व्यवहार और मनोविज्ञान का तालमेल हो तो आर्थिक प्रगति निश्चित 

डेनियल काहनेमन का नब्बे वर्ष की आयु में 27 मार्च को निधन हो गया। उन्हें अर्थव्यवस्था के उस पहलू को उजागर करने पर सन् 2002 में नोबल पुरस्कार मिला जिसका संबंध व्यक्ति द्वारा प्रतिदिन लिये जाने वाले आर्थिक फैसलों से है। वह एक मनोवैज्ञानिक थे और उन्होंने सिद्ध किया कि हमारे दिमाग के सोचने के तरीके पर ही सही या गलत, उचित या अनुचित फैसले लेने की ज़िम्मेदारी है। उनके योगदान को वर्तमान आर्थिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में समझना ज़रूरी है, विशेषकर भारत के लिए जो अभी विकास पथ पर है और आर्थिक संपन्नता के रास्ते खोज रहा है। 
दिमाग की परेशानी क्या है? 
किसी भी परिस्थिति में हमारा दिमाग दो तरह से काम करता है। एक हिस्सा तेज़ी से काम करता है, जो होगा उसका अनुमान लगा लेता है, अपना नफा-नुकसान सोचता है, तुरंत निर्णय कर लेता है और फिर कर गुज़रता है। ऐसी सोच वाला दिमाग जिनका होता है, उन्हें खतरों का खिलाड़ी कह सकते हैं। वे अपने निर्णय पर न तो दोबारा सोचते हैं और न ही मनमुताबिक परिणाम न मिलने पर घबराते हैं। किसी की परवाह नहीं करते। उनके लिए कर्म करना और आगे बढ़ जाना ही महत्वपूर्ण है। 
दिमाग का दूसरा हिस्सा बहुत सुस्त, ढीला, टालमटोल करने वाला होता है। बाल की खाल निकालने जैसा व्यवहार करता है, अनगिनत काल्पनिक परेशानियों के बारे में अनुमान लगाता रहता है, बहुत संभलकर कोई भी कदम उठाने का निर्णय करता है। इस प्रक्रिया में चाहे कितना भी समय लगे, उसे अर्थात् ऐसी सोच रखने वाले व्यक्ति को कोई फर्क नहीं पड़ता। ऐसा व्यक्ति जो है उसी में मस्त रहता है, उसके व्यवहार में बदलाव करना बहुत मुश्किल होता है। 
इसे एक उदाहरण से समझते हैं। आप सुबह की सैर कर रहे हैं और अपनी ही धुन में चल रहे हैं, धीमे या दौड़ते हुए, व्यायाम और योगासन करते हुए, जितना हो सके उतना करते हैं। अब एक व्यक्ति आता है और अपनी किसी परेशानी का हल पूछने लगता है या अचानक उस स्थान पर कोई घटना हो जाती है। दिमाग एक हिस्सा सोचता है कि मैं जो कर रहा हूं करता रहूं, मुझे किसी से क्या लेना है। बगल में क्या हो रहा है, ऐसे व्यक्ति को कोई फर्क नहीं पड़ता। यह एक स्थिति हुई। 
अब दिमाग के दूसरे हिस्से की बात करते हैं। इस स्थिति में व्यक्ति रुक कर दूसरे की बात सुनता है, उसकी मदद करने के लिए तैयार हो जाता है, बिना कुछ सोच विचार किए अपना काम छोड़कर दूसरे के कहे या बताये अनुसार काम करने लगता है। 
अब हम आते हैं इस बात पर कि किस प्रकार कोई व्यक्ति हमारे दिमाग पर अपना असर डालने में कामयाब हो जाता है। यह व्यवहार परिवर्तन कैसे होता है? यहां तक कि हमें किस से क्या बात कहनी है, इसका निर्णय कैसे हम दूसरों की मज़र्ी से करने लगते हैं। कहां और कैसे कोई वस्तु खरीदनी है, इसका निर्णय भी हम नहीं कर पाते बल्कि वही करता है, जैसे कि मानो कोई हमारे दिमाग से खेल रहा हो। 
