स्वाभिमान पर चोट जैसी है अमरीका से भारतीयों की वापसी
दर्द की क्या इंतिहा है मत पूछीये,
जान निकली भी नहीं जीते भी नहीं।
(लाल फिरोजपुरी)
इस बार कोई संदेह नहीं कि लाखों रुपये खर्च कर और लाखों सपने सजा कर गैर-कानूनी तरीके से अमरीका पहुंचे, जिन लोगों को अमरीका ने जब्री भारत वापिस भेजा है, उनके दर्द का अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल है। उनके सपने ही नहीं टूटे, बल्कि ज़िंदगी ही बिखर गई है। लेकिन जिस प्रकार इस काम को अमरीका ने अंजाम दिया है, वह कई सवाल खड़े करता है। उससे भारत सरकार कटघरे में खड़ी हो गई है। इस मामले में उठते सवालों में से सबसे पहला सवाल तो अमरीका द्वारा किये मानवाधिकारों के सरेआम उल्लंघन का है। बेशक यह अमरीका का अधिकार है कि वह अपने देश में आए ़गैर-कानूनी प्रवासियों को ‘डिपोर्ट’ (देश निकाला) करे, परन्तु इस प्रकार अमानवीय व्यवहार करना और उसको स्वीकार कर लेना किसी तरह भी ठीक नहीं। जिस प्रकार 104 भारतीयों को बेड़ियों और हथकड़ियों में जकड़ कर जहाज़ में बिठाया गया, वह न तो अमरीका को शोभा देता है और न ही भारत को यह स्वीकार करना चाहिए। हालांकि इन 104 भारतीयों में से शायद ही कोई ़गैर-कानूनी प्रवास के अलावा किसी अन्य आरोप में शामिल हुए हो। ऐसा व्यवहार तो कातिलों के साथ भी कम ही किया जाता है।
फिर यह भी नहीं कि जायज़ दस्तावेजों के बिना अमरीका में रह रहे भारतीयों को पहली बार वापिस भेजा गया है। अमरीका के इमिग्रेशन और कस्टम विभाग ने 2018 से 2023 तक 5477 भारतीय वापिस भेजे थे। 2024 में भी 1000 भारतीय वापिस भेजे गये पर वह सभी चार्टड या यात्री हवाई जहाज़ में भेज दिये गये। किसी को कोई हथकड़ी या बेड़ियां नहीं पहनाई गई थीं।
दूसरा सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर यह मानकर आये थे कि भारत सभी ़गैर-कानूनी प्रवासियों को वापिस लेने के लिए तैयार है तो क्यों अमरीका ने उनको वापिस भेजने के लिए अमरीकी वायु सेना का जहाज़ सी-17 गलोब मास्टर का प्रयोग किया। गौरतलब है कि यदि यह व्यक्ति किसी यात्री जहाज़ की ‘इकोनमी कलास’ में वापिस भेजे जाते तो इनकी टिकट का खर्च 365 अमरीकी डॉलर भाव 32000 रुपये प्रति व्यक्ति ही होना था। यदि ‘फर्स्ट क्लास’ की टिकट भी होती, तो भी करीब 75000 रुपये एक तरफ का खर्च है, पर यदि ‘चार्टड फ्लाइट’ भी ली जाती तो भी 2125 डॉलर प्रति व्यक्ति बनता है जो भारतीय रुपये में 1.82 लाख रुपये के करीब है, जबकि अमरीकी सेना के जहाज़ में प्रति व्यक्ति खर्च करीब 3500 डॉलर आया है, जो करीब 3 लाख रुपये है। स्पष्ट है कि आम से 10 गुणा खर्च बिना किसी मतलब से कोई नहीं करता। यह स्पष्ट इशारा करता है कि इस तरह सैन्य जहाज़ भेजकर अमरीका भारत को कई ओर संदेश भी देना चाहता है। वैसे तो यह किसी धमकी जैसा ही लगता है और यह भारत के स्वाभिमान पर चोट जैसा ही लगता है। बेशक कई बार विदेशी सैन्य जहाज़ भारत में उतरते हैं, पर वह या तो भारत के साथ साझी ‘वार ड्रीलें’ करने आते हैं या फिर कोई जब विदेशी देश के प्रमुख आते है, तब उनकी एयरफोर्स के जहाज़ आते हैं। हमें याद है कि जब चंद्रशेखर देश के प्रधानमंत्री थे, उस समय इज़रायल की मदद के लिए जाता एक अमरीकी जहाज़ भारत में तेल लेने के लिए उतरा था तो देश में इसके विरुद्ध हंगामा मच गया था। अमरीकी सैन्य जहाज़ का आना किसी धमकी से कम नहीं लगता। जब भारत अपने नागरिकों को वापिस लेने के लिए खुद ही तैयार है तो वह खुद ही उनकी वापसी का इंतज़ाम क्यों नहीं कर लेता? यह स्थिति भारत के स्वाभिमान भाव इज्ज़त-ए-ऩफस पर हमले के कम नहीं समझी जानी चाहिए।
इज्ज़त-ए-ऩफस से गड़ कर तो कोई चीज़ नहीं,
जो तुम्हे छोड़ कर जाये, उसे जाने देना।
(कोमल जोया)
भारत ने अमृतसर क्यों चुना?
