आखिर कैसे हमारा होगा गुलाम कश्मीर ?

चुनाव प्रचार के आखिरी तीन दौर में भाजपा ने जिस तरह से पाक अधिकृत कश्मीर या पीओके का मुद्दा उठाया, वह अभूतपूर्व रहा। गृहमंत्री, रक्षामंत्री, विदेशमंत्री और यहां तक कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री समेत पार्टी के तमाम स्टार प्रचारक हर रैली, प्रत्येक भाषण में समूचे जोर-शोर से यह बताते रहे कि गुलाम कश्मीर को भारत में विलय कराने के प्रति वे कितने प्रतिबद्ध हैं। पार्टी की सरकार बनने के बाद संभवत: सबसे पहला काम गुलाम कश्मीर का भारत में विलय कराने का करेगी क्योंकि दावे के मुताबिक सरकार बनने के छह महीने के भीतर गुलाम कश्मीर को भारत में मिला लेंगे। भाजपा ने पहले भी यह साफ किया है कि वह गुलाम कश्मीर को वापस लेने की हामी है पर मतदान के अंतिम तीन चरणों में उसनें इस मुद्दे के प्रति जो लगातार आक्रामक तत्परता दिखाई है, उससे यह विवेचना समीचीन हो जाती है कि आखिर चुनाव प्रचार के अधबीच इस मुद्दे को इस कदर गंभीरता से उठाने के पीछे क्या निहितार्थ हैं? क्या वह वाकई इसके प्रति गंभीर है और पीओके को कब्जाने की कोई रणनीति बना रखी है या फिर यह बयान चुनाव प्रचार में पाकिस्तान को शामिल करने, राष्ट्रवाद को भड़काने और मूलभूत राजनीति मुद्दों से मतदाता को भटकाने के लिये फेंका गया मात्र चुनावी जुमला है। क्या इस मुद्दे से उसे चुनावी लाभ मिलेगा? विरोधी कह सकते हैं कि यह बस चुनावी शिगूफा है, सरकार की ऐसी कोई मंशा होती तो वह अपने संकल्प पत्र में इसका उल्लेख करती। लेकिन यह तर्क अनुचित है; क्योंकि राष्ट्र की रक्षा-सुरक्षा अथवा सैन्य कार्यवाईयों की योजना को इस तरह कभी उजागर नहीं किया जाता। असल में यह एक कांग्रेसी नेता द्वारा पाकिस्तान के परमाणु सम्पन्न देश होने के चलते उसकी ताकत को प्राथमिकता देने वाले बयान की प्रतिक्रिया है। 
यह प्रतिक्रिया जानबूझ कर बड़ी लाइन खींचते तकरीबन तीन चरणों के दौरान इसलिए दी गई क्योंकि यह पार्टी के राष्ट्रवादी एजेंडे पर खरा उतरता है और इससे विपक्षी को पाकिस्तानपरस्त साबित किया जा सकता है। इससे जहां उसके युवा वोट संगठित होंगे, उत्साह दिखाएंगे और वह राष्ट्रवाद जगाकर, प्रचार के केन्द्र में पाकिस्तान को लाकर चुनावी लाभ पा सकेगा। मूल प्रश्न यह कि यदि सरकर अपने कहे पर गंभीर है और अगले महीने केंद्र में उसकी सरकार बन जाती है तो इस दिशा में उसके कदम क्या होंगे? क्या गिलगिट बाल्टिस्तान, अक्साईचिन और शक्सगाम घाटी सहित समूचे गुलाम कश्मीर वाले भू-भाग को जो बीते कई दशकों तक भारत में नहीं मिलाया जा सका उसको महज कुछ महीनों में देश के साथ शामिल कराने की क्या रणनीति है। अक्तूबर 1947 में जब जम्मू-कश्मीर का मूल राज्य भारत में शामिल हुआ था, तब इसका कुल क्षेत्रफल 2,22,236 वर्ग किमी था। उत्तर-पश्चिम में आज़ाद भारत की सीमा अफगानिस्तान के वाखान कॉरिडोर को छूती थी और उत्तर में चीन अधिकृत तिब्बत को। तब चीन के साथ पाकिस्तान की कोई सीमा नहीं लगती थी। आज 2,22,236 वर्ग किमी में से केवल 1,06,566 वर्ग किमी ही हमारे कब्जे में है। 72,935 वर्ग किलोमीटर का इलाका पाकिस्तान के कब्जे में है, 5,180 वर्ग किलोमीटर के भारतीय क्षेत्र वाला शक्सगाम घाटी पर 1963 से चीन का अवैध कब्जा है। चीन के ही कब्जे में कश्मीर का 37,555 वर्ग किलोमीटर का अक्साई चिन वाला हिस्सा भी है। 
