चूक गया तीसरी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था बनने का लक्ष्य

भाजपा के 2019 के घोषणा-पत्र में भारतीय अर्थ-व्यवस्था को 5 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचाने की परिकल्पना की गयी थी, जो एक साहसिक लक्ष्य था जिसे कर सुधारों, बुनियादी ढांचे के विकास और रोज़गार सृजन के बल पर हासिल किया जाना था। जैसे-जैसे देश समय सीमा के करीब पहुंच रहा है, पार्टी ने लक्ष्य हासिल करने के लक्ष्य को और आगे बढ़ा दिया है, अब 2029 तक, यानी लोकसभा के एक और कार्यकाल तक दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था का दर्जा हासिल करने का वायदा किया है। शायद 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थ-व्यवस्था की बात से तंग आकर इस बार घोषणा-पत्र में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में उभरने के लक्ष्य की बात की गयी है, जिसका मूल अर्थ एक ही बात को अलग ढंग से कहना है। जापान, जिसे भारत प्रतिस्थापित करना चाहता है, की वर्तमान अनुमान के अनुसार सकल घरेलू उत्पाद 4.2 ट्रिलियन और पीपीपी. समायोजित आकार 5.7 ट्रिलियन डॉलर है। तो कमोबेश यह 2019 के लक्ष्य के अनुरूप है। यह कहना भी कम ही होगा कि भारत ऐसा करने में विफल रहा क्योंकि सपना सिर्फ टिमटिमाता रहा लेकिन प्रज्वलित नहीं हुआ। ‘मेक इन इंडिया’ अभियान विफल हो गया और ‘डिजिटल इंडिया’ के दृष्टिकोण को अंतर्निहित गड़बड़ियों का सामना करना पड़ा था। भारत का आर्थिक उत्थान वैश्विक आकर्षण का विषय बन गया है। नया लक्ष्य भी कारकों की एक जटिल परस्पर क्रिया पर आधारित है, जो संभावित और जोखिम दोनों से भरा मार्ग प्रस्तुत करता है।
भारत का सबसे बड़ा लाभ इसका जनसांख्यिकीय लाभांश है। देश में एक विशाल युवा आबादी है, जिसमें 65 प्रतिशत से अधिक 35 वर्ष से कम आयु के हैं। यह आसानी से उपलब्ध कार्यबल में तब्दील हो जाता है जो आर्थिक विकास को गति देने के लिए एक महत्वपूर्ण कारक है। युवा आबादी घरेलू खप्त को भी बढ़ावा देती है, जिससे व्यवसायों के लिए एक बड़ा बाज़ार तैयार होता है। यह जनसांख्यिकीय लाभ कई दशकों तक बने रहने की उम्मीद है, जिससे भारत को आर्थिक विस्तार के लिए एक लंबा रास्ता मिलेगा।
बुनियादी ढांचे का विकास, कनेक्टिविटी में सुधार और माल और लोगों की आवाजाही को सुविधाजनक बनाने के लिए सड़कों, रेलवे और बंदरगाहों में भारी निवेश तेज़ी से प्रगति कर रहा है। इसके अतिरिक्त, इंटरनेट पहुंच और सरकारी सेवाओं में सुधार के लिए डिजिटल इंडिया जैसी पहल पर ध्यान देने के साथ डिजिटलीकरण के प्रयास भी चल रहे हैं। ये सुधार यदि सफल रहे, तो व्यावसायिक संचालन को सुव्यवस्थित कर सकते हैं, विदेशी निवेश को आकर्षित कर सकते हैं और अधिक प्रतिस्पर्धी आर्थिक वातावरण बना सकते हैं।
भारतीय स्टेट बैंक का अनुमान है कि भारत की निरंतर विकास दर, जो वर्तमान में 7 प्रतिशत से अधिक है, आने वाले वर्षों में इसे जर्मनी और जापान जैसी आर्थिक शक्तियों से आगे ले जायेगी। यह आशावाद इस विश्वास से उपजा है कि उपरोक्त सुधार, जनसांख्यिकीय लाभ के साथ मिलकर, आर्थिक गतिविधि का एक अच्छा चक्र बनायेंगे। हालांकि सकारात्मक दृष्टिकोण के बावजूद भारत के आर्थिक सुपरस्टार बनने की राह में चुनौतीपूर्ण बाधाएं हैं। सबसे बड़ी चिंताओं में से एक आय असमानता है। जबकि अर्थ-व्यवस्था बढ़ रही है, लाभ समान रूप से वितरित नहीं हो रहा है। आबादी का एक बड़ा हिस्सा अभी भी गरीबी में रहता है, खासकर ग्रामीण इलाकों में। इससे न केवल सामाजिक अशांति पैदा होती है बल्कि घरेलू खपत भी सीमित होती है, जिससे आर्थिक विकास बाधित होता है।
घरेलू चुनौतियों के अलावा, बाहरी कारक भी महत्वपूर्ण जोखिम पैदा करते हैं। वैश्विक अर्थ-व्यवस्था इस समय बढ़ती मुद्रास्फीति से जूझ रही है, जिससे भारत की विकास संभावनाएं कमजोर हो सकती हैं। इसके अलावा यूक्रेन में चल रहे युद्ध जैसे भू-राजनीतिक तनाव, आपूर्ति श्रृंखलाओं को बाधित कर सकते हैं और तेल और गैस जैसी आवश्यक वस्तुओं की लागत में वृद्धि कर सकते हैं, जिससे भारत की आर्थिक स्थिरता पर और असर पड़ेगा। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि अधिक यथार्थवादी समय-सीमा 2030 की शुरुआत हो सकती है। यह उन चुनौतियों को स्वीकार करता है जिन्हें संबोधित करने की आवश्यकता है और आर्थिक विकास के लिए अधिक नपे-तुले दृष्टिकोण की अनुमति देता है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि आने वाले वर्ष भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक महत्वपूर्ण परीक्षा के होंगे। इसकी सफलता आय असमानता और ग्रामीण ठहराव जैसी आंतरिक बाधाओं को दूर करने की क्षमता के साथ-साथ वैश्विक आर्थिक परिदृश्य की अनिश्चितताओं से निपटने की क्षमता पर निर्भर करती है। यदि भारत अपनी ताकत, विशेषकर अपनी युवा आबादी का लाभ उठा सके व प्रभावी सुधार लागू कर सके तो दशक के अंत तक दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था का खिताब उसकी पहुंच में हो सकता है।  (संवाद)