पंजाब बहु-पक्षीय संकट के दौर में 

पंजाब का सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संकट पिछले चार दशकों से लगातार गहराता जा रहा है, जिसका समाधान करने के बजाय, सत्ताधारी दल इससे सदा विमुह रहे हैं। सत्ता में बने रहने के लिए, पार्टियों ने एक-दूसरे पर दूषणबाज़ी करके लोगों को गुमराह करने लगी हुई हैं। लोगों ने एक के बाद दूसरे और दूसरे के बाद तीसरे दल को इस उम्मीद से सत्ता में लाया था कि वे कुछ अलग करेंगे, लेकिन लोगों की उम्मीदें पूरी नहीं हुईं। सत्ता से बाहर सामाजिक लहर हमेशा से पंजाब में सक्रिय रही है और सरकार पर लोगों की समस्याओं का समाधान करने के लिए दबाव डालती रही है। लेकिन इस मौके पर सामाजिक आंदोलन गुटों और मुद्दों पर इतना बंटा हुआ है कि वह सरकार पर दबाव जालने में समर्थ नहीं है। सत्ताधारी दलों के अधिकांश नेताओं ने विभिन्न माफिया से हाथ मिला लिया है, उच्च अधिकारी और पुलिस अधिकारी भी इस गठजोड़ में भागीदार बन गए हैं। ये सभी लोगों को लूटने के अलावा उन्हें गुमराह भी कर रहे हैं। इसके कारण अन्य राज्यों की तुलना में पंजाब के आर्थिक पिछड़ेपन ने नई समस्याएं पैदा की हुए हैं और राज्य आर्थिक और सामाजिक समस्याओं का शिकार हो गया है।
1980 के दशक में हरित क्रांति के फीका पड़ने पर कृषि में गतिरोध और पर्यावरण क्षरण शुरू हो गया। ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोज़गारी की बढ़ती समस्या के कारण युवाओं में असंतोष बढ़ा, लेकिन सरकार ने इस असंतोष से निपटने के बजाय सरकारी हिंसा से उपजी हिंसा को कुचलने की कोशिश की, जिससे राज्य एक गंभीर राजनीतिक संकट में फंस गया। लगभग 10 वर्षों की राज्यपाल/केंद्र शासन ने राज्य प्रशासन की प्राथमिकता विकास से हटाकर कानून-व्यवस्था की बहाली पर केंद्रित कर दी थी। उस समय पुलिस अधिकारियों को फर्जी पुलिस मुठभेड़ करने की जो छूट दी गई थी, वह खाड़कू हिंसा समाप्त होने के बाद भी जारी रहने के कारण पंजाब को पुलिस राज बनाए रखने के कारण काफी उलझनें बढ़ गईं। इसके कारण शांति-व्यवस्था बनाए रखने के बजाय पुलिस ने इस छूट का इस्तेमाल लोगों पर अत्याचार करके और भ्रष्टाचार करके धन उगाही के साधन बना लिया। एक ओर झूठे मामले बनाए जा रहे हैं और दूसरी ओर असली मामलों को रफा-दफा करके लोगों को लूटा जा रहा है। नशा तस्करों को संरक्षण दिया जा रहा है और उनसे जबरन वसूली की जा रही है। गैंगस्टर खुलेआम लोगों से फिरौती मांग रहे हैं और व्यापारियों को डरा-धमका रहे हैं। पंजाब की जवानी को नशे की ओर धकेलने में पुलिस तंक्ष और खासकर उच्च अधिकारियों की भूमिका जग जाहिर हो चुकी है। डीआईजी हरचरण सिंह भुल्लर के घर से भारी मात्रा में मिले नकदी, सोना और संपत्ति के दस्तावेजों से इसकी पुष्टि हो गई है। इससे पहले भी कुछ अन्य पुलिस अधिकारियों के खिलाफ मामले और शिकायतें दर्ज होने के बाद अनेक के रूपोश हो जाने से पुलिस की छवि धूमिल हुई है। इससे पहले पंजाब लोक सेवा आयोग के चेयरमैन रवि सिद्धू के घोटाले ने 2002 में ही राज्य में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर कर दिया था। सिविल अफसरशाही भी इस मामले में पूरी तरह फंसी हुई है, कई पीसीएस और आईएएस अधिकारियों के नाम मीडिया में लगातार सामने आ रहे हैं। सत्ताधारी दलों के नेता माफिया, पुलिस और सिविल अधिकारियों को संरक्षण प्रदान करते हैं। इसी कारण नेताओं और अधिकारियों के कारोबार और संपत्तियां तेजी से बढ़ रही हैं। 
