विपक्ष के पास भाजपा की चालों का कोई मुकाबला नहीं
बिहार में एनडीए ज़बरदस्त बहुमत प्राप्त कर चुका है। दिलचस्प बात यह है कि तेजस्वी यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (आर.जे.डी.) लगभग 23 प्रतिशत वोट प्राप्त करके प्रदेश में सबसे ज्यादा वोट पाने वाली पार्टी बनी हुई है। तकरीबन इतने ही वोट उसे 2020 में मिले थे लेकिन उसकी सीटें कम होकर (25) रह गई हैं। भाजपा ने लगभग 21 प्रतिशत वोट पा कर सबसे ज्यादा (89) सीटें जीत चुकी है, और जद-यू 19 प्रतिशत वोट पा कर (85) सीटों के साथ दूसरी सबसे बड़ी पार्टी रही है। यह मानना गलत होगा कि बिहार की राजनीति यहां खत्म हो गई है। बल्कि राजनीति तो यहां से शुरू हो सकती है। मतगणना के दिन दोपहर 1:22 बजे, जनता दल-यू ने ‘एक्स’ पर एक पोस्टिंग की थी। इसमें पृष्ठभूमि में बिहार का नक्शा था, और अग्रभूमि में नितीश कुमार की हाथ जोड़े हुए तस्वीर थी। ऊपर लिखा था: न भूतो, न भविष्यति, नितीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री थे, हैं और रहेंगे। इस पोस्ट को 5 हज़ार लोग भी नहीं देख पाये थे कि यह ट्वीट डिलीट कर दिया गया है। इसका क्या मतलब हो सकता है?
पटना में मुख्यमंत्री आवास पर अर्धसैनिक बलों की तैनाती कर दी गई है। उनकी मर्जी के बिना कोई बाहर-भीतर नहीं जा सकता था। इस कार्रवाई की वजह राजद के नेता सुनील सिंह ने नेपाल जैसे ‘जेनज़ी’ वाले हालात लाने की धमकी दी थी, लेकिन सवाल यह है कि यह तैनाती केवल मुख्यमंत्री आवास पर ही क्यों हुई? एक दिन पहले एक टीवी चैनल पर डिबेट के बाद जब मैंने एक अनौपचारिक टिप्पणी की कि नितीश को मुख्यमंत्री बनाने के लिए तैयार हो जाएंगे, तो एक एनडीए के एक घटक दल के प्रवक्ता ने मेरे कान में कहा था कि हम लोग उनकी नाकेबंदी कर देंगे और न कोई अंदर जा सकेगा, न ही बाहर जा सकेगा। ज़ाहिर है कि अभी यह पक्का नहीं हुआ है कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा। नितीश ने शानदार प्रदर्शन किया, लेकिन भाजपा उनसे वोट प्रतिशत और सीटों में आगे है। इस बार उनका मुख्यमंत्री बनना पिछली बार की तरह आसान नहीं लग रहा है।
अब आइए चुनावों की समीक्षा करें। सबसे पहले चुनाव आयोग की भूमिका के बारे में बात करें तो मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने प्रेस कांफ्र्रैंस करके बताया था कि बिहार में एसआईआर के बाद कुल 7.42 प्रतिशत वोटर हैं लेकिन चुनाव में मतदान होने के बाद आयोग की प्रैस रिलीज़ बताती है कि दोनों चरणों में मिला कर 7,45,26,858 वोटरों ने मतदान किया। क्या यह सवाल नहीं उठता कि एसआईआर के बाद अंतिम मतदाता सूची के प्रकाशन के बाद अभी कुछ ही दिन हुए हैं, 3 लाख वोटर कैसे बढ़ गए? इन रहस्यमय ढंग से बढ़े हुए 3 लाख वोटरों ने किसे वोट दिया? दूसरा सवाल यह है कि चुनाव आयोग ने कैसे और क्यों भारतीय जनता पार्टी को सारे देश से एक अनुमान के अनुसार करीब 50 लाख वोटर विशेष ट्रेनों और दूसरे साधनों से बिहार लाने दिये। चार ट्रेनों का भंडाफोड़ तो कपिल सिब्बल की प्रेस कांफ्रैंस में हो