अस्तित्व के संकट से जूझती कम्युनिस्ट पार्टियां

देश की कम्युनिस्ट पार्टियों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। साल 2004 कम्युनिस्ट पार्टियों के उम्थान का काल कहा जाए तो उसके बाद वाम दलों का लोकसभा में प्रतिनिध्त्वि लगातार कम होता जा रहा है। अब 18वीं लोकसभा के चुनावों में वामदलों के सामने अपने अस्तित्व को बचाये रखने का संकट खड़ा हो गया है। आज़ादी से पहले और उसके बाद के दौर में एक समय था जब वामदलों की पूरे देश में तूती बोलती थी। सरकार भले ही कम ही राज्यों में रही हो परन्तु वामदल और उसके अनुसंघी संगठन, चाहे वे स्टूडेंट फैडरेशन हों या मज़दूर संगठन या लेखक संघ सभी की अपनी पहचान और समर्थक रहे हैं, परन्तु समय का बदलाव देखिये कि आज वामदलों के सामने पहचान बनाये रखने का संकट खड़ा हो गया है। पश्चिम बंगाल में तो वामदलों ने तीन दशक से भी अधिक समय तक एक सत्र शासन किया, वहीं त्रिपुरा, केरल में भी वामदलों की सरकार रही है, परन्तु 2019 के लोकसभा के चुनाव आते-आते स्थिति यह हो गई कि वामदलाें के गढ़ पश्चिम बंगाल में तो वामदलों को एक भी सीट नहीं मिली, वहीं त्रिपुरा में भी खाता खोलने में विफल रहे। दरअसल समय की मांग को समझना और उसके अनुसार समयानुकूल बदलाव करना अपने आप में बड़ी बात होती है। जनभावना को भी समझना ज़रूरी हो जाता है। केवल विचारधारा और आक्रामक होने से काम नहीं चल सकता। फिर अपने-अपने अहं के कारण समय पर सही निर्णय नहीं लेने का परिणाम देर-सबेर भुगतना पड़ता है। ज्योति बसु को तीन बार प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिला परन्तु पोलिट ब्यूरों ने उन्हें प्रधानमंत्री बनाने पर सहमति नहीं दी। कल्पना कीजिए कि ज्योति बसु तीन में से किसी एक अवसर पर प्रधानमंत्री बनते तो उसका लाभ अंततोगत्वा वामदलों को ही मिलता, परन्तु आपसी मतभेदों या मनभेदों के कारण सही विकल्प नहीं चुनने का परिणाम आज सामने हैं। 
गत 2019 के लोकसभा चुनावों की ही बात की जाए तो वामदलों को लोकसभा के लिए छह सीटे मिलीं। इसमें भी  एक समय कम्यूनिस्टों के गढ़ रहे पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में तो वामदलों का खाता भी नहीं खुल सका। तमिलनाडु में गठबंधन के सहारे माकपा और भाकपा को दो-दो सीटें मिल गईं, वहीं केरल में माकपा और आरएसपी एक-एक सीट जीतने में सफल हो सकीं। जैसे-तैसे केवल माकपा राष्ट्रीय दल के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल रही है। यह भी कोई ज्यादा पुरानी बात नहीं है कि लोकसभा के इससे पहले 2004 के चुनावों में वामदलों के पास 59 सीटें थी। हालात यह थे कि कांग्रेस-भाजपा के बाद लोकसभा की तीसरी बड़ी ताकत वामदल थे। कांग्रेस के साथ गठबंधन कर वामदल सरकार में भी शामिल हुए। लोकसभा स्पीकर का पद भी वामदलों के पास ही गया। देखा जाए तो न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत सरकार भी ठीक ही चली परन्तु परमाणु समझौते के कारण बाद में वामदल सरकार से बाहर हो गए। ममता के कारण पश्चिम बंगाल में वामदल लगभग अप्रासंगिक होता जा रहा है और पश्चिम बंगाल में वामदल के स्थान पर भारतीय जनता पार्टी उभर रही है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि वायनाड से राहुल गांधी का चुनाव लड़ना भी वामदल को हानि पहुंचाने वाला ही रहा है। खैर, यह अलग विचारणीय प्रश्न हो जाता है। एक समय था जब ज्योति बसु को केन्द्र की राजनीति में लाने के प्रयास हुए थे, परन्तु आपसी मतभेदों के कारण वामदलों ने इसे सफल ही नहीं होने दिया। वामदलों के अस्तित्व के संकट को यों भी समझा जा सकता है कि किसी समय विपक्षी दलों में वामदलों की तूती बोलती थी। आज कोई भी बड़ा नाम सामने नहीं आ पा रहा है। प्रकाश करात या सीताराम येचुरी आदि के नाम यदा कदा ही सामने आ पाते हैं। एक समय था जब सोम दा, इन्द्र जीत गुप्त, ए.बी. वर्द्धन, ज्योति बसु और उससे पहले की भारतीय राजनीति पर दृष्टिगोचर किया जाए तो पी. सुन्दरैया, सी. राजेश्वर राव, ई.एम.एस. नंबुदरीपाद, ए.के. गोपालन, बी.टी. रणदीव जैसे अनेक नाम थे जिनकी भारतीय राजनीति में अपनी अलग हैसियत और पहचान थी। चुनावों में वामदलों का सूखा 2009 के चुनावों से लगातार बढ़ता गया है। 2004 में 59 सीटे थीं, जो 2009 में कम होकर 24 रह गईं, 2014 के चुनावाें में उसकी भी आधी यानी 12 और 2019 के चुनावों में उसकी भी आधी यानी कि 6 रह गईं। अब 2024 के लोकसभा चुनावों में वामदलों के सामने अपनी पहचान बनाये रखने का संकट पैदा हो गया है। पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा से कोई खास उम्मीद नहीं लगती, केरल में भी हालात ज्यादा नहीं बदले हैं। 
दरअसल वामदलों के हाशिये में जाने के अन्य कारणों के साथ ही ममता का पश्चिम बंगाल में पकड़ बनाये रखना है। साथ ही भाजपा वहां अपनी पैठ लगातार बढ़ाने के प्रयास कर रही है। 
ऐसे में वामदलों को 18वीं लोकसभा में अपनी पहचान बनाये रखने के लिए कठोर परिश्रम करना होगा। वामदलों के सामने दरअसल अभी विकल्प कम ही हैं। वामदल के कमिटेड वोटर्स छिटक गए हैं तो नेतृत्व द्वारा न तो दूसरी लाइन के नेता तैयार किये गये हैं और न ही काडर को मज़बूत करने के प्रयास किये गये हैं। जन आंदोलन जो कभी वामदल की पहचान होती थी, वह कहीं नेपथ्य में चली गई है। एक समय था जब छोटी सी छोटी जगह पर भी कोई न कोई कामरेड मिल जाता था जिसकी अपनी पहचान होती थी, उस तरह के नाम आज तलाशने पड़ते हैं। 2024 के चुनावों के नतीजा जो भी हो, परन्तु भविष्य के लिए वामदलों को भारतीय राजनीति में प्रासंगिक बने रहने के लिए ठोस रणनीति बनाकर आक्रामक रुप से आगे आना होगा। 

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