सर्वोच्च न्यायालय के आदेश ने धर्म-निरपेक्षता को कायम रखा
पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991 के संबंध में सभी नये मुकद्दमों, कार्रवाइयों और सर्वेक्षण की अनुमति देने पर रोक लगाने का आदेश भारत के सर्वोच्च न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने 12 दिसम्बर को दिया, जिसके निहितार्थ दूरगामी होंगे क्योंकि यह कानूनी सीमाओं से परे देश के लोगों के सामाजिक और राजनीतिक जीवन को प्रभावित करेगा। इस आदेश ने सांप्रदायिकता के खिलाफ धर्म-निरपेक्षता के अस्तित्व की लड़ाई में धर्म-निरपेक्षता के बचने की एक नयी उम्मीद जगायी है। देश भर की विभिन्न अदालतों में 10 मस्जिदों या दरगाहों पर दावा करने वाले मुकद्दमों के कुल 18 मामले लंबित हैं, जबकि 2019 के अयोध्या फैसले में पूजा स्थल अधिनियम को बरकरार रखा गया था, जिसका मूल उद्देश्य था इतिहास में सुदूर अतीत की घटनाओं, जो 16वीं शताब्दी तक पीछे की हैं, को आज के लोगों के वर्तमान और भविष्य को नष्ट न करने देना।
भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ द्वारा 2022 में पूजा स्थल अधिनियम के वास्तविक उद्देश्य की अनदेखी ने मस्जिदों और दरगाहों के खिलाफ मामलों की बढ़ती संख्या का मार्ग प्रशस्त किया, क्योंकि उन्होंने कहा कि उक्त अधिनियम के तहत पूजा स्थलों की प्रकृति का पता लगाने पर कोई रोक नहीं है, हालांकि यह 15 अगस्त, 1947 को भारत के स्वतंत्र होने के बाद से उनके चरित्र को बदलने से रोकता है। वर्तमान आदेश में मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना के नेतृत्व वाली तीन सदस्यीय पीठ ने इस त्रुटि को सुधारा है।
अयोध्या मामले में सर्वोच्च न्यायालय की पांच जजों की पीठ ने पूजा स्थल अधिनियम को बरकरार रखा था, लेकिन 2020 और उसके बाद सुप्रीम कोर्ट में इसकी संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गयी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब दाखिल करने को कहा था, लेकिन चार साल बाद भी केंद्र की ओर से जवाब दाखिल नहीं किया गया और मामला लंबित रहा। इस बीच देश के विभिन्न हिस्सों में सामाजिक और राजनीतिक तनाव जारी रहा, जिससे जान-माल का नुकसान हुआ और अदालतों में मामलों की संख्या भी बढ़ती गई।
अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश के संभल में 5 लोगों की मौत के बाद सर्वोच्च न्यायालय की पीठ के समक्ष सुनवाई में तेजी लाने के लिए नये अनुरोध किये गये। अब सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र को इस मामले में जवाब देने और अपना जवाबी हलफनामा दाखिल करने के लिए चार सप्ताह का समय दिया है। केंद्र सरकार की मंशा तब स्पष्ट हो गयी जब सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि तीसरा पक्ष सिविल मुकद्दमे की कार्यवाही पर रोक नहीं लगा सकता। वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसारिया ने यहां तक तर्क दिया कि पूजा स्थल अधिनियम से संबंधित रिट याचिकाओं पर विचार करते समय सिविल मुकद्दमों पर रोक नहीं लगायी जा सकती।
मुख्य न्यायाधीश खन्ना ने आपत्ति का जवाब देते हुए कहा, ‘इन रिट याचिकाओं में सिविल मुकद्दमों का मामला उठाया गया है। इन याचिकाओं में पहले ही नोटिस जारी किया जा चुका है। दूसरे, अन्य रिट याचिकाओं में इन सिविल मुकद्दमों के खिलाफ 1991 के अधिनियम को लागू करने का मुद्दा उठाया गया है। उन्होंने निषेधाज्ञा की मांग की है।’ न्यायमूर्ति वी. विश्वनाथन ने कहा कि पूजा स्थल अधिनियम की धारा 3 ‘संवैधानिक सिद्धांतों की पुनरावृत्ति की एक प्रभावी अभिव्यक्ति’ थी, और साथ में उन्होंने यह भी कहा कि अधिनियम में धर्म-निरपेक्षता, सम्मान, बंधुत्व और धर्म की स्वतंत्रता के विचार को शामिल किया गया है। उन्होंने कहा कि 1991 के पूजा स्थल अधिनियम की अनुपस्थिति में भी इन बुनियादी संवैधानिक सिद्धांतों के उल्लंघन के आधार पर मुकद्दमों पर आपत्ति की जा सकती है।16वीं शताब्दी में मुगल आक्रमणकारियों द्वारा नष्ट किये गये हिंदू मंदिरों को पुन: प्राप्त करने की मांग करने वाले लंबित मामलों में अदालतों को नये मुकद्दमे दर्ज करने या आदेश पारित करने से रोकने वाला फ्रीज ऑर्डर भी महत्वपूर्ण है जिसे याचिकाकर्ताओं द्वारा व्यवधानों के बीच पारित किया गया था। यह आदेश तब तक लागू रहेगा जब तक कि पीठ पूजा स्थल अधिनियम की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई नहीं कर लेती। मामले की अगली सुनवाई 17 फरवरी को होनी है।
इस आदेश ने पूजा स्थल अधिनियम की अखंडता को संरक्षित किया है, जो तीन दशकों से अधिक समय से कागज़ों पर लागू है, लेकिन इसे समुचित ढंग से लागू नहीं किया गया है।
इस आदेश का कानूनी अस्थिरता और सामाजिक अशांति को रोकने में तत्काल और दीर्घकालिक महत्व है, क्योंकि इस अधिनियम को धार्मिक स्थलों पर आगे के विवादों से बचने के लिए प्रभावी रूप से लागू किया गया, जो देश के सामाजिक और राजनीतिक जीवन को प्रभावित करने वाले सांप्रदायिक तनाव को बढ़ा सकते थे। मुख्य न्यायाधीश खन्ना की अगुवाई वाली सर्वोच्च न्यायालय की पीठ का उद्देश्य धार्मिक स्थल के स्वामित्व और स्थिति से संबंधित कानूनी व्याख्याओं में स्थिरता प्रदान करना भी है। यह निश्चित रूप से सांप्रदायिक तनाव को फिर से भड़काने से रोकेगा, जो देश के समाज और राजनीति दोनों को बहुत ही विनाशकारी तरीके से प्रभावित करता है। (संवाद)