हैरानी की बात यह भी है कि अमरीका द्वारा भेजे इस जहाज़ में 33-33 व्यक्ति गुजरात और हरियाणा के थे, पंजाब से 30 परन्तु जहाज़ को उतारने के लिए भारत सरकार ने अमृतसर ही क्यों चुना? इसके लिए दिल्ली या चंडीगढ़ ज्यादा अच्छे विकल्प थे, पर इस प्रकार अमृतसर में भी इस जहाज़ का उतरना इस प्रभाव को और पक्का करेगा कि सिर्फ पंजाबी ही ़गैर-कानूनी प्रवास कर रहे हैं, जबकि यह सच नहीं है, अमरीका में गुजराती पंजाबियों से कहीं ज्यादा हैं। वास्तव में इस तरह लगता है कि भारत सरकार ने ऐसा अंतर्राष्ट्रीय मीडिया से बचने की एक असफल कोशिश के तौर किया है, क्योंकि दिल्ली में तो लगभग यकीनी और चंडीगढ़ में भी विदेशी मीडिया इसको ज्यादा महत्व दे सकता था, पर अमृतसर भारत के एक कोने में स्थित है, पर अब जब संसद के बाहर विपक्ष के सांसदों ने बजट सत्र के बीच खुद को हथकड़ियां बांध कर प्रदर्शन किया तो इस प्रकार लगता है कि भारत सरकार की मामले को शांत रखने की कोशिश असफल हो गई है।
क्या है डंकी लगाकर जाना?
वास्तव में इस गैर-कानूनी प्रवास के सबसे भयानक रास्ते को ‘डंकी रूट’ कहना कैसे शुरू हुआ इसका कुछ पता नहीं लगता। हां, अंग्रेजी भाषा के शब्द ‘डंकी’ का मतलब गधा होता है, जो भार ढोने वाला जानवर है। शायद इस तरह अपने सिर और कंधों पर सामान उठाकर जंगलों, पहाड़ों और खतरनाक रास्तों से जाने के कारण इनको ‘डंकी’ कहा जाने लगा हो।
खैर, इस कथित ‘डंकी या डंकी रूट’ द्वारा भारत सहित कई अन्य पिछड़े देशों के लोग अमरीका, कनाडा या यूरोपियन देशों में जाते हैं। अमरीका में ़गैर-कानूनी रूप से जाने वाले लोग लतीनी अमरीका के उन देशों में पहुंचाये जाते हैं, जहां भारतीयों की या तो वीज़ा की ज़रूरत नहीं या वीज़ा आराम से मिल जाता है। इनमें इकवाडोर, बोलीविया, गुआना जैसे कई देश हैं जो फिर इनको ब्राज़ील और वेनेजुएला भेजा जाता है। यहां फिर मानव तस्कर इनको मैक्सिको ले जाते हैं और फिर आगे पहुंचाते हैं। जबकि कइयों को सीधा मैक्सिको ही भेजा जाता है। लतीनी अमरीकी देशों में से मानव तस्कर इनको कोलंबिया ले जाते हैं, जहां पनामा के जंगलों खासतौर पर खतरनाक डारीयन गैप जंगल में से निकाला जाता है, जो 65 मील लम्बा है, ज़हरीले सांपों से भरा यह इलाका आतंकी समूहों और लुटेरों का भी शरण स्थल है। यहां से निकलते महिलाओं के साथ दुष्कर्म होते हैं, लोगों को लूट लिया जाता है। कई बार मार भी दिया जाता है, परन्तु इनकी कोई भी शिकायत दर्ज नहीं होती। अमरीका से वापिस भेजे गये टांडा के सुखपाल सिंह ने भी टी.