संसदीय चुनाव में मुस्लिम वोट बैंक पर छीना झपटी

वर्तमान के लोकसभा चुनाव में लगता है कि समाज को साम्प्रदायिक आधार पर बांटने का कुछ लोगों ने मन बना लिया है। बहन मायावती, दीदी ममता वैनर्जी, मुलायम सिंह यादव और नवजोत सिंह सिद्धू जैसे कई नेतागण खुल्लमखुल्ला मुसलमानों को अपने-अपने दल के लिए वोट देने के लिए उकसा रहे हैं। 70 वर्षीय जमहूरियत में ऐसा पहली बार ही देखने को मिला हो कहा नहीं जा सकता। कई बार कश्मीर की नेत्री महबूबा मुफ्ती कह चुकी हैं कि कश्मीर मुस्लिम बहुल क्षेत्र है। कुछ ऐसा ही देवबंध के कई नेता भी मुसलमानों को बहुसंख्यक समुदाय से हटकर राजनीति करने पर आमादा करते सुने गए। मुल्ला मौलवी मदरसों में नई पीढ़ी को गुमराह करते देखे गए। कुछ मुस्लिम उलेमा मुसलमानों में बहुसंख्यक समुदाय के प्रति नफरत के बीज बोने पर उन्हें समझाते भी हैं, परन्तु वे सब उंगलियों पर गिने जाने वाले लोग ही हैं। धर्म-निरपेक्षता का ढिंढोरा पीटने वाले जब कुछ दल जिनमें बसपा, सपा, कांग्रेस, तृणमूल और आम आदमी पार्टी केवल मुसलमानों के वोटों पर अपनी बात खुल कर कहती है तो यह भारत के लोकतंत्र के लिए किसी भी हालत में शुभ नहीं कही जा सकती। सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय चुनाव आयोग को कहा भी है कि वह ऐसे नेताओं पर कुछ कठोर पग उठाए, और उठाए भी गए। कुछ नरमपंथी मुल्ला मौलाना खामोश तो नज़र आते हैं, परन्तु अंदरखाते मुस्लिम समुदाय की युवा पीढ़ी को हिन्दुत्व के विरुद्ध खड़ा भी करते रहते हैं। परिणामस्वरूप अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में यदा-कदा ऐसे दृश्य देखने को मिलते रहते हैं, यदि ऐसा न होता तो अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में भारत को विभाजित करने वाले मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर पर ज़रूरत से अधिक वाद-विवाद न होता। युवा पीढ़ी वहां हर हालत में जिन्ना का फोटो लगाने पर बज़िद रही। इंडोनेशिया के पश्चात् भारत ही एक ऐसा देश है, जिसमें मुसलमानों की संख्या बहुत है। यह बात सुन्नी वक्फ बोर्ड भी जानता होगा कि भारत में एक अनुमान के अनुसार पच्चीस करोड़ के लगभग मुसलमान रहते हैं, जिनमें शिया, बोहरा और अहमदीया भी हैं। इनमें 16 करोड़ से अधिक मतदाता हैं। शायद इसीलिए भारतीय राजनेता ललचाई नज़रों से मुसलमान मतदाताओं को देख रहे हैं। गत दिनों अखिलेश यादव प्रधान समाजवादी पार्टी एक रैली में बोलते हुए कहा था कि हमारी नज़रों के सामने तीन झंडे ही दिखाई देते हैं लाल, नीला और हरा। अब कोई पूछे कि सफेद जो इसाई मत का प्रतिनिधित्व करता है और भारत में इस समय उनकी जनसंख्या 5 करोड़ के करीब पाई जाती है और 90 करोड़ से अधिक हिन्दुत्व में विश्वास रखने वालों का भगवा रंग भी सपा के नेता की नज़र में नहीं आया। एक बात तो समझ में आती है कि जब एक बार लालू यादव ने एम.