लिए शर्तिया काम का वीज़ा दिलवा देने की दुकानों की भीड़ नज़र आने लगी है। ‘पहले वीज़ा लो, फिर हमारा भुगतान करो’ की गारंटियां गूंजती हैं। छपे हुए विज्ञापन ही नहीं, सोशल मीडिया पर उभरते चुस्त चेहरे आपके लिए विदेशों में जाकर डॉलरपति हो जाने का सपना बेचते हैं। इन सपनों के खरीददार बहुत हैं, लेकिन फिर इन सपना जीने वालों का परिणाम क्या हुआ? भुक्तभोगी अपना हौलनाक परिणाम भी किसी से साझा नहीं करते। लोगों को डंकी बना, ‘जाते थे जापान पहुंच गये चीन समझ गये न’, का गाना उनकी ज़िन्दगी में बजा, यह रूदन राग कैसे बन गया? कहानियां सुनाते हुए भी लज्जा आती है। न्यूयार्क जाता-जाता नौजवान मलेशिया में उतार दिया गया, और अब उसे कहते हैं, जंगल बेले छान कर डॉलर, रूबल या पाऊंड देशों में पहुंचो। न पहुंच सको तो रास्ते में ही कहीं फौत हो जाओ, या अपना उतरा हुआ चेहरा लेकर वापिस आ उन्हीं उजड़े हुए शहरों को और भी उदासीन कर दो। यहां सपनों के टूटने की आवाज़ का अब नशों के क्रन्दन में गुम हो जाना ही उनकी नियति है। नये-नये धंधे यहां पनप रहे हैं। तस्करी और ़गैर-कानूनी कामों से उभरते धंधे जिन पर वोट मांगने वाले पोस्टर चिपका रहे हैं, कि ‘कानून और व्यवस्था की हालत बेहतर हो रही है।’
आम ज़िन्दगी जैसे सच-झूठ वाला एक पोस्टर बन गई है। एक ऐसी जन-यात्रा बन गई, कि जिसका कोई अन्त नहीं है। अधूरा रह जाना ही जिसकी नियति है।  आओ, इस अधूरेपन का जश्न मना लें एक और ज़िन्दाबाद का नारा लगा कर क्योंकि शोभायात्राओं में नारे उठते रहते हैं, तो आदमी अपना सच भूल जाता है। इसके लिए एक वायदे से दूसरे वायदे तक यात्रा करना सहज हो जाता है, या फिर समवेत स्वर का यह गायन -‘हम होंगे कामयाब एक दिन।’