वी. पर बताया है कि उनके साथ क्या हुआ था? उसके अनुसार वह ऐसे रास्तों से निकले कि एक पैर फिसलते ही मौत हो सकती थी। फिर जो कोई रास्ते में जख्मी हो गया या किसी को कोई सांप ने दंश दिया तो उसको मरने के लिए वहीं छोड़ दिया जाता है। जो लोग मैक्सिको पहुंचते हैं, वे भी सीमा पर सख्ती होने के कारण रियो ग्राऊंड नदी द्वारा अमरीका पहुंचने के लिए जान हथेली पर रखते हैं। कुछ ऐसा ही हाल यूरोप जाने वालों का है, वह साइबेरिया के जंगलों में से निकलते हैं और रास्ते में बर्फ में अपने जैसों की लाखें देखते हैं। यह लोग एक और रास्ता तुर्की और सर्बिया आदि का भी अपनाते हैं।
एजेंटों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं ?
इस समय एक अनुमान के मुताबिक अमरीका में 2 लाख के करीब ़गैर-कानूनी भारतीय प्रवासी हैं, जिनमें से बड़ी संख्या में गुजराती और पंजाबी हैं। हालात यह हैं कि एजेंट ‘डंकी रूट’ को आसान करने के लिए दक्षिण अमरीकी देशों तक तो चार्टड फ्लाइटों से ले जाने लगे हैं। वह प्रति व्यक्ति 30 से 50 लाख रुपये ले रहे बताए जाते हैं। 2023 में एक चार्टड विमान तेल लेने के लिए फ्रांस उतरा था। फ्रांस के अधिकारियों द्वारा जांच करने पर पता चला था कि उसमें 303 भारतीयों को मध्य अमरीकी देश निकारागुआ ले जाता जा रहा था, जहां से आगे ‘डंकी रूट’ द्वारा अमरीका पहुंचाना था। वैसे तो बहुत पहले 1996 में हुआ मालटा किश्ती कांड भी कुछ ऐसा ही था, यह किश्ती बहुत सारे भारतीयों को यूरोप लेकर जा रही थी, जिसमें 283 लोग मारे गये थे, पर हैरानी की बात है कि अब भी इन एजेंटों के खिलाफ बड़ी कार्रवाई करने की कोई नीति न तो केन्द्र सरकार ने घोषित की है और न ही पंजाब सरकार ने अभी कोई कार्रवाई शुरू करने का फैसला किया है। खैर, यह अच्छी बात है कि इस समय संसद का बजट सत्र चल रहा है और विपक्ष ने मामला बड़े ज़ोर से उठाया है, जिसके कारण भारत के विदेश मंत्री को जवाब देना पड़ा है।
राज्यसभा में कांग्रेसी सांसद रणदीप सुरजेवाला ने तो यहां तक कहा है कि अमरीका में 7 लाख, 25 हज़ार ़गैर-प्रवासी हैं, पर यह सचमुच ही बहुत ही दर्द भरी बात है कि इन प्रवासियों को वक्त ने ऐसा धक्का मारा है कि वह सपनों की बात तो छोड़ो, मानसिक और आर्थिक तौर पर भी शीशे की तरह टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गये हैं।
वक्त ने हमें कुछ ऐसे है संग-सार किया,
टूट कर बिखर गये आईना-वारों की तरह।
-1044, गुरु नानक स्ट्रीट, समराला रोड़, खन्ना।
मो. 92168-60000