चीन यात्रा के अनुभव और भारत से तुलना 

चीन की दस दिन की यात्रा में यह विशाल देश बहुत अधिक देखना संभव नहीं था, लेकिन सीमित समय में जो कुछ देखा और समझ में आया, उससे तुलना करने पर काफी कुछ ऐसा लगा जो समान था जैसे कि आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियां और जहां तक राजनीति की बात है तो यह कम्युनिस्ट विचारधारा पर चलने वाला देश है तथा एक ही दल के शासन का प्रतीक है। 
तुलनात्मक अध्ययन : हमारा देश ब्रिटिश शासन से वर्ष 1947 में मुक्त हुआ तो चीन ने सन् 1949 में राजशाही, सामंती व्यवस्था और ग्रह युद्ध से मुक्ति पाई और चीनी गणराज्य की स्थापना हुई। हमारी लड़ाई एक ओर अंग्रेज़ों से थी तो दूसरी ओर राजा महाराजाओं के शासन से, जिसकी कहानी अधिकतर अत्याचार, उत्पीड़न और अंग्रेज़ी हुकूमत से मिलकर देशवासियों को गुलाम बनाये रखने की थी। चीन में चियांग काई शेक ने देश को जोड़ने की कोशिश की तो भारत में सरदार पटेल ने सभी रियासतों को स्वतंत्र भारत में जोड़ने की कठिन भूमिका निभाई।
कह सकते हैं कि चीन में माओ युग और भारत में नेहरू-पटेल युग का आरंभ हुआ। हमारे यहां ज़मींदारी प्रथा का अंत हुआ, भू-दान आंदोलन और स्वयं अपनी ज़मीन देने की मुहिम चली तो चीन में भूमि सुधार के नाम पर ज़मींदारों से ज़मीन छीनकर किसानों में बांटी गई। जिसने आनकानी की, उसकी हत्या कर दी गई या कैद में डाल दिया। उसके बाद वहा कोरियाई युद्ध हुआ तो हमने चीन और पाकिस्तान से जंग लड़ी। चीन ने सोवियत रूस शैली अपनाकर पंच वर्षीय योजना बनाई और 1954 में नया संविधान अपनाया। हमने भी 1950 में भारतीय संविधान अपनाकर देश का विकास करने की ठानी। चीन में समाजवाद को बढ़ावा और पूंजीवाद को नकारना शुरू हुआ। उद्योगों का राष्ट्रीयकरण और सामूहिक कृषि पर ज़ोर दिया गया। भारत में भी पंचायती राज व्यवस्था शुरू हुई। बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ और इसके साथ ही सार्वजनिक उपक्रम (पीएसयू) स्थापित हुए और सरकार ने लगभग सभी क्षेत्रों को सरकारी दायरे में ला दिया। 
भूल कहां हुई : नेहरू और उनके मंत्रिमंडल ने मिलकर देश को जहां एक तरफ आधुनिक और लोकतांत्रिक व्यवस्था से विकसित करने की कोशिश की वहीं दूसरी तरफ यह भूल गए कि इन राष्ट्रीय संस्थाओं और संसाधनों का इस्तेमाल कैसे किया जाए, उन्होंने इन संस्थानों के मुखिया अपनी पार्टी से जुड़े नेताओं को बना दिया जिन्होंने लूट-खसोट और भ्रष्टाचार के नए कीर्तिमान स्थापित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। नतीजे के तौर पर कुछेक अपवादों के साथ सभी पीएसयू घाटे की भेंट चढ़ने लगे। हमारे जो प्रतिभाशाली विज्ञानी थे, वे वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) की प्रयोगशालाएं छोड़कर पश्चिमी देशों में डेपुटेशन या पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति पर उन देशों में चले गए और वहां अपने ज्ञान से उन देशों को समृद्ध और टेक्नोलॉजी संपन्न बनाने लगे। यही हश्र भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) और उसके अंतर्गत स्थापित प्रयोगशालाओं का हुआ। खेतीबाड़ी और कृषि उपज में सुधार के लिए जो तकनीक विकसित की गई, उसे किसान तक पहुंचाने का प्रयास न होने से आज तक हम कृषि के पुराने तरीके अपना रहे हैं। इसके विपरीत चीन ने अपने नागरिकों को आधुनिक और विज्ञानी सोच का पाठ पढ़ाया, अपनी बनाई टेक्नोलाजी के इस्तेमाल का पुख्ता इंतज़ाम किया और इतनी होशियारी बरती कि दुनिया को उसका सुरक्षा कवच