अनुमान के अनुसार ही रहे लुधियाना उप-चुनाव के परिणाम
वक्त और हालात पर क्या तबसिरा कीजे कि जब,
एक उलझन दूसरी उलझन को सुलझाने लगे।
(चन्द्र भान याल)
वास्तव में लुधियाना पश्चिम विधानसभा उप-चुनाव का परिणाम लगभग निश्चित-से अंदाज़ में ही निकला है। इस परिणाम में कुछ भी अद्भुत नहीं है। 30 मई के ‘अजीत समाचार’ के इसी कालम में लिखा गया था कि ‘आम तौर पर उप-चुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी की ही जीत होती है, क्योंकि उसके पास साधनों की बहुतायत होती है, राजसत्ता का दबाव तथा अफसरशाही का समर्थन भी आमतौर पर सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में ही जाता है। फिर आम लोग भी निजी तथा क्षेत्रीय लाभ के लिए सत्तारूढ़ पार्टी की ओर ही देखते हैं। परिणाम में भी बिल्कुल ऐसी ही घटित हुआ है। चाहे इसमें कांग्रेस पार्टी की आपसी फूट तथा भाजपा द्वारा देर से उम्मीदवार घोषित करने तथा भाजपा उम्मीदवार बारे पहला प्रभाव कि एक कमज़ोर उम्मीदवार उतारा गया है, आदि कारण भी सत्तारूढ़ पार्टी की जीत में सहायक हुए हैं। यह जीत एक रूटीन तथा निश्चित-सी जीत जैसी जीत है, परन्तु हां, जीत तो जीत होती है, चाहे वह किसी भी कारण या किसी तरह भी हुई हो। इसलिए जीत के अर्थों पर बहस करना कोई अधिक सार्थक बात नहीं, परन्तु कभी-कभी सत्तारूढ़ पार्टियों के लिए ऐसी जीत अगली बड़ी हार का आ़गाज़ भी बन जाती है। इसलिए सत्तारूढ़ पार्टी के लिए बात सिर्फ इस जीत से ही खत्म नहीं हो गई, अपितु कहानी तो अभी आगे चलनी है, क्योंकि यहां से जीते ‘आप’ उम्मीदवार संजीव अरोड़ा ने अब राज्यसभा सीट छोड़नी है। इस सीट से ‘आप’ का जीतना तो निश्चित ही है। यह अच्छी बात है कि ‘आप’ प्रमुख अरविंद केजरीवाल ने स्वयं ही घोषणा कर दी है कि वह इस सीट से राज्यसभा में नहीं जाएंगे। उल्लेखनीय है कि पहले पंजाब की सात राज्यसभा सीटों से जिन लोगों को राज्यसभा में भेजा गया था, उनमें से बहुत-से पंजाब से बाहर के रहने वाले थे। चार तो बड़े सम्पन्न लोग थे जिनका इससे पहले आम आदमी पार्टी से कोई स्पष्ट संबंध भी नहीं था। पंजाबी आमतौर पर इन राज्यसभा सदस्यों की कारगुज़ारी से निराश ही हुए हैं। हां, एक सदस्य विक्रमजीत सिंह साहनी चाहे वह भी पंजाब से बाहर के ही हैं, ने पंजाबी तथा पंजाबियत की आवाज़ को किसी सीमा तक बुलंद अवश्य किया है, परन्तु इनमें से अधिकतर तो पार्टी लाईन तथा पार्टी संघर्ष से भी दूर ही दिखाई दिए हैं। शायद वे अपने व्यापार के कारण भाजपा से भी नहीं बिगाड़ना चाहते। उल्लेखनीय है कि उस समय इन उम्मीदवारों में से कुछेक के चुनाव संबंधी (सभी नहीं) ‘पार्टी फंड’ के हस्तक्षेप के झूठे-सच्चे आरोप भी लगाए गए थे। ़खैर, वह बात तो पुरानी हो गई है, परन्तु जब पार्टी सुप्रीमो केजरीवाल ने उनके स्वयं राज्यसभा में जाने की चर्चा का स्पष्ट खंडन कर दिया है तो संजीव अरोड़ा द्वारा खाली की जाने वाली सीट से राज्यसभा में भेजे जाने वाले तीन सम्भावित नामों में से एक दिल्ली से संबंधित वरिष्ठ ‘आप’ नेता तथा दो अरबपति उद्योगपतियों के नाम चर्चा में हैं। ये आम आदमी पार्टी के सचेत होने का अवसर है कि वह पहले की गई गलती न दोहराए तथा राज्यसभा में कोई ऐसा पंजाब वासी भेजा जाए जो पंजाब, पंजाबी तथा पंजाबियत की बात दलील सहित पेश कर सकता हो और पार्टी का साथ देते समय भाजपा के दबाव में न आए। नहीं तो यदि इस बार फिर दिल्ली का कोई बड़ा ‘आप’ नेता या कोई अरब, खरबपति राज्यसभा में भेजा गया तो यह पहले लगे ‘झूठे-सच्चे’ आरोपों से सच्चे होने बारे एक परिस्थितिजनक सबूत जैसा ही प्रतीत होगा।
