इतना आसान नहीं है संविधान को बदलना

बहुत ही सोच विचार के बाद बाबा साहेब अम्बेडकर के नेतृत्व में भारत का संविधान तैयार गया था। यह लचीला और समावेशी तथा सब को साथ लेकर अर्थात् समाहित करने के उद्देश्य से बना है। 
संविधान की विशेषता 
सबसे पहले इस तथ्य पर आते हैं कि दुनिया में सबसे अधिक संशोधन हमारे ही संविधान में हुए हैं। जब से यह लागू हुआ, औसतन हर साल इसे दो बार मतलब 106 बार संशोधित किया जा चुका है। जब ऐसा होता रहा है तो समझा जा सकता है कि इसे बदलने का जोखिम मतलब नये सिरे से लिखवाने का काम कोई सिरफिरा ही करवा सकता है। इसे कोई ख़तरा नहीं है, न लोकतंत्र को और न ही इसके अंतर्गत रखे गये किसी भी प्रावधान को, क्योंकि इसमें कुछ भी जोड़ा या घटाया जा सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि विश्व के सर्वश्रेष्ठ संविधानों से लिये गये महत्वपूर्ण और राजकाज से संबंधित सिद्धांतों और नियमों पर आधारित हमारा संविधान निर्मित हुआ है। इसका लचीलापन इसकी विशेषता है लेकिन यह भी सच है कि कुछ नेताओं और उनके दलों की सरकारों ने अपने निजी स्वार्थ के लिए इसी बात का फायदा उठाया और अनेक संशोधनों के ज़रिये कुछ ऐसी बातें इसमें शामिल करा लीं जिनका ख़मियाज़ा पूरे देश को चुकाना पड़ रहा है। 
सबसे पहले आरक्षण की ही बात करें। इसे लेकर बहुत भ्रम है कि इसे समाप्त किया जा सकता है। वास्तविकता यह है कि इसकी व्यवस्था एक नियत और सीमित अवधि के लिए की गई थी। इसका उद्देश्य यही था कि आर्थिक रूप से कमज़ोर और पिछड़े तथा गरीब वर्ग को कुछ समय के लिए राहत मिले और वे शीघ्रातिशीघ्र अपने पैरों पर खड़े होकर राष्ट्र की मुख्य आर्थिक धारा से जुड़ सकें। हुआ यह कि अपना उल्लू सीधा करने में माहिर नेताओं ने न केवल हमेशा के लिए इसे लागू करने में सफलता पाई बल्कि एक बहुत बड़ी आबादी के लिए सशक्त और आत्मनिर्भर बनने के सभी रास्ते बंद कर दिये। लालच का ऐसा मकड़जाल बुना कि उससे बाहर निकला ही न जा सके और वे सदैव उन पर निर्भर रहें। यह गुलामी से भी बड़ी दासता है। 
हर ज़रूरी और गैर-ज़रूरी बात में आरक्षण के कारण एक बड़े वर्ग में निराशा फैलती गई और एक दूसरे से नफरत करने का कारोबार कुछ इस तरह चला कि लोगों के जीवन में शत्रुता का ज़हर घुलता गया। विडम्बना यह कि सरकारी नौकरियों में आरक्षित वर्ग के बहुत-से पद भरे ही नहीं जाते क्योंकि योग्य उम्मीदवार नहीं मिलते। जो योग्य हैं वे इनके लिए आवेदन नहीं कर सकते। अफसोस होता है कि हमारे तथाकथित कर्णधारों ने क्या से क्या बना दिया! इसकी कहीं गुहार भी नहीं लगा सकते क्योंकि संविधान में किया संशोधन बीच में आ जाता है। 
आरक्षण का मुद्दा इतना व्यापक है कि आरक्षित और अनारक्षित वर्ग के शांतिप्रिय पड़ोसी भी जब तब अशांत होकर अभद्र भाषा से लेकर मारपीट तक पर उतर आते हैं। दोनों को लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है। इस तरह यह वर्ग संघर्ष जाति संघर्ष में बदल दिया गया। इसका भयानक स्वरूप सामने आने लगा है और ऐसी घटनाएं देश के विभिन्न भागों में अक्सर घटित होती रहती हैं जब लोग इसकी आड़ में हिंसा, आगज़नी और समाज में अफरातफरी का माहौल बनाकर एक दूसरे से लड़ाने का काम करते दिखाई देते हैं। जो आरक्षण आर्थिक आधार था, उसे स्वार्थी लोगों ने इतना विखंडित कर दिया कि आज यह अपने सबसे विकृत रूप में देश के सामने एक महादैत्य के रूप में खड़ा है। अब जाति ही नहीं धर्म का आधार भी इसमें जोड़ दिया है या जोड़े जाने की कवायद चल रही है। इसका स्वरूप इतना विकराल हो गया है कि अब इसकी भूख कभी शांत नहीं होती दिखाई देती। राजनीतिक दल उसे कभी तृप्त होने ही नहीं देते। 
