क्या फिर विदेश नहीं जाएंगे युवा ?
हमारे देश की वित्त मंत्री भारत देश का भारी भरकम बजट पेश कर चुकी हैं। अभी इस पर संसद में चर्चा शेष है। हमें बार बार यह विश्वास दिलाया जा रहा है कि भारत अब शीघ्र ही विश्व की तीसरी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। हमें यह भी कहा जा रहा है कि हमारा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) बहुत ज्यादा बढ़ गया है। भारतवासियों को भारत सरकार द्वारा यह भरोसा दिया जा रहा है कि अब अपने ही देश में महिलाएं, युवक रोज़गार प्राप्त कर सकेंगे और उन्हें रोटी कमाने के लिए नौकरी पाने के लिए विदेशों में नहीं जाना पड़ेगा। वैसे जो समझदार, शिक्षित युवक-युवतियां हैं वे शायद अब विदेश जाने का सोचेंगे भी नहीं। अमरीका ने तो यह कह दिया कि कला कौशल निपुण लोग अमरीका में आएं तो उनका स्वागत है, परन्तु अभी तो एक पक्ष यह है कि अर्थव्यवस्था में हम बहुत आगे हैं। मज़बूत देश है हमारा, मजबूत आर्थिक साधन हैं, परन्तु देश के युवा अपना घर, ज़मीन, मकान, सोना-चांदी बेचकर या कज़र् लेकर अपने देश को छोड़ने की तैयारी दिखाई देते हैं। बड़ा आश्चर्यजनक दृश्य होता है जब कोई माता-पिता मिठाई लेकर आते हैं, बांटते हैं और मिठाई बांटने का कारण यह बताते हैं कि उनके बेटे या बेटी को वीज़ा मिल गया या वह किसी दूसरे देश का पीआर बन गया, परन्तु कुछ ऐसे भी माता-पिता हैं जो संभवत: यह नहीं जानते कि डंकी मार्ग क्या होता है और वे भी खुशी से कह देते हैं कि उनके बच्चे लाखों रुपये देकर डंकी मार्ग से अमरीका जा रहे हैं। कनाडा, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड़ जाने वालों की भी कोई कमी नहीं है। किसी भी कीमत पर विदेश में जाना चाहते हैं और बहुत-से ऐसे हैं जो वहां पहुंच भी जाते हैं और रोटी कमाने के लिए या तो ट्रक चलाते हैं, खेतों में काम करते हैं, होटलों में खाना बनाने से लेकर बर्तन तक साफ करने का काम करते हैं। यह सब इसलिए लिखा जा रहा है कि जिस देश की अर्थव्यवस्था विश्व में तीसरे नंबर पर जाने की तैयारी में है, उस देश के युवा इतने बेबस, बेचैन या बेकार क्यों हैं कि उन्हें रोटी-रोज़ी की तलाश में जमीन, संपत्ति बेच कर तथा जान खतरे में डालकर दूसरे देश में जाने के लिए दौड़ लगानी पड़ रही है। देश की वित्त मंत्री जी से यह प्रश्न है कि अगर देश आर्थिक दृष्टि से बहुत समृद्ध हो गया है तो उन बेचारों की क्या स्थिति है जो पूरे दिन में 200 या 300 रुपया भी नहीं कमा पाते। जिस देश में न्यूनतम वेतन के लिए सरकार ने नियम बनाए हों। श्रम कानून के अनुसार काम के घंटे भी तय हों, उस देश के लाखों नहीं, करोड़ों लोग नहीं जानते कि यह अर्थव्यवस्था क्या है। वे बेचारे तो त्रिशंकु की तरह बीच में लटक रहे हैं, न उन्हें गरीबी रेखा के नीचे माना जाता है और न ही गरीबी रेखा से बाहर। उनके लिए तो वे ही भाग्यशाली हैं जो सरकारी आंकड़ों के अनुसार अस्सी करोड़ लोग मुफ्त में राशन प्राप्त कर रहे हैं। इन लोगों को पूरा वेतन भी नहीं मिलता और मुफ्त राशन भी नहीं मिलता। मुफ्त राशन देने वालों पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश ने जो कहा है वह हर जागरूक नागरिक और सरकार के लिए सोचने का विषय है।
देश की वित्त मंत्री से यह आग्रह है कि देश के हर व्यक्ति को इतना वेतन तो मिल जाए जिससे वह अपना और अपने बच्चों का ठीक से पालन कर सके। दवाई भी चाहिए और पढ़ाई भी। एक छत भी चाहिए, जिसके नीचे परिवार रह सके। क्या वित्त मंत्री को जानकारी है कि आटा 40 से 45 रुपये किलो तक पहुंच गया है, जो हर घर की ज़रूरत है। पांच बच्चों का परिवार चलाने के लिए कम से कम एक किलो आटा प्रतिदिन चाहिए, क्योंकि ये गरीब परिवार रोटी के अतिरिक्त कुछ नहीं खा सकते। चीनी, दालें महंगी हो गईं सरसों का तेल जो गरीब आदमी की रसोई की ज़रूरत है, वह भी लगभग 200 रुपये किलो हो गया। गैस का सिलेंडर तो एक हज़ार रुपये के आस-पास है। हां, दिल्ली की नई सरकार चुनावों से पहले जो वादा कर चुकी है कि हर महीने हर परिवार को एक सिलेंडर पांच सौ रुपये में मिलेगा, उनको शायद कुछ राहत मिल जाए, परन्तु बाकी देश के लोगों का क्या होगा?
चुनावी संकल्प में तो लोगों को एक बार भी यह नहीं कहा गया कि ऐसी सरकार बनाएंगे, ऐसा प्रशासन चलाएंगे जिससे किसी को मुफ्तखोरी की आदत न पड़े। अपनी कमाई से लोग खरीद करके ज़रूरतें पूरी कर सकें परन्तु आज स्थिति यह है कि राशन, बिजली, पानी के अतिरिक्त अन्य सुविधाएं भी सरकार दे देती हैं। क्या वित्त मंत्री यह व्यवस्था देंगी कि आटा व अन्य खाद्य पदार्थ सस्ते हों। देश की अर्थव्यवस्था पहले स्थान पर भी पहुंच जाए तो उन बेचारों को क्या मिलेगा जो इधर-उधर से उधार लेकर, मांगकर या फिर सरकारी मुफ्त राशन लेकर अपना परिवार पालते हैं। एक बार सरकार यह सुनिश्चित करे कि रसोई का सामान हर घर में पहुंच सके, इसकी व्यवस्था हो।