पश्चिम बंगाल द्वारा दुष्कर्म रोधी पहलकदमी

पश्चिम बंगाल विधानसभा द्वारा पारित किए गए दुष्कर्म रोधी विधेयक का स्वागत करना बनता है। विधेयक के प्रारूप के अनुसार दुष्कर्म पीड़िता की मौत होने या सदैव बेहशी की हालत में चले जाने की स्थिति में आरोपी को मौत की सज़ा दी जा सकती है। विधेयक में ऐसे आरोपियों को बिना पैरोल उग्र कैद का भी सुझाव है। उनकी आयु कम होने पर भी नर्मी नहीं बरती जानी चाहिए। मुख्य उद्देश्य महिलाओं तथा बच्चों की सुरक्षा का दायरा बढ़ाना है। इस विधेयक का लक्ष्य तुरंत जांच शुरू करके आरोपियों को बनती सज़ा सुनिश्चित बनाना है। यह विधेयक दो बातों पर मुहर लगाता है। पहली यह कि ऐसी पहलकदमी वही सरकार कर सकती है जिसकी प्रमुख एक महिला हो। दूसरी यह कि इस विधेयक के पारित होने से दूसरी राज्य सरकारों की नींद खुल जाएगी और केन्द्र सरकार की भी। ममता बनर्जी तथा बंगाली सर्वसम्मति ज़िन्दाबाद।
़गदरी बाबे तथा बीबी गुलाब कौर
सितम्बर के आरम्भ में लगे रुड़ीवाला (तरनतारन) गांव के ़गदरी मेले ने ़गदरी बाबाओं की दूर-दृष्टि तथा बीबी गुलाब कौर की दृढ़ता याद करवा दी है। आज से 110 वर्ष पहले 3 सितम्बर, 1915 को अंग्रेज़ सरकार ने अंबाला जेल में 12 पंजाबी देश भक्तों को फांसी देकर स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी को ज्वाला बना दिया था, परन्तु इसकी नींव 1913 में ़गदर पार्टी की स्थापना के समय ही रखी गई थी। निश्चय ही ़गदरियों को यह भनक लग चुकी थी कि ऐसा कुछ कभी भी हो सकता है। पार्टी के संस्थापक सोहन सिंह भकना के शब्द थे, ‘दूसरे विश्व युद्ध ने अंग्रेज़ों को शिकंजे में जकड़ लिया है। विदेशों में रहते हिन्दुस्तानियों को चाहिए कि वे अपने वतन लौटें और संगठनात्मक सैन्य बगावत करवा कर ब्रिटिश शासकों के पावों के नीचे ऐसे अंगारे रखें कि उनके लिए दुंब दबा कर भागने की नौबत आ जाए।’
भकना की भावनाओं को क्रियात्मक रूप देने के लिए मीयां मीर (लाहौर) की छावनी का चयन किया गया। यह छावनी  हिन्दुस्तान की नौ डिवीज़नों में से एक का मुख्य कार्यालय था और पंजाब की शेष छावनियां इसके अधीन थीं। निश्चय ही मीयां मीर से पूरे पंजाब का स्वतंत्रता संग्राम शुरू किया जा सकता था। लगातार विचार-विमर्श के लिए गुरुद्वारा झाड़ साहिब भी निकट ही था। प्रथम बैठक छावनी के श्मशानघाट में हुई, जिसके फैसले के अनुसार 26 नवम्बर, 1914 को यहां वाली पत्रिका के सिपाहियों ने हथियारों एवं घोड़ों सहित बागी होकर झाड़ साहिब गुरुद्वारा में प्रण किया कि अंग्रेज़ गवर्नर के कार्यालय पर राष्ट्रीय ध्वज लगा कर स्वतंत्रता की घोषणा करना है। यह संदेश मिलते ही करतार सिंह सराभा के नेतृत्व में फिरोज़पुर छावनी में पहली बगावत हुई और तय हुआ कि हिन्दुस्तान के अन्य ़गदरी ठिकानों से समान विचारधारा वालों को साथ लेकर आगे बढ़ना है, परन्तु सरकार के एक पिट्ठू ग्रंथी ने उन्हें ऐसा उलझाया कि बहुत-से इधर-उधर हो गए। जो चार मैदान में रह गए, उनका सामान बैलगाड़ी पर रखते समय और ही घटना घटित हो गई। दफेदार वसावा सिंह का ट्रंक नीचे गिरने से उसके भीतर रखा बम फट गया और पांच सिपाही घायल हो गए। शेष सिपाहियों ने वसावा सिंह तथा पूरन सिंह को यातनाएं देकर शेष ़गदरियों का भी अता-पता ले लिया। 3 सितम्बर को फांसी दिए जाने वालों में से 12 पंजाबी थे। रुड़ीवाला का मेला उनमें से एक की याद में लगता है। 