साल 2012 में अमरीकी खुफिया एजेंसियों के हवाले से पाकिस्तानी अखबारों ने कहा था कि पाकिस्तान गिलगिट-बाल्टिस्तान का 72,971 वर्ग किमी का हिस्सा 50 वर्षों के लिए चीन को पट्टे पर देने पर विचार कर रहा है। हालांकि इस सूचना पर न तो तत्कालीन सरकार ने कोई कान दिया और न ही दो साल बाद आने वाली नई सरकार ने। ऐसे में गुलाम कश्मीर दलों की वास्तविक प्राथमिकता है या सियासी कुछ हद तक समझ में आता है। अब अगर अगले महीने भाजपा की सरकार बनती है तब यह और साफ होगा। फिलहाल तो प्रधानमंत्री, रक्षामंत्री के साथ साथ गृहमंत्री और विदेशमंत्री ने भी इसके संदर्भ में किसी रणनीति का कोई संकेत नहीं दिया है बस यही कहा है कि गुलाम पाकिस्तान के लोग पाकिस्तानी शासन से ऊब चुके हैं, वे भारत के हिस्से वाले कश्मीर की शांति विकास खुशहाल बेरोज़गार नौजवानों को देखने बाद उनके साथ नहीं रहना चाहते एक दिन वे खुद हमारे साथ आ जाएंगे। यह तर्क अव्यावहारिक और हवाई है। इन्हें हासिल करने के लिए ठोस कदम उठने होंगे। पहला काम पीओके को देश का हिस्सा मानकर जम्मू-कश्मीर विधानसभा में चौबीस सीटें 1956 से ही रिजर्व हैं, खाली रखी जाती हैं। अब लोकसभा और राज्यसभा में भी इसी तर्ज पर नई सीटें बढाना हो तो इसका विरोध तो कोई नहीं करेगा मगर इसके लिए संविधान संशोधन दरपेश होगा सो यह तुरत फुरत नहीं हो पाएगा। भारत पाकिस्तान के मामले तीसरा कोण चीन है। 65 बिलियन डॉलर का इकोनॉमिक कोरिडोर सीपैक जो काराकोरम से ग्वादर तक जाता है, इसी भारतीय क्षेत्र से गुजरता है। उसने यहां कई पनबिजली परियोजनाओं में भी पैसा झोंका है। प्रधानमंत्री ने चीन को कहा था कि पाकिस्तान के अवैध कब्ज़े वाले इस भारतीय क्षेत्र का इस्तेमाल न करे पर उसने अनसुनी कर दी। साफ है, पीओके लेना है तो हमें जंग से कम में कुछ भी नहीं मिलेगा। बेशक मानवाधिकारों की रक्षा के नाम पर भारत हस्तक्षेप कर सकता है। 
पाकिस्तान भले कंगाल हो पर जंग में कूदने से बाज नहीं आयेगा। जंग हुई तो सीपैक के बहाने चीन पाकिस्तान का साथ देगा और आशंका तो यह भी हो सकती है कि वह भी मोर्चा खोल दे। सीपैक को रोकने में हमारी सेना सक्षम नहीं थी, क्योंकि वहां प्रवेश आसान भी नहीं था न ही व्यवहारिक। अब वर्तमान परिस्थितियों में कौन-सा बदलाव हुआ है कि चीन हमारी बात मानकर कोई प्रतिक्रिया न देते हुए घुसने देगा। 
उधर नेपाल में पीएलए की तैनाती हमारे लिये अलग तीसरा मोर्चा खोल सकती है। वैसे भी टू-फ्रंट वॉर जीतना कठिन है। सैन्य विशेषज्ञों के अनुसार पीओके के पहाड़ी इलाकों में जंग के लिए अटैकर टू डिफेंडर रेश्यो जो मैदानों में 3:1 का होता है उसमें बदलाव कर उसे 9:1 करना पड़ेगा। मैदानों में किसी जमीन के टुकड़े पर अगर दुश्मन के 100 सैनिकों का कब्ज़ा है तो हमारी सेना को उन्हें खदेड़ने के लिए 300 जवान लगेंगे जबकि पहाड़ों पर इसमें तीन गुना की बढोतरी करनी होगी। मतलब 100 दुश्मन जवानों से मुकाबले के लिए 900 की तैनाती ज़रूरी होगी। कारगिल इसका ज्वलंत उदाहरण है। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर