नेता प्रतिपक्ष बने राहुल गांधी की होगी अग्नि-परीक्षा

अभी कुछ दिनों पहले तक संसद में इस दृश्य की कल्पना करना ही रोमांचक होता, 18वीं लोकसभा की औपचारिक शुरुआत के तीसरे दिन (26 जून, 2024) ही जो दृश्य देखने को मिला। जब दूसरी बार ओम बिरला लोकसभा अध्यक्ष चुने गये, तो एक तरफ प्रधानमंत्री मोदी और दूसरी तरफ संसद में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी, सम्मान स्वरूप उन्हें उनकी सीट तक छोड़कर आये। इस बीच इन दोनों का साथ नये संसदीय कार्यमंत्री किरेन रिजुजू ने दिया। इस देश में जो व्यक्ति जरा भी राजनीति में रूचि रखता है, उसके लिए यह कोई खुलासा नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पहली बार लोकसभा के लिए चुने गये नेता प्रतिपक्ष, राहुल गांधी के बीच हमेशा छत्तीस का आंकड़ा रहता है। 
इसलिए जब 18वीं लोकसभा के चुनाव नतीजे घोषित हुए और भाजपा अपने दावों और उम्मीदों से काफी कम सीटें हासिल की और कांग्रेस ने उम्मीदों से बेहतर प्रदर्शन किया, तभी से यह तय हो गया था कि दस साल बाद विपक्ष को लोकसभा के अंदर नेता प्रतिपक्ष मिलेगा, जो संभवत: राहुल गांधी होंगे। संभवत: इसलिए कि पिछले दस सालों से सक्रिय राजनीति का कांग्रेसी स्तंभ होते हुए भी उन्होंने अभी तक कोई भी संवैधानिक पद नहीं लिया था और न सिर्फ चुनाव के पहले बल्कि चुनाव के बाद भी लगातार नेता प्रतिपक्ष बनने को लेकर अपनी अरूचि दिखा रहे थे। इसलिए बहुत से लोगों का मानना था कि राहुल गांधी शायद नेता प्रतिपक्ष का पद न स्वीकारें। लेकिन अंतत: राहुल गांधी ने जिद छोड़ी और लोकसभा नेता प्रतिपक्ष बनना स्वीकार किया।
हालांकि चुनाव नतीजों को देखकर विश्लेषकों ने दावा किया था कि एनडीए का हिस्सा चंद्रबाबू नायडू की ‘तेलगू देशम’ और नितीश कुमार की ‘जनता दल यूनाइटेड’ पार्टी, भाजपा को अपनी मर्जी का न तो मंत्रिमंडल बना देंगी और न ही लोकसभा अध्यक्ष। लेकिन भाजपा ने पहले जहां लगभग पिछले मंत्रिमंडल को दोहराया, वहीं हर तरह की आशंकाओं के बावजूद लोकसभा अध्यक्ष के पद पर भी प्रधानमंत्री मोदी के चहेते ओम बिरला ही लौटे। एक अर्थ में यह विपक्ष के लिए हैरान करने वाला और अगर ज्यादा कठोर शब्द का इस्तेमाल किया जाए तो कहना चाहिए हतोत्साहित करने वाला सच था। क्योंकि लोकसभा अध्यक्ष चुने जाने के पहले विपक्ष ने ओम बिरला को लेकर इतना ज्यादा शोर मचा दिया था कि स्पष्ट संख्या बल के बावजूद यह लगने लगा था कि अगर ओम बिरला फिर से इस पद पर पहुंचते हैं, तो यह प्रतिपक्ष के लिए ही नहीं बल्कि लोकतंत्र के लिए भी मायूस करने वाला मौका होगा। 
लेकिन राजनीति अंतत: संख्या बल की बदौलत ही चलती है और संख्या बल सरकार के पास है। इसी की बदौलत उसने स्पष्ट रूप से प्रतिपक्ष की इस मांग को ठुकरा दिया कि लोकसभा अध्यक्ष निर्विरोध चुने जाने के लिए उपाध्यक्ष का पद ‘इंडिया’ गठबंधन को दिया जाए। पहले हालांकि मीडिया के कई हलकों से इस तरह की खबरें आयीं, मानो इस एडजस्टमेंट पर दोनों तरह की सहमति हो गई हो। मगर अंतत: ऐसा हुआ नहीं और 26 जून को प्रात: संसद में लोकसभा अध्यक्ष पद के लिए हुए चुनाव में ओम बिरला ने कांग्रेस के के. सुरेश को हरा दिया। ओम बिरला ध्वनि मत से चुने गये और यह ध्वनि मत कितना मजबूत था, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ‘इंडिया’ गठबंधन की तरफ से शिव सेना (उद्धव ठाकरे) के सांसद अरविंद सावंत ने कांग्रेस के. सुरेश का नाम लोकसभा स्पीकर के पद के लिए प्रस्तावित तो किया और आरएसपी के नेता एन.के. प्रेमचंदन ने इसका अनुमोदन किया। 
मगर चुनाव हार जाने पर ‘इंडिया’ गठबंधन ने चुनाव नतीजों के लिए मत विभाजन का आग्रह नहीं किया। क्योंकि विपक्ष को मालूम था कि वे तो सिर्फ प्रतीकात्मक लड़ाई लड़ रहे है, क्योंकि इस जंग में ओम बिरला का जीतना पहले से ही लगभग सौ प्रतिशत तय था। मगर लोकतंत्र में चुनाव लड़ना कभी भी न तो ज्यादती होती है और न ही किसी तरह का अलोकतांत्रिक कार्य कि उसके लिए किसी दल या समूची संसद को शर्मिंदा होना पड़े बल्कि सुनिश्चित हार के बावजूद सार्वजनिक रूप से चुनाव लड़ना एक तरह से लोकतांत्रिक व्यवस्था पर अपनी मजबूत सहमति जताना है। इसलिए ‘इंडिया’ गठबंधन के प्रतिनिधि के सुरेश का तय हार के बावजूद चुनाव लड़ना लोकतंत्र की परंपरा को मज़बूत करने वाला कदम था।
वास्तव में राहुल गांधी के नेता प्रतिपक्ष बनने का सबसे शुरुआती और प्राथमिक विश्लेषण यही है कि पिछली दो लोकसभाओं की तरह इस बार सरकार संसद में प्रतिपक्ष की अनदेखी नहीं कर सकती। लेकिन महज इस तकनीकी ताकत की बदौलत ही न तो विपक्ष मजबूत होगा और न ही केंद्र सरकार उसकी मजबूती का लिहाज करते हुए उसके प्रति आक्त्रामक नहीं होगी। प्रधानमंत्री मोदी जिस तरह की तेजतर्रार राजनीति करते हैं, उस कारण यह संभव ही नहीं है कि मौजूदा सरकार सहम-सहमकर अपने फैसले करे या राजनीतिक निर्णय ले। दूसरी तरफ यह राहुल गांधी के लिए भी कठिन परीक्षा का समय है। अभी तक वह किसी तरह की जिम्मेदारी से मुक्त थे, सड़क की राजनीति करते थे, इसलिए वहां उन्हें अतिरिक्त रूप से आक्त्रामक होने का मौका मिलता था और उसे विपक्ष के राजनेता और देश के लोग स्वीकार भी करते थे। लेकिन अब राहुल गांधी को उस तरह की बेफिक्त्री से बचना होगा, क्योंकि वह 543 सदस्यीय लोकसभा में प्रधानमंत्री मोदी के बाद संवैधानिक रूप से दूसरे सबसे से ताकतवर व्यक्ति हैं। 

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