चुका है। दो ट्रेनें करनाल से और दो ट्रेनें गुरुग्राम से चलीं, हर एक में डेढ़-डेढ़ हज़ार वोटर घोषित रूप से भाजपा के खर्चे से बिहार भेजे गए। ये छह हज़ार वोटर तो हांडी के एक चावल की तरह हैं। भाजपा ने सारे देश में प्रदेश के बाहर रहने वाले बिहारियों पर एक वोटर के हिसाब से 4000 रुपए औसतन खर्च किये हैं। इस तरह लाखों वोटर लाये गए, उनसे वोट डलवाए गए, मतदान प्रतिशत बढ़ाए और एनडीए की अभूतपूर्व जीत हुई। तीसरा सवाल यह है कि एसआईआर के दौरान एक अनुमान के तहत एक निर्वाचन क्षेत्र के स्तर पर 5 से 6 हज़ार वोट काटे गये। इनमें से ज़्यादातर मुसलमानों, यादवों और मल्लाहों के थे। इस कटौती में भजपा के पन्ना प्रमुख और एआरओ की मिलीजुली भूमिका समझी जा सकती है। चौथा सवाल यह है कि चुनावी आचार संहिता का खुला उल्लंघन करके एनडीए सरकार को लगातार लाभार्थियों को किस्तें बांटने की इजाज़त भी चुनाव आयोग ने दी। न केवल दस हज़ार रुपए महिलाओं के खाते में आते रहे, बल्कि वृद्धा पेंशन भी खाते में भेजी जाती रही। यह पेंशन तो ग्यारह के मतदान के एक दिन पहले तक भेजी गई। यानी, चुनाव आयोग पूरी तरह से सुनिश्चित कर रहा था कि एनडीए अच्छी तरह से चुनाव जीत जाए। हां, विपक्ष की यह कमी अवश्य रही कि वह इस तिकड़म की काट नहीं खोज पाया। मैंने अपनी पिछली कुछ चर्चाओं में इस तरह के हथकंडों के बारे में बताया था कि अगर इनकी काट नहीं की जा सकी तो बिहार में सत्ता परिवर्तन मुश्किल होगा।
बहरहाल, जो होना था वह हो चुका है। जहां तक बिहार में एनडीए द्वारा की जाने वाली वोटरों की गोलबंदी का सवाल है, उसने 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव-परिणामों की याद दिला दी है। जितने एकतरफा वे नतीजे थे (तीन-चौथाई बहुमत), उतने ही एकतरफा ये नतीजे हैं (दो तिहाई बहुमत)। उस चुनाव में भी यादव-मुसलमान गठजोड़ को मतदाताओं ने 50 से कम सीटें दे कर पूरी तरह से खारिज कर दिया था। इस चुनाव में भी तकरीबन ऐसा ही हुआ है। उस चुनाव में भाजपा ने एक गुप्त नारा दिया था-तीन जात के खिलाफ सब जात। यानी, यादव-मुसलमान-जाटव के खिलाफ पूरे हिंदू समाज की गोलबंदी। ठीक से समझा जाए तो वह जीत ऊंची जातियों के साथ गैर-यादव पिछड़ों, अतिपिछड़ों और दलितों के गैर-जाटव हिस्से को मिला कर हुई थी। लगभग उसी तर्ज पर बिहार की यह जीत भी ऊंची जातियों के साथ गैर-यादव पिछड़ों, अतिपिछड़ों (ई.बी.सी.) और दलितों को जोड़कर प्राप्त किया है। वह चुनाव भी हिंदू वोटरों की राजनीतिक एकता को रेखांकित करता था, यूपी और बिहार चुनावों में विपक्षी दल का यादव-मुसलमान गठजोड़ समाज के दूसरे हिस्सों को अपने साथ जोड़ने में विफल रहा। अंतर यूपी की जीत मुख्य तौर पर भाजपा की थी और बिहार की जीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ (एनडीए) की है। नितीश कुमार की पार्टी 20 सालों से सत्ता में है लेकिन भाजपा बिहार में तेजी से आगे बढ़ रही है। वैसे, ईमानदारी की बात त यह है कि इस चुनाव की कहानी के मुख्य पात्र नितीश कुमार ही रहे हैं। जैसे-जैसे चुनावी मुहिम आगे बढ़ी, वैसे-वैसे यह साफ होता गया कि उनकी प्रतिष्ठा अभूतपूर्व रूप से कायम है। मतदान से पहले उनसे नाराज़गी व्यक्त करने वाला वोटर ढूँढ़ना मुश्किल था। कुर्मी-कुइरी (लव-कुश मतदाता), अतिपिछड़ों और महिला वोटरों को आज भी सबसे ज्यादा भरोसा उन्हीं पर है।
