आपातकाल की कड़वी याद
तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा 25 जून, 1975 को देश में आपातकाल लगाने का आदेश जारी किया गया था। 21 महीनों तक आपातकाल का यह दौर चला था। उस समय देश के लिखित संविधान को ताक पर रख दिया गया था। संविधान में मिले लोगों के अधिकारों को दबा दिया गया था। मीडिया पर प्रत्येक तरह के प्रतिबन्ध लागू कर दिए गए थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, जिन्होंने स्वयं भी इसके विरोध में भाग लिया था, ने इस दौर को हिन्दुस्तान के लोकतंत्र के इतिहास का एक काला अध्याय कहा है।
इस दिन लोगों के मौलिक अधिकार खत्म कर दिए गए थे। पत्रकारों के साथ देश भर में ज्यादातर विपक्षी दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं को भी नज़रबंद कर दिया गया था। जिन्होंने इस समय को भोगा है, वे उस समय की घुटन जानते हैं। इसका काला साया अभी तक उनके साथ चलता दिखाई देता है। उस समय हुए सरकारी अत्याचारों की सूची बहुत लम्बी है। श्रीमती गांधी ने दो अंतरालों में देश का लम्बी अवधि तक शासन किया है। इस समय में ही वर्ष 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध हुआ। भारत ने उस समय पूर्वी पाकिस्तान में चली स्वतंत्रता की लड़ाई में अपना योगदान डाला था और पाकिस्तान से अलग होकर एक नया देश बांग्लादेश अस्तित्व में आ गया था। श्रीमती गांधी के समय सिक्किम जो एक अलग देश था, का भी भारत में विलय हुआ था।
श्रीमती गांधी की विदेश नीति कई पक्षों से बड़ी प्रभावशाली थी। अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत के प्रभाव को स्वीकार किया जाता था, परन्तु उनके शासन के समय दो ऐसी घटनाएं घटित हुईं जो भारतीय इतिहास के दो अहम कांड बन गईं। एक थी 26 जून, 1975 को श्रीमती इंदिरा गांधी की ओर से ऑल इंडिया रेडियो पर आपातकाल लगाने की घोषणा करना और दूसरी बड़ी घटना जोकि सिख इतिहास का भी अहम भाग बन चुकी है, वर्ष 1984 में श्री दरबार साहिब पर उनकी सरकार द्वारा हमला करना। इन दोनों घटनाओं से हुए नुक्सान की पूर्ति कभी भी नहीं की जा सकेगी। चाहे श्रीमती गांधी ने 21 मार्च, 1977 को आपातकाल हटाने की घोषणा कर दी थी परन्तु उस समय की बेहद कड़वी यादें आज तक भी लोगों के मन में ताज़ा हैं। इंदिरा गांधी पर परिवारवादी होने का आरोप भी लगता रहा था। उस समय उनके छोटे बेटे संजय गांधी ने जिस तरह का रवैया धारण किया और जिन कार्रवाइयों को अंजाम दिया, वे अभी तक भी लोगों की स्मृतियों में बसी हुई हैं।
आपातकाल के इस दौर के बाद वर्ष 1977 में हुए चुनावों में कांग्रेस की बेहद नमोशीजनक हार हुई थी। उस समय जनसंघ, कांग्रेस (ओ), सोशलिस्ट पार्टियां और भारतीय लोक दल आदि ने एकजुट होकर जनता पार्टी का गठन किया था और मोरारजी देसाई आज़ादी मिलने के बाद भारत के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बन गए थे। लालू प्रसाद यादव, जार्ज फर्नांडीज़, अरुण जेतली और राम विलास पासवान जैसे नेता उभरे, जिनका लम्बी अवधि तक देश में प्रभाव बना रहा, परन्तु दो वर्ष की अवधि में ही जनता पार्टी की सरकार टूट गई थी। आज भी कांग्रेस पार्टी श्रीमती गांधी के समय हुई इन दो बड़ी घटनाओं के लिए रक्षात्मक स्थिति में खड़ी दिखाई देती है।
नि:संदेह यह समय भारत को देश में पुन: स्थापित हुए संवैधानिक नैतिक-मूल्यों का स्मरण करवाता रहेगा। यदि आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार इस समय के लिए कांग्रेस को दोषी ठहराती है तो उनकी अपनी सरकार की देश के लोकतांत्रिक नैतिक-मूल्यों की प्रत्येक पक्ष से रक्षा करने की ज़िम्मेदारी में और भी वृद्धि हो जाती है, क्योंकि उनकी सरकार पर भी सत्ता के केन्द्रीयकरण, लोकतंत्र और प्रैस की आज़ादी को सीमित करने संबंधी विपक्षी दलों द्वारा आरोप लगाए जा रहे हैं।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द