भेदना असंभव हो गया। चीन ने दुनिया के लिए अपने दरवाज़े खोले और विदेशी निवेश को बढ़ावा दिया लेकिन अपने हितों की कीमत पर नहीं। आज भी चीन आसानी से अपने यहां बसने नहीं देता लेकिन जो बस गया, वह वापिस लौटने के बारे में नहीं सोचता। भारत से जो लोग वहां रेस्टोरेंट और अन्य व्यापारिक क्षेत्रों में काम कर रहे हैं, वे ख़ुश हैं और अपने परिवार और रिश्तेदारों को यहां आने का न्यौता दे रहे हैं। चीन में नकली कारोबार शुरू हुआ। जैसे भारत में इंस्पेक्टर राज का बोलबाला था, वैसे ही वहां भी विकास के झूठे आंकड़े पेश किए जाने लगे और भ्रष्टाचार का बोलबाला। गरीबी, भुखमरी इतनी बढ़ी कि हाहाकार मच गया। माओ और चाऊ एन लाई ने बहुत कोशिश की लेकिन कुछ हद तक ही सफलता मिली। सन् 1975-76 तक चीन का बुरा हाल था। उसके बाद इस देश ने ऐसी करवट ली कि पूरी दुनिया देखती रह गई।
सब से पहले शासकों ने चीनी महिलाओं को सक्षम बनाने का काम किया। वे अत्याचार सह कर बुज़दिल और डरपोक बन गयीं थीं। माओ और उनकी टीम ने पहले उनका डर खत्म किया, उन्हें घरों से बाहर निकलने का आह्वान किया। आज हर क्षेत्र में महिलायें वे सभी काम करती हैं जो पुरुष करते थे। भारत में अभी भी महिलाएं असुरक्षित, अशिक्षित और असहाय तथा मौलिक अधिकारों तक से वंचित हैं, उन्हें हर काम के लिए पुरुष की अनुमति चाहिए। 
विकास की तेज रफ्तार : चीन में बुलेट ट्रेन और मैग्लेव ट्रेन ने देश की कायापलट कर दी। सड़कों, पुलों का जाल बुना। रेल यात्रा के दौरान कल कारखानों की कतार और बहुमंज़िला इमारतें दिखाई देती हैं जो इसकी भव्यता दर्शाती हैं। सन् 2002 से 2012 तक हू जिंताओ और उसके बाद शी जिनपिंग सत्ता में हैं। इस दौरान चीन भ्रष्टाचार मुक्त हुआ, कानून व्यवस्था इतनी कड़ी कि चीनी यह बताते नहीं रुकते कि उनके देश में चोरी-चकारी नहीं होती, स्त्री या पुरुष किसी भी समय बेखटके कहीं भी आ जा सकते हैं, कुछ कहीं खो गया तो कुछ ही समय में पुलिस आपके घर तक पहुंचा देगी। 2010 में चीन ने अर्थव्यवस्था के मामले में जापान को पीछे छोड़ दिया। 2013 तक हाई स्पीड रेल नेटवर्क बना। भ्रष्टाचार के लिए 15 लाख अधिकारियों को सज़ा दी गई जिनमें कई बड़े जनरल थे। प्रदूषण पर लगाम लगी। एआईए आईटी इंफ्रास्ट्रक्चर, 5 जी, सेमीकंडक्टर के क्षेत्र में चीनियों ने पूरे विश्व को चौंका दिया। 
जहां तक भारत की बात है, 2014 से भाजपा की सरकार है और इसने देश को सुस्ती से मुक्ति दिलाने में अहम योगदान दिया है, लेकिन चीन से तुलना करने पर लगता है कि इतना काफी नहीं है और जिस गति से काम होना चाहिए, वह नहीं हो रहा। देश को उम्मीद थी कि बुलेट ट्रेन आएगी, हरेक मौसम में इस्तेमाल करने लायक सड़कें बनेंगी और संचार क्रांति अपना रंग दिखाएगी, लेकिन कहना होगा कि चाहे कितने भी दावे कर लीजिए, रिश्वतखोरी कम नहीं हुई, अशिक्षा, बेरोज़गारी और प्रदूषण में कमी नहीं आई। कोई भी देश उद्योग और कृषि विकास के बिना तरक्ती नहीं कर सकता लेकिन हमारे यहां यह दोनों ही उपेक्षा और दशकों पुराने नियमों तथा राजनीतिज्ञों के निजी स्वार्थ के कारण दुर्दशा के शिकार हैं।
अगर हम चीन से दोस्ताना संबंधों की बात करें तो यह व्यर्थ होगा, इसके स्थान पर व्यापारिक और टेक्नोलॉजी के आदान-प्रदान को ध्यान में रख कर समझौते, लंबे करार और सहयोग की विचारधारा को बढ़ावा देकर चीन से हाथ मिलाना श्रेयस्कर होगा। चीन से एक ही बात सीखी जा सकती है कि सही नेतृत्व ही विकास की कुंजी है।

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