 संविधान का दुरुपयोग  
संविधान की धाराओं का दुरुपयोग कर और उसके अंतर्गत मिले अधिकारों के नाम पर छोटे बड़े सभी कानूनों का उल्लंघन करने की आज़ादी मानो उन्हें मिल जाती है जो समाज हो या देश, सब को कमज़ोर और तोड़ने का काम करते हैं ताकि उनका मनचाहा होता रहे। इसी कारण आतंकी अफज़ल की फांसी के खिलाफ माहौल बन जाता है। आधी रात को सुप्रीम कोर्ट को खुलवा दिया जाता है। कितने ही उदाहरण हैं जिनमें किसी न किसी अधिकार का हवाला देकर अपराधियों को बचाने की जुगत की जाती है। संविधान में मिली आज़ादी के दुरुपयोग के ढेरों उदाहरण हैं। बहुत-सी बातें इतनी सामान्य हैं कि हंसी आती है कि यह कैसे हो सकता है! पैदल चलने वालों के लिए बने फुटपाथ पर कब्ज़ा हो, सड़क पर वाहन निर्धारित गति से अधिक दौड़ाना हो, गलत ड्राइविंग के कारण दुर्घटना का कारण बन जाना हो, कचरा फैला कर गंदगी करनी हो, अपनी सुरक्षा की दुहाई देकर सार्वजनिक स्थलों पर बैरिकेड लगाकर रास्ता बंद करना हो, जैसी बातें प्रतिदिन देखने को मिल जाती हैं। 
हालात ऐसे हो गये हैं कि अपनी मेहनत से अर्जित पूंजी पर उन लोगों का हक मानने के लिए कानून बनाने की सोच चल रही है जिनका उस सम्पत्ति पर कोई अधिकार ही नहीं है। कुछ लोग मार्क्सवादी होने की दुहाई देकर कहते हैं कि चाहे किसी ने भी कमाया हो, समाज के हर व्यक्ति का उस पर अधिकार है और यह बांटा जाना चाहिए। पूंजीवादी कहते हैं कि जिसने अपनी मेहनत, लगन और कौशल से अर्जित किया, यह केवल उसका है। अब यहां गांधीवादी विचारधारा आती है जो कहती है कि हमने जो संसाधन निर्मित किए, वे भावी पीढ़ी की धरोहर हैं। यह सही भी है और सत्य भी। पीढ़ी दर पीढ़ी यह बढ़ती रहे और प्रत्येक नागरिक समृद्धि की ओर बढ़े और राष्ट्र का निर्माण करे, इससे बेहतर और क्या हो सकता है! इससे न किसी से कुछ छीनने की ज़रूरत पड़ेगी और न ही एक हाथ में अधिकांश संसाधन आ पायेंगे।
यह बात समझ से परे है कि आज भी क्यों कुछ लोग या राजनीतिक दल अमेरिका, रूस, चीन या किसी अन्य देश की व्यवस्था को अपने देश के लिए सही मानते हैं जबकि हकीकत यह है कि कभी भी उधार के शस्त्र से कोई लड़ाई नहीं जीती जा सकती। अपने लोगों, अपने देश और अपने संविधान पर विश्वास होना चाहिए। बापू गांधी का यही मानना था। 
ज़रूरत किस बात की है? 
अब हम इस बात पर आते हैं कि चाहे संविधान में संशोधनों के ज़रिये कोई भी कानून बना हो, मूल तत्व यह है कि भारत की धरती और उसके सभी स्रोत जैसे जल, जंगल, ज़मीन सबके हैं। उन पर किसी एक व्यक्ति, जाति, धर्म, संस्थान का अधिकार नहीं हो सकता। हमारे संविधान का अनुच्छेद 48 ए स्पष्ट शब्दों में पर्यावरण संरक्षण तथा वन एवं वन्य जीवों की सुरक्षा का संबंध सीधे नागरिकों के जीवन के अधिकार से जुड़ा हुआ दर्शाता है। फिर कैसे कोई इनका बंटवारा करने की सोच सकता है। इसका एक उदाहरण देना होगा। एक व्यक्ति मुहम्मद अब्दुल कासिम ने भ्रष्ट अधिकारियों के साथ मिलकर अन्ध्र प्रदेश के वारंगल ज़िले के कोंपल्ली गांव की वन भूमि पर अपने निजी उपयोग के लिए कब्ज़ा जमा लिया। ध्यान रहे यह चालीस से भी ज़्यादा साल पहले हुआ था और फैसला अब आया है और तेलंगाना सरकार पर पांच लाख का जुर्माना और गैर-कानूनी ढंग से कब्ज़ाई ज़मीन को मुक्त कराने का आदेश हुआ है।