एनडीए की जीत में मुख्यतौर से तीन तरह के संदेह व्यक्त किये जा रहे थे। एक सवाल तो यह पूछा जा रहा था क्या गठजोड़ की एकता बदस्तूर है, और विभिन्न घटक दलों के बीच वोटों के इधर से उधर जाने की प्रक्रिया पहले की ही तरह बिना दिक्कत के सम्पन्न होगी? इस संदेह को दो वज़हों से हवा मिल रही थी। भाजपा का सर्वोच्च नेतृत्व (मोदी और शाह) नितीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित करने से लगातार परहेज़ कर रहा था। और यह समझा जा रहा था कि लोक जनशक्ति पार्टी के नेता चिराग पासवान द्वारा 2020 के चुनाव में निभायी गयी नितीश विरोधी भूमिका का बदला नितीश के जनता दल (यू) के कार्यकर्ता और स्थानीय स्तर के नेता ले सकते हैं। दूसरा सवाल यह था कि क्या देश के सबसे ज्यादा युवा प्रदेश बिहार के 18 से 30 साल के मतदाता (जिनकी संख्या करीब 65 प्रतिशत के आसपास आंकी जाती है) कहीं विपक्ष के 36 वर्षीय नेता तेजस्वी यादव को तो पसंद नहीं कर लेंगे? इन मतदाताओं ने 2020 के चुनाव में तेजस्वी को अच्छा-खासा समर्थन दिया था। जो भी हो, चुनाव परिणामों ने साफ बता दिया है कि एनडीए ने एकताबद्ध होकर चुनाव लड़ा। उसके घटक दलों में वोटों का आपसी लेन-देन ठीक से हुआ। चिराग पासवान की पार्टी द्वारा निकाला गया अच्छा परिणाम इसका सबसे बड़ा प्रमाण समझा जा रहा है। साथ ही युवकों ने भी इस बार तेजस्वी की तरफ झुकने के बजाय एनडीए के सामाजिक गठजोड़ के हिस्से की ही तरह अपनी मतदान-प्राथमिकताएं तय कीं। तीसरा संदेह यह था कि क्या अतिपिछड़ों का कम से कम एक हिस्सा इस बार महागठबंधन को तो पसंद नहीं कर लेगा? लेकिन ऐसा नहीं हुआ, और आज की तारीख में भी नितीश कुमार बिहार के 36 प्रतिशत अतिपिछड़ी आबादी के मुख्य नेता बने हुए हैं।
यह परिणाम महागठबंधन के लिए एक बड़ा झटका है, उसे अब अपनी राजनीति पर भिन्न तरह से सोचना होगा। इस गठजोड़ की मुख्य पार्टी राष्ट्रीय जनता दल ने 2015 के बाद से कोई चुनाव नहीं जीता है। इसने सबसे अच्छा प्रदर्शन 2020 में किया था। उस समय एनडीए में फूट पड़ी हुई थी। उल्लेखनीय है कि इस बार राहुल और तेजस्वी ने अतिपिछड़े वोटों को अपनी ओर खींचने की कोशिश की थी। 7 अतिपिछड़े सम्मेलनों का आयोजन और मल्लाहों के नेता मुकेश सहनी को उपमुख्यमंत्री बनाने की घोषणा के रूप में इस प्रयास को देखा जा सकता है लेकिन इस रणनीति के सूत्रधार राहुल गांधी अपनी ही पार्टी में अतिपिछड़ों को पर्याप्त टिकट दिलवाने में नाकाम रहे। चुनावी मुहिम और टिकट वितरण की रणनीति से उनकी लम्बी ़गैर हाज़िरी की चर्चा महागठबंधन के समर्थकों के बीच भी होती रही। संदेश स्पष्ट है कि केवल यादव-मुसलमान गठजोड़ के दम पर बिहार की बाज़ी नहीं जीती जा सकती।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।