ये तेरी जीत तो निश्चित सी जीत थी लेकिन,
़ख्याल रखना कहीं आ़गाज़-ए-मात हो न यही।
(लाल फिरोज़पुरी)
भीतर की पकी बाहर
मेरे स्वर्गीय पिता डा. राम सिंह अक्सर कहा करते थे कि व्यक्ति के भीतर की पकी हुईं बाहर तो आती ही हैं। उनका अभिप्राय था कि व्यक्ति अपने मन की सोच को हालात के दृष्टिगत जितना मज़र्ी छिपा कर रख ले, परन्तु कभी न कभी जब स्थिति पूरी तरह उसकी पकड़ में होती है, तो अहंकारवश या जब स्थिति पूरी तरह सहनशीलता से बाहर हो जाती है तो गुस्से में उसका व्यवहार तथा भाषा एकाएक बदल जाती है और वह अपने मन की वास्तविक सोच की भांति ही व्यवहार करता है और उसके भीतर पकी हुई सोच बाहर आ जाती है। कुछ ऐसा ही भाजपा भी सिखों के प्रति अपने व्यवहार से बार-बार करती है। वास्तव में आर.एस.एस. की यह सोच है कि सिख ‘केशधारी हिन्दू’ ही हैं। इसलिए वे बेशक लाख बार कहते हैं कि हम सिखों को अलग कौम मानते हैं, परन्तु बार-बार उनका आचरण तथा व्यवहार यह दिखा देता है कि वे सिखों को हिन्दू ही मानते हैं, जो आमतौर पर अधिकतर सिखों को स्वीकार नहीं है। हालांकि सिख धर्म सर्व-सांझीवालता का धर्म है, ‘सरबत दा भला’ की अरदास करने वाला धर्म है तथा उसके लिए प्रत्येक प्राणी-मात्र परमात्मा का नूर है, उसके लिए गुरु साहिब का संदेश :
ना को बैरी नही बेगाना,
सगल संगि हम कउ बनि आई।
(अंग : 1299)
सबसे ऊपर है। यह भी ठीक है कि आर.एस.एस. तथा उसका राजनीतिक विंग भाजपा सिखों को अपना हिस्सा मानता है, परन्तु इसी बात से अधिकतर सिख घबराते हैं कि कहीं यह ‘अपनापन’ उन्हें भारत के बौध तथा जैन धर्म की भांति अपने विशाल समुद्र में समा ही न ले और उनकी अलग पहचान ही खत्म न हो जाए। ़खैर! ऐसी सोच का ही प्रकटावा एक बार फिर भाजपा की हरियाणा सरकार द्वारा जारी बाबा बंदा सिंह बहादुर के शहीदी दिवस पर जारी विज्ञापन में हुआ है, जो नि:संदेह बाबा बंदा सिहं बहादुर की शहीदी के सम्मान में जारी किया गया है। इस विज्ञापन में उनका नाम ‘वीर बंदा बैरागी’ लिखा गया है। वैसे समय की सितम-ज़रीफी देखो, इसी विज्ञापन में नीचे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का संदेश है जिसमें वह शुरुआत ही ‘बंदा सिंह बहादुर महान योद्धा थे’ से करते हैं।
उल्लेखनीय है कि बंदा सिंह बहादुर जो जम्मू-कश्मीर के पुंछ क्षेत्र के थे, का पहला नाम लछमण देव था। बाद में वह माधो दास बैरागी बने, परन्तु जब वह साहिब श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी के सम्पर्क में आए तो बाकायदा अमृतपान करके सिंह बने। गुरु साहिब ने उन्हें बंदा सिंह का नाम दिया और बहादुर का खिताब भी दिया। हालांकि कुछ स्थानों पर उनका नाम गुरब़ख्श सिंह भी लिखा मिलता है, परन्तु यह ‘महान कोश’ जैसे ग्रंथ में दर्ज होने के बावजूद पूरी तरह ठीक नहीं प्रतीत होता, क्योंकि इस नाम का ज़िक्र उनकी शहीदी से 150-200 वर्ष तक किसी इतिहास में लिखा नहीं मिलता।
