छत्तीसगढ़ में माओवादियों से मुठभेड़ के सम्भावित सबक

18वीं लोकसभा के लिए देशभर में सात चरणों में होने वाले मतदान के तहत छत्तीसगढ़ में 19 अप्रैल, 26 अप्रैल और 7 मई 2024 को वोट पड़ने हैं। 44 दिनों तक चलने वाली इस लंबी मतदान प्रक्रिया का एक कारण छत्तीसगढ़ और झारखंड जैसे प्रदेशों में मौजूद माओवादी हिंसा भी है। माओवादी चरमपंथियों की हिंसा से प्रभावित छत्तीसगढ़ की 11 लोकसभा सीटों में इसीलिए तीन चरणों में मतदान हो रहा है। यहां पहले से ही सुरक्षाबलों को आशंका थी कि चुनाव के पहले और उसके दौरान ज़रूर माओवादी हिंसा के जरिये इस प्रक्रिया में खलल डालने की कोशिश करेंगे और 16 अप्रैल, 2024 को वह आशंका सच हो ही गयी जब सुरक्षाबलों को अपने खुफिया तंत्र से पता चला कि माओवादी 19 अप्रैल, 2024 को छत्तीसगढ़ की पहली लोकसभा सीट बस्तर में होने जा रहे मतदान के पहले किसी बड़ी घटना को अंजाम देने के लिए कांकेर ज़िले के थाना छोटेबेठिया के अंतर्गत आने वाले बिनागुंडा और कोरोनोर के मध्य होपाटोला के जंगलों में मीटिंग कर रहे हैं।
आनन-फानन में बस्तर के आईजी सुंदरराजन और बीएसफ के डीआईजी आलोक कुमार सिंह ने एक्शन की योजना बनायी और मंगलवार 16 अप्रैल, 2024 को दोपहर करीब 1:30 बजे उस इलाके को चारो तरफ से घेर लिया, जहां माओवादी चुनाव में बाधा पहुंचाने की योजना बन रहे थे। गौरतलब है कि खुफिया सूत्रों से मिली सूचनाओं के मुताबिक इस योजना बैठक में 25 लाख रुपये के ईनाम वाले माओवादी रावघाट कमेटी प्रभारी शंकर राव तथा उत्तर बस्तर डिवीजन प्रभारी ललिता माड़वी भी मौजूद थी। साथ ही प्रतापपुर एरिया कमेटी कमांडर राजीव सलाम भी इस बैठक में शामिल था। दोपहर 1:30 बजे जैसे ही सुरक्षा बलों ने नक्सलियों को चारों तरफ से घेर लिया, तो तुरंत फायरिंग शुरू हो गई, जो शाम 4:30 बजे तक चलती रही और अब तक की इस सबसे बड़ी माओवादी कार्रवाई में 29 चरमपंथी ढेर कर दिए गए।
यह अभियान बीएसएफ और ज़िला रिजर्व गार्ड ने संयुक्त रूप से चलाया था, जो महज तीन दिन बाद 19 अप्रैल को बस्तर में होने जा रहे चुनावों के पहले माओवादी हिंसा की मंशा को चुनौती देने की एक बड़ी योजना थी। यह समय पर माओवादियों के विरुद्ध हुई एक बड़ी और ज़रूरी कार्यवाई इसलिए भी थी, क्योंकि देश के सबसे अहम लोकसभा चुनावों के दूसरे दौर में छत्तीसगढ़ की 11 सीटों में से केवल तीन सीटों राजनादगांव, महासमुंद और कांकेर में चुनाव होने जा रहे हैं जबकि तीसरे और छत्तीसगढ़ में आखिरी चरण में चुनाव सरगुजा, रायगढ़, जांजगीर-चम्पा, कोरबा, बिलासपुर, दुर्ग और रायपुर में होने हैं। इसलिए देखा जाए तो यह समय से हुई सुरक्षाबलों की ज़रूरी कार्रवाई थी, जिससे कि लोकसभा चुनाव सुरक्षित माहौल में संभव हो सकें। साढ़े पांच घंटे तक चली इस मुठभेड़ में ज़िला रिजर्व गार्ड और बीएसएफ के तीन जवान भी घायल हुए हैं, जिन्हें हेलीकाप्टर के जरिये रायपुर में भर्ती कराया गया है। 29 माओवादियों के शवों को कांकेर ज़िला अस्पताल में ले जाया गया है, जहां इन पंक्तियों के लिखे जाने तक शवों की पहचान आदि की प्रशासनिक कार्रवाई एग्जिक्यूटिव मैजिस्ट्रेट और एफएसएल टीम की मौजूदगी में हो रही थी।
हालांकि यह आज तक की सबसे बड़ी माओवादियों के विरुद्ध कार्रवाई है, लेकिन खुफिया सूत्रों को आशंका है कि अंतिम चरण के चुनावों के पहले तक संभव है, माओवादी इस कार्रवाई का बदला लेने के लिए कोशिश करें। हालांकि दो तरह की सूचनाएं हैं। एक के मुताबिक जंगल में हिंसक कार्यवाई की योजना बना रहे सभी माओवादी मारे गये हैं, तो दूसरी सूचना के मुताबिक बैठक में हिस्सा ले रहे माओवादियों की संख्या मारे गये माओवादियों से कहीं ज्यादा थी और बड़े पैमाने पर वो लोग पहाड़ी क्षेत्र में एक छोटे बरसाती नाले का सहारा लेकर महाराष्ट्र की सीमा की ओर भाग गये हैं। इन भागने वालों की संख्या मारे गये आतंकियों से कई गुना ज्यादा करीब दो-ढाई सौ के आसपास थी। कांकेर के एस.पी. आईके एलेसेला के मुताबिक नक्सलियों ने जवाबी हमला तो किया था, परंतु सुरक्षाबलों की मजबूती को देखते हुए ज्यादातर माओवादियों महाराष्ट्र की सीमा की तरफ भागना ज्यादा सुरक्षित समझा। इसके बाद मारे गये माओवादियाें के शवों को मैडीकल कार्यवाई के लिए कांकेर ले जाया गया।