आर्थिक मनोविज्ञान 
यही व्यवहार का अर्थशास्त्र है। यदि हम यह सोचकर निर्णय लेते हैं कि हम अपने साथ कोई छल-फरेब या धोखाधड़ी तो नहीं होने दे रहे, ऐसे उत्पाद तो नहीं खरीद रहे जो मिलावटी, घटिया और स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर सकते हैं। किसी वस्तु के प्रति अपने मन में पहले से बनी किसी धारणा के आधार पर तो फैसले नहीं ले रहे। हमारे दिमाग के एक हिस्से से यह बात निकल ही नहीं रही कि कल मुझे अगर हज़ार रुपये का लाभ हुआ था तो आज भी होना चाहिए। नहीं हुआ तो अब कल मुझे दो हज़ार का लाभ होना ही चाहिए। हम दिमागी तौर पर अशांत हो जाते हैं। इसी उधेड़बुन में रहते हैं कि कैसे नुकसान की भरपाई हो। मतलब यह कि हज़ार रुपये की हानि हज़ार रुपये के लाभ पर हावी हो जाती है। हम पैसे गिनते रहते हैं और जो लाभ प्राप्त होने का सुख है, उससे वंचित रह जाते हैं।  मनोविज्ञान का अर्थशास्त्र से गहरा संबंध है। काहनेमन का सिद्धांत हमारी सोच को बदलने में मदद करता है। आज जो देश विकसित हैं, वे इस पर चलकर ही पूरी दुनिया को अपने इशारों पर चला रहे हैं। अर्थशास्त्र को सही मायने में व्यवहार के विज्ञान से जोड़कर ही समझा जाना चाहिए। यह कोई गणित का फार्मूला नहीं है जिसमें दो और दो चार ही होंगे। इसमें यह बाईस भी हो सकते हैं। 
मिसाल के तौर पर अगर कोई व्यापारी या उद्योगपति अपने उत्पाद का बहुत अधिक दाम बताता है और कहता है कि इससे कम पर नहीं मिलेगा। वे उसे बेचने में इसलिए सफल हो जाते हैं क्योंकि वे हमारे दिमाग के उस हिस्से पर हावी हो गये जो उस वस्तु की परख और विश्लेषण करने तथा मूल्य के बारे में सोच कर ही फैसला करना चाहता है। अमीर देश हों या अपने यहां के धनपति, वे इसी फार्मूले पर काम करते हैं। इसे परम्परागत भाषा में कहें तो यह धौंसबाज़ी, जमाखोरी और कालाबाज़ारी का दूसरा नाम है।जिस देश की अर्थव्यवस्था में इस बात को समझते हुए नीतियां, बनीं वे आज कामयाब हैं और जिन्होंने पैसे की अहमियत को नहीं समझा, वे कंगाली की तरफ बढ़ रहे हैं। 
निष्कर्ष यही कि जिसने समझ लिया कि निर्णय करते समय दिमाग के किस हिस्से से कब काम लेना है और किस भाग की बात पर गौर तक नहीं करना, वही मुकद्दर का सिकंदर है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कि आप ऐसी जगह जायें जहां मौसम खुशगवार हो, आपको अच्छा लगे, खुशी हो और एक तरह का सुकून मिले। जब आप वापिस जायें तो अपने साथ खुशनुमा यादों को ले जायें जबकि ह़क़ीकत यह है कि जहां आप गये वहां पर भी लोग रहते आये है, उन्हें आपके जैसा कुछ अनुभव नहीं होता, उनके लिए सब पहले जैसा ही रहता है। यह मौसम नहीं जो खुशी देता है, अपने अंदर का विश्वास है जो आपको ताज़गी देता है वरना तो जहां आप रहते हैं, उससे बेहतर कोई जगह कैसे हो सकती है। दिमाग के इस खेल को जिसने समझ लिया वह दुनियादार हो गया, जो नहीं समझाए वह फिसड्डी रह गया।