उल्लेखनीय है कि श्री अकाल तख्त साहिब के कार्यकारी जत्थेदार ज्ञानी कुलदीप सिंह गड़गज्ज तथा शिरोमणि कमेटी के अध्यक्ष एडवोकेट हरजिन्दर सिंह धामी के विरोध के बाद हरियाणा सरकार ने यह नाम सोशल मीडिया पर डाली पोस्टों से तो हटा दिया है, परन्तु विज्ञापन तो ठीक नहीं हो सकता।
यहां भारत के महान कवि रबीन्द्र नाथ टैगोर की बाबा बंदा सिंह बहादुर के सम्मान में लिखी एक बांग्ला भाषी कविता का पहला बंद पाठकों के लिए पेश कर रहे हैं :
पजवशत्त सैन्य लये, बीर बहादुर सिंह
शत्रु-सैना सनमुखे, उड़े पताका उच्च,
नाहिं भय, नाहिं डर, मृत्यु जय करे
स्वाधीनतार पथे तारा, बलि हयै पड़े।
अर्थात् ‘500 सैनिकों के साथ वीर बहादुर सिंह (बंदा सिंह बहादुर) दुश्मन की सेना के सामने ऊंचा ध्वज लहराने वाला, न उसे कोई भय, न डर, वह मौत को जीत ले, आज़ादी के राह पर वह अपना बलिदान दे गया’, से स्पष्ट है कि टैगोर जैसा महान कवि तथा पंजाब से हज़ारों मील दूर रहने वाला व्यक्ति भी उसके सिख होने का साक्षी बनता है। इसलिए हमारी भारत सरकार तथा भाजपा की शेष राज्य सरकारों के साथ-साथ आर.एस.एस. के विचारकों से निवेदन है कि वे कभी-कभी ऐसे शोशे छोड़ कर सिखों के मन में बसी सिखी को जैन तथा बुद्ध धर्म की भांति हिन्दू धर्म में शामिल करने करने के भय को और पक्का न किया करें, क्योंकि इस तरह करना आपकी ओर से सिखों तथा उनके पूर्वजों के प्रति दिखाए वास्तविक सम्मान को भी संधिग्ध बना देता है, क्योंकि असली बात किसी बाण की गति की नहीं हो सकती, अपितु बाण से लगे घाव की होती है।
तबसिरा ़खूब यहां तीर की ऱफ्तार पे है,
तज़किरा कौन करे ज़ख्म की गहराई का।
(अज़हर नवाज़)
(तबसिरा-समीक्षा, तज़किरा-ज़िक्र)
दलजीत दोसांझ की फिल्म
दलजीत दोसांझ की फिल्म ‘सरदार जी-3’ को भारत में रिलीज़ न करने देने का देश-भक्ति से क्या संबंध है, समझ से बाहर है। पाकिस्तानी अभिनेत्री हानिया आमिर को फिल्म में भारत-पाकिस्तान तनाव से पहले लिया गया था। इस प्रकार का प्रभाव है कि इस पाबंदी की मांग के पीछे राजनीति अधिक है। यह पंजाबी भाषा तथा संस्कृति पर हमले की भांति प्रतीत होता है, क्योंकि इस फिल्म में देश-विरोधी तो कुछ भी नहीं। यदि पाकिस्तानी अभिनेत्री के नाम पर कोई आपत्ति है भी तो वह नाम स्टार कास्ट में लिखने से रोका जा सकता है, परन्तु फिल्म भारत में रिलीज़ ही न होने देना कलाकारों की सृजनात्मक आज़ादी को ही ठेस नहीं पहुंचाता, अपितु पंजाबियों में बेगानगी की भावना भी पैदा करता है। उल्लेखनीय है कि भारत तथा कनाडा के संबंध चाहे आजकल ज़्यादा दोस्ताना नहीं हैं, परन्तु कनाडा की टोरंटो मैट्रोपोलिटन यूनिवर्सिटी ‘दलजीत दोसांझ के विश्व पर सांस्कृतिक एवं संगीतक प्रभाव’ संबंधी एक कोर्स शुरू कर रही है। कनाडा सरकार को तो इस पर कोई आपत्ति नहीं कि एक भारतीय की कला बारे कोर्स क्यों शुरू किया जा रहा है। इसलिए भारत सरकार को भी विनय है कि इस फिल्म को खुले मन से चलाने की अनुमति दे। यह देश के प्रति सम्मान तथा प्यार बढ़ाएगी, न कि किसी कौमियत में देश के प्रति कुछ गलत सोच पैदा करेगी :
कुरबतें अपनी जगह हैं, फासले अपनी जगह,
राहतें अपनी जगह हैं, हादसे अपनी जगह।
(कैसर अज़ीज़)
-मो. 92168-60000