वाई. का नारा दिया था जिसका अर्थ मुस्लिम यादव भाई-भाई तो हिन्दू धर्म को मानने वाले दर-किनार कर दिए गए। हालांकि बाद में बहन मायावती ने बाबू कांशी राम द्वारा दिया गया नारा ‘तिलक तराजू और तलवार इनके मारो जूते चार’ को बदल कर ‘सर्व जन हिताय सर्वजन सुखाय’ का नारा कर दिया गया। इतना होने पर भी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड उनसे सहमत दिखाई नहीं देता, उसके पीछे कई कारण हो सकते हैं, जिनमें से एक तीन तलाक का मामला भी कहा जा सकता है। सन् 2014 के संसदीय चुनाव में कांग्रेस की पराजय का मुख्य कारण जो ए.के. एंटोनी कमेटी ने बताया था कि मुस्लिम तुष्टिकरण ही सबसे बड़ी हार की वजह बन गया। इसका असर कांग्रेस पार्टी पर जो होना था वह तो गुजरात के विधानसभा चुनाव में नज़र आ ही गया, परन्तु अन्य विपक्षी दलों ने भी इससे सीख न ली। वह आज तक मुस्लिम तुष्टिकरण में जुटे हुए हैं। एक बार तो मुलायम सिंह ने अपने आप को मुल्ला मुलायम सिंह कहलाने में गर्व अनुभव करना आरम्भ कर दिया था। गत कुछ सप्ताह से सर्वेक्षण जो भी जग-जाहिर हुए उनके अनुसार भाजपा अन्य दलों से अधिक सांसद लोकसभा में भेज सकेगी। सर्वेक्षणों में एक बात जो सामने आई कि मतदाता इस बार कामकाज के आधार पर ही अपने नुमाइंदें चुनेंगी। विकास मुख्य मुद्दा बनेगा। इसी आधार पर कांग्रेस ने तीन विधानसभाओं का चुनाव जीता जिनमें राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ हैं। दिलचस्प बात यह है कि इन तीन राज्यों में किसान का कर्ज़ माफ और खाली पड़े स्थानों पर नौकरियां दी जाने के अतिरिक्त बेरोज़गार नौजवानों को भत्ता दिए जाने के वायदे भी किए गे जो अभी तक पूरे नहीं हो सके। इसी तरह मुसलमानों को आरक्षण का आश्वासन भी दिया गया। एक तलख हकीकत यह है कि मुसलमानों का एक हिस्सा अयोध्या में बाबरी ढांचा गिराए जाने को लेकर अभी तक असंतुष्ट दिखाई देता है। मुसलमानों के बढ़ रहे गुस्से को शांत करने के स्थान पर कुछ तथाकथित प्रगतिशील नेता अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हैं, तभी तो उस दिन एक छुटभैय्या प्रकार के नेता ने कह दिया कि बिहार में नितीश कुमार को भी मुसलमानों का साथ नहीं मिलेगा, क्योंकि उसने नरेन्द्र मोदी का दामन थाम लिया है, इसके पीछे की कहानी वही है कि नितीश कुमार ने नरेन्द्र मोदी से 2009 के चुनाव में हाथ मिलाना अस्वीकार किया था क्योंकि नरेन्द्र मोदी ने मुस्लिम ढंग की टोपी पहनने से इन्कार कर दिया था। बाढ़ पीड़ितों के लिए गुजरात सरकार ने पांच करोड़ रुपया बिहार सरकार को भेजा था उसे भी लौटा दिया और विपक्षी दलों का रात्रि भोज भी रद्द कर दिया। यह बात नितीश जी भूल गए हों, परन्तु मुस्लिम समाज अभी तक याद कर रहा है। मुस्लिम वोटों के दावेदार उत्तरी भारत में ही नहीं, दक्षिण भारत के कई राज्यों में खड़े हैं, जिनमें केरल जहां आल इंडिया मुस्लिम लीग कांग्रेस के साथ गठबंधन में है और आंध्र में असद्दुद्दीन ओवैसी अपनी अढ़ाई इंच ईंट की अलग मस्जिद बनाकर मुसलमानों को हिन्दुत्व के खिलाफ लामबंद करने का प्रयास कर रहा है। मुस्लिम वोटों का मोहजाल सभी दलों में एक ऐसा दिखाई देता है और इसीलिए मुस्लिम वोट बैंक के लिए छीना-झपटी निचले स्तर पर जा पहुंची है। मुस्लिम मतदाताओं की दिलजोई करने में कोई भी दल पीछे नहीं।