पंजाब में कृषि का आधार हैं प्रवासी खेत मज़दूर

सब्ज़ इंकलाब के बाद प्रवासी खेत मज़दूर पंजाब की कृषि का केन्द्र रहे हैं। धान की पूरी रोपाई लगभग इनके द्वारा की जाती रही है और कम्बाईन हार्वेसटरों की संख्या बढ़ने तक गेहूं की कटाई भी लगभग इन पर ही आधारित रही है। पैडी ट्रांसप्लांटर आम किसानों द्वारा न अपनाए जाने के बाद तथा इनके इस्तेमाल के लिए पौध की बिजाई ट्रे में एक विशेष ढंग से करने की ज़रूरत के दृष्टिगत धान की रोपाई के लिए प्रवासी खेत मज़दूरों के आने का किसान बड़ी तत्परता से इंतज़ार करते हैं।  ये प्रवासी खेत मज़दूर धान लगाने के लिए आते हैं और उनमें से बहुत-से इस कार्य के बाद वापिस चले जाते हैं। किसान तो प्रवासी खेत मज़दूरों को रेलवे स्टेशनों पर जाकर एजेंटों को उनकी कमीशन देकर अपने खेतों में लाते हैं। चाहे कुछ बड़े-बड़े किसान तो वही खेत मज़दूर जो पहले उनके खेतों में धान लगाकर जाते रहे हैं और रोपाई के दौरान उनके खेतों में ही आबाद रहते हैं, का ही इंतज़ार करते हैं। उनके साथ वे टैलीफोन पर सम्पर्क रखते हैं। चाहे प्रत्येक वर्ष प्रवासी खेत मज़दूरों की सही संख्या का अनुमान लगाना मुश्किल होगा, परन्तु विभिन्न वर्षों के अनुमान के अनुसार लगभग पांच लाख प्रवासी खेत मज़दूर पंजाब आते रहे हैं। इनकी संख्या गत कुछ वर्षों से कम हो गई भी नज़र आती है।
उत्तर प्रदेश से शुरू होकर ये खेत मज़दूर बिहार, ओडिशा, तथा फिर बाद में गत कई वर्षों से पश्चिम बंगाल, नेपाल, मध्य प्रदेश तथा झारखंड, राजस्थान आदि से भी आना शुरू हुए। उत्तर प्रदेश से आने वाले मज़दूर तो अधिकतर घरों व दुकानों पर सहायक, फल एवं सब्ज़ी विक्रेता तथा रिक्शा चालक के तौर पर या अन्य व्यवसायों में आबाद हो गए। फिर इनमें से अधिकतर ने पंजाब को अपना घर बना लिया और यहीं आबाद हो गए। प्रवासी खेत मज़दूरों के लिए शुरू-शुरू में तो पंजाब ‘अमरीका’ बना रहा और वे इसे पर्यटन का केन्द्र मानते रहे। अब क्योंकि दूसरे राज्यों में विकास कार्य चलने के कारण उन्हें रोज़गार वहीं मिल जाता है और सरकार द्वारा चलाई गईं ‘मगनरेगा’ तथा घर उपलब्ध करने वाली योजनाएं आदि शुरू करने के बाद इनकी आमद कम हो गई है। पंजाब के किसान सीज़न में अब कृषि मज़दूरों की कमी महसूस करने लग पड़े हैं। गांवों में दिहाड़ी 500 रुपये से अधिक पहुंच गई है। पहले निर्माण कार्यों में लगे मज़दूरों की दिहाड़ी खेत मज़दूरों से अधिक होती थी, जो अब विपरीत है, लगभग एक समान तो है ही। फिर खेत मज़दूर अब काम भी दिहाड़ी में 8 घंटे से अधिक नहीं करते। चाहे धान की रोपाई का कार्य अधिकतर ठेके पर किया जाता है और ठेके पर वे दिन में 14 घंटे लगे रहते हैं। पांच मज़दूर एक दिन में एक किल्ला धान लगा देते हैं, जिसका खर्च 4500 रुपये तक है। गत शताब्दी में तो प्रवासी खेत मज़दूर दिहाड़ी पर भी काम करते थे तथा 8 घंटे की बंदिश की स्थिति नहीं थी। अब कृषि का अधिक कार्य जैसे धान की रोपाई, कीटनाशक दवाओ का छिड़काव, बासमती की छंटाई, भूसे के कुप्पों को बांधना तथा भंडार करने के लिए गेहूं को बोरियों में भर कर गोदामों में रखना आदि जैसे कार्य ठेके पर होने लग पड़े हैं, क्योंकि ठेके पर काम करवाना किसानों तथा प्रवासी खेत मज़दूरों दोनों के अनुकूल है। किसान भी ठेके पर काम करवाना चाहते हैं, क्योंकि दिहाड़ी पर उनको लाभ नहीं होता। उधर खेत मज़दूर ठेके पर काम करके दिहाड़ी से अधिक कमा लेते हैं। 
प्रवासी खेत मज़दूर आजकल पंजाब में कृषि करने के लिए बहुत अहम भूमिका अदा करते हैं। आम तौर पर किसान स्वयं तो काम ही नहीं करते। वे धरनों या दूसरे शहरों में आने-जाने में व्यस्त रहते हैं। उनके युवा बच्चे तथा पारिवारिक सदस्य भी अब स्वयं कृषि का कार्य नहीं करते। किसानों के युवा बच्चे तो शहरों में ‘व्हाइट कॉलर’ व्यवसाय में ही लगना चाहते हैं, जबकि उनमें से बहुत-से विदेशों को जाने के इच्छुक हैं। 
जो प्रवासी खेत मज़दूर गांवों या शहरों में बस गए हैं और उन्होंने यहां अपनी वोटें भी बनवा ली हैं। उन्होंने पंचायत था स्थानीय संस्थाओं के चुनावों में भी भाग लेना शुरू कर दिया है। यहां तक कि जहां उनकी आबादी हो गई, अपने प्रतिनिधियों को भी चुनावों में खड़ा करने का प्रयास करते हैं। बहुत-से प्रवासी शहरों में उद्योगों तथा कारखानों में भी काम कर रहे हैं। यहां भी इन्होंने अपनी अहमियत बना ली है और उद्योगपतियों को बहुत-सी परिस्थितियों में विकल्प उपलब्ध नहीं। वे अपनी दिहाड़ी के साथ अन्य सुविधाएं भी कानून के अनुसार लेने में धीरे-धीरे सफल होते जा रहे हैं। 
धान की रोपाई के अतिरिक्त वर्ष भर कृषि के और भी काम चलते रहते हैं, जिस कारण कुछ सीमा तक फसली विभिन्नता आने के कारण पूरा वर्ष भी किसानों को खेत मज़दूरों की ज़रूरत रहती है। स्थानीय खेत मज़दूर तो उपलब्ध ही नहीं। यदि छोटी श्रेणियों तथा वर्गों में से खेत मज़दूर मिलते भी हैं तो उनकी दिहाड़ी तथा मांगें बहुत अधिक हैं, जिन्हें आम किसान सहन नहीं कर सकता।