देश में 18वीं लोकसभा के चुनावों की औपचारिक शुरुआत के पहले सुरक्षा बलों को मिली यह बड़ी कामयाबी है। हालांकि अगर यह मुठभेड़ न हुई होती, तो भी सुरक्षित चुनाव होने में कोई बाधा नहीं आती। लेकिन चुनावों के दरमियान या इसके पहले माओवादी, आम लोगों को हतोत्साहित करने के लिए हिंसक कार्यवाई ज़रूर करते, जिससे हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में तो कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन माओवादियों को अपनी हरकतों को अंजाम देने में मिली सफलता प्रोत्साहित ज़रूर करती, जोकि अब शायद न करे। हालांकि यह भी एक सच है कि लगभग साढ़े पांच दशक से बिना किसी निर्णायक सफलता के सत्ता से लड़ रहे माओवादी अब इस बात को अच्छी तरह से समझ गये हैं कि भारत जैसे मजबूत लोकतांत्रिक प्रक्रिया वाले देश में हिंसा के जरिये बदलाव की दूर-दूर तक कहीं संभावना नहीं है। लेकिन साढ़े पांच दशकों से चला आ रहा यह जिद भरा नक्सलाइट मूवमेंट, कई शातिर लोगों की कमाई का जरिया भी बन गया है। इसलिए दशकों से गरीबों और आदिवासियों की आज़ादी और सुरक्षा के नाम पर जारी आंदोलन इन्हीं लोगों के शोषण का जरिया बन गया है।
हालांकि अलग-अलग एजेंसियों, संगठनों और संस्थाओं के अलग-अलग आंकड़े हैं लेकिन अगर इन सब के एक औसत अनुमान को मानें तो 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलवाड़ी गांव से शुरू हुए इस हिंसक नक्सलाइट या माओवादी आंदोलन के चलते अब तक 2 लाख से ज्यादा आम लोग और सुरक्षाबल मारे जा चुके हैं। निश्चित रूप से इस दौरान 50 हजार से ज्यादा माओवादी आंदोलनकारी भी मारे गये हैं। दशकों पुराने इस मूवमेंट को लेकर माओवादी दावा कुछ भी करें, लेकिन सही बात ये है कि इन्हें न सिर्फ छत्तीसगढ़ बल्कि किसी भी जगह जहां पर यह आंदोलन दशकों से जारी है, जरा भी सफलता नहीं मिली। अगर कब्ज़े की कहीं-कहीं पर सफलता मिली भी है, तो कब ये सफलता बड़ी असफलता में परिवर्तित हो जाती है, किसी को नहीं मालूम। हालांकि यह बात दूसरी तरफ से भी कही जा सकती है कि अब तक अरबों, खरबों के संसाधन और हजारों की तादाद में गरीबों और आम किसानों के घरों से आने वाले सैनिकों को भी लगातार इस आंदोलन के कारण सक्रिय मोड पर रहना पड़ा है और किसी तरह की कोई व्यापक सफलता नहीं मिली, जिसका साफ मतलब है कि अगर बड़े पैमाने पर यह आंदोलन आम लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ करने वाला एक खूनी आंदोलन है, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
यह बात सही नहीं है कि माओवादी आंदोलन को जड़ से कुचलने या सफाया करने की विभिन्न सरकारें कोशिशें नहीं करती रहीं। सरकारों ने कोशिशें तो की हैं, लेकिन इस खूनी आंदोलन के विरुद्ध कोई निर्णायक सफलता नहीं मिली। साथ ही यह बात भी सही है कि आंदोलनकारियों को वरगला कर और डरा-धमका कर अपने साथ रहने पर बाध्य करने वाले माओवादियों के लिए भी अब यहां सहानुभूति नहीं है। दरअसल जहां भी लम्बी अवधि की सैन्य कार्रवाइयां होती हैं, वहां इस तरह की समस्याएं पैदा हो ही जाती हैं। इसलिए भले तात्कालिक तौर पर सरकार को चुनाव में बाधा डालने के मंसूबे बांधने वाले, माओवादियों को कुचलने और उन्हें काबू में करने की बड़ी सफलता मिल गयी हो लेकिन यह स्थायी नहीं है। पूर्ण शांति अंतत: माओवादियों के साथ एक नतीजापरक बातचीत से ही संभव है। बातचीत की मेज पर आना ही पड़ेगा वरना दशकों अलग-अलग वजहों से ऐसे आंदोलन चलते रहते हैं और उनका किसी को फायदा नहीं मिलता सबको उसके नुकसान की भरपायी करनी होती है। इस बड़ी सफलता के बाद सरकार को इस नज़रिये से इस पूरे आंदोलन को लेकर सोचना होगा।            
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