इस जनविरोधी गठबंधन के कारण कर भी अपेक्षित स्तर पर एकत्र नहीं हो पाता है। व्यापारी वर्ग से कर चोरी अधिकारियों और सत्ताधारी दलों के नेताओं की मिलीभगत और संरक्षण से करवाई जाती है। इस वजह से पंजाब टैक्स और आय अनुपात के मामले में देश में सबसे पीछे चल रहा है। दूसरी ओर सम्मन्न को मुफ्त सुविधाएं दी जा रही हैं, जिनकी पूर्ति के लिए राज्य सरकार लगातार बैंकों से कज़र् ले रही है। राज्य पर कज़र् का बोझ भारी होता जा रहा है, जो मार्च 2026 तक 4 लाख करोड़ रुपये से अधिक हो जाएगा। राज्य के बजट का लगभग एक तिहाई हिस्सा कज़ के ब्याज और मूल किस्त चुकाने में चला जाता है। सरकार दशकों से विकास और रोज़गार के लिए वित्तीय संसाधनों की कमी का सामना कर रही है। पंजाब 1992-93 में प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से देश के राज्यों में पहले स्थान से फिसलकर 2022-23 में 14वें स्थान पर आ गया है। वित्तीय संसाधनों की कमी ने शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं को प्रभावित किया है। 1980 के दशक में राज्य के कुल बजट का 23-24 प्रतिशत शिक्षा क्षेत्र पर खर्च होता था, जो घटकर केवल 12-13 प्रतिशत रह गया है। इसके कारण शिक्षण संस्थान, सरकारी स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय वित्तीय संकट के शिकार होकर हांफ रहे हैं। 1980 के दशक में सरकार स्वास्थ्य क्षेत्र पर बजट का 12-13 प्रतिशत खर्च करती थी, जो 2022-23 में घटकर 5-6 प्रतिशत रह गया है। सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की विफलता के कारण गरीब लोग इलाज से वंचित हैं, वहीं दूसरी ओर लोग निजी अस्पतालों की लूट का भी शिकार हो रहे हैं।
पंजाब में बेरोजगारी दर देश की तुलना में काफी अधिक होने के कारण राज्य के युवा विदेशों की ओर पलायन कर रहे हैं। लेकिन विकसित देश खासकर अमरीका, कनाडा और ब्रिटेन प्रवास पर प्रतिबंध लगा रहे हैं। राज्यों की स्वायत्तता का संघीय गला घोंटने के साथ-साथए केंद्र सरकार पंजाब के खिलाफ  गैर-सैद्धांतिक फैसले ले रही है। पुराने मुद्दे—चंडीगढ़ का विवाद, पंजाब से बाहर पंजाबी भाषी क्षेत्र और नदी जल का उचित वितरण लंबित हैं और कई अन्य मुद्दे पैदा कर दिए गए हैं जैसे—बीएसएफ के लिए सीमा क्षेत्र की परिधि 5 किमी से बढ़ाकर 50 किमी करना, वाघा सीमा से व्यापार रोकना, भाखड़ा-ब्यास प्रबंधन से पंजाब को बाहर करना, हेडवर्क्स पर केंद्रीय बलों की तैनाती करना, पंजाब के ग्रामीण विकास कोष को रोकना आदि। केंद्र सरकार का राज्य में हस्तक्षेप बढ़ गया है, लेकिन वह कोई भी ज़िम्मेदारी निभाने से इन्कार करती है। इस वर्ष नदियों में आई बाढ़ के दौरान पंजाब के लोगों के हुए नुकसान के समय केंद्र सरकार पंजाब में मंत्री भेजकर नाटक करती रही है। पंजाब की नदियों द्वारा 5000 एकड़ से अधिक भूमि के कटाव के बाद सरकार ने किसानों की मदद के लिए कोई पहल नहीं की है। पंजाब की सत्ताधारी पार्टी और मुख्य विपक्षी दल मुँह खोलने को तैयार नहीं हैं, जन-हितैषी वामपंथी दल पंजाब के मुद्दों को प्रभावी ढंग से उठाने में सक्षम नहीं हैं। इसलिए पंजाब के भविष्य पर ध्यान देने और पंजाब की  मदद करने वाली ताकक का अभाव बहुत खटकता है।
इन मुद्दों पर पंजाब विश्वविद्यालयों के शोधकर्ताओं ने  अनगिनत रिपोर्ट, शोध पत्र और किताबें लिखी हैं और सुझाव दिए हैं। कई समितियों ने भी सरकार को रिपोर्ट सौंपी हैं। किसानों के मुद्दों के समाधान के लिए, पंजाब राज्य किसान और श्रमिक आयोग ने कृषि नीति का एक मसौदा तैयार करके तीन बार (2013, 2018 और 2025) सरकार को सौंपा, परन्तु सरकार ने इन मसौदों को कैबिनेट में पेश नहीं किया, क्योंकि ये मसौदे और रिपोर्टें सामाजिक न्याय और जन-कल्याण को ध्यान में रख कर लिखे गए हैं। सत्तारूढ़ दलों की सरकारें इस दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करतीं क्योंकि ये दल धनाढ्यों के नियंत्रण में हैं और उनकी सोच व विश्वास कॉर्पोरेट-समर्थक नीतियों में निहित है। वर्तमान सरकार ने आर्थिक नीतियों और विकास कार्यक्रमों के लिए बोस्टन समूह के विशेषज्ञों को नियुक्त किया है, जिनकी सलाह पर भूमि-पूलिंग नीति और सरकारी व सार्वजनिक संस्थानों की ज़मीन बेच कर वित्तीय संसाधन जुटाने जैसे अप्रासंगिक कार्यक्रम तैयार किए जा रहे हैं। जब सरकारें जनता के विरुद्ध निर्णय लेने के लिए बज़िद हों तो जन-संगठनों की एकजुटता और संयुक्त आंदोलन ही एकमात्र विकल्प रह जाता है।

-मो.  98550-82857

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