यातनाएं तो गुलाब कौर को भी कम नहीं दी गईं, परन्तु उनकी दृढ़ता पुरुषों को मात देने वाली थी। वह तथा उनका पति मान सिंह अपने घर से अमरीका की हरीं चरादां के लिए विमान में सवार हुए थे। जब वे फिलीपीन्स पहुंचे तो वहां के ़गदरी प्रधान हफीज़ अब्दुल्ला ने ़गदरियों की धारणा से अवगत करवाया। गुलाब कौर को तो इस भावना ने सिर से पांव तक झिंजझोड़ दिया, परन्तु मान सिंह शांत ही रहे। वह स्वयं तो एस.एस. कोरिया नामक विमान में सवार हो गईं और पति को वहीं छोड़ दिया। 
इस विमान का कई स्थानों पर ठहराव था जिसका लाभ लेकर प्रत्येक स्थान पर ़गदरियों एवं अपनी धारणा का प्रचार करना था। एक ठिकाने पर ऐसी बैठक गुरुद्वारा की नीम के पेड़ की नीचे हुई। गुलाब कौर ने अपने बाएं हाथ की चूड़ियां उतार कर सभी को चुनौती दी, ‘जिन्हें यह मार्ग पसंद नहीं, उनके लिए चूड़ियां हाज़िर हैं और वे अपने-अपने घर को चले जाएं।’ उनके इन शब्दों से ब्रिटिश सिपाही भी प्रभावित होकर यह पूछते सुने गए कि इतनी साहसी बीबी कौन थी? इस मार्ग पर चलते हुए उन्होंने अपना नाम भी बदला और जासूसी करने वालों को चकमा देने के लिए फर्जी पति भी बनाए। पहले तो वह स्वयं को जीवन सिंह की पत्नी बताती रहीं, परन्तु लाहौर की मूल चंद सराय में इन्द्र सिंह भसीन की पत्नी कह कर रहीं। 
वह स्वयं भी कहीं गुलाब देवी बनीं, कहीं बसंत कौर तथा कहीं किरपो। उनकी असल ज़िम्मेदारी ‘़गदर संदेश’ तथा  ‘ऐलान-ए-जंग’ पर्चे बांटना था। ये पर्चे तहखाने में लगी साइक्लोस्टाइन मशीन पर छपते थे और छपाई का कार्य करतार सिंह सराभा देखते थे। गुलाब कौर ने पर्चे बांटने के लिए इस्तेमाल की जाती टोकरी में पर्चे नीचे रखे होते थे और उनके ऊपर लोगों की पसंद की ऐसी वस्तुएं जो वे खरीदते थे। 
उनकी दृढ़ता कमाल थी। 1915 में पकड़ी जाने के बाद उन्हें भी पूरन सिंह तथा वसावा सिंह की भांति यातनाएं दी गईं, परन्तु उन्होंने किसी ़गदरी या उसके ठिकाने का भेद नहीं दिया। दो वर्ष के बाद कैद से बाहर आईं तो कोटला नौध सिंह (होशियारपुर) में अमर सिंह के संरक्षण में चली गईं, जहां उन्हें छाती का कैंसर हो गया। स्थानीय हकीम तथा डाक्टर पुलिस से इतना डरते थे कि कोई भी उनका हाल जानने के लिए तैयार नहीं हुआ। तब कैंसर का उपचार वैसे भी आसान नहीं था। उनका निधन हो गया। वह गुलाब कौर नहीं ़गदरियों का गुलाब थीं और गुलाब ही रहेंगी। 
अंतिका
-फिरोज़दीन शरफ- 
बंदीजन दे हलवे नालों, टुकड़े भले फकीरां दे,
कर गुज़रान सुतंत्रता विच्च, पहन गोदड़े लीरां दे।