नेताजी गोबर हैं 

जब से चुनावी बिगुल फुंका है। नेताजी एलर्ट मुद्रा में आ गये हैं। अद्धा-पौना से लेकर इंग्लिश, देसी सबका जुगाड़ लगाने में नेताजी लगे हुए हैं। सबको खुश रखना है। साड़ी, कपड़ा, गमछा, लूंगी जो भी बांटना पड़े। नेताजी बांटने में लगे हैं। बस वोट नहीं बंटना चाहिए। वोट बंटने की कल्पना मात्र से नेताजी सिहर जाते हैं।चुनाव के बाद तो कटना आखिर जनता को ही है सजो नेताजी हमेशा दिल्ली प्रवास पर पाये जाते थें। वो अब सर्वथा सुलभ हैं। जैसे गाय का गोबर चौक-चौराहों पर उपलब्ध होता है। वैसे ही नेताजी चौबीसों घंटे सातों दिन जनता की सेवा में हाज़िर रहने लगें हैं। पहले से ही नेताजी वाक् पटु थें, लेकिन इधर उनकी भाषा में चाश्नी की तरह मिठास उतर आई है। उनकी वाक् पटुता और लच्छे दार बातें सुनकर लोमड़ी भी शरमा जाती है। ये कहना कहीं से अतिशयोक्ति पूर्ण बात ना होगी की नेताजी लोमड़ी को भी धत्ता बता रहें हैं।
आखिर कितने मंसूबे बांध रखें हैं, हमारे नेताजी ने। पहले तो दो बार विधायक रहे। फिर पांच बार सांसद। नेताजी नहीं हुए महत्वकांक्षा के पुल हो गये हैं। आखिर वोट बंटने से मंत्री, फिर कैबिनेट मंत्री, मुख्यमंत्री, फिर प्रधानमंत्री वगैरह-वगैरह  बनने की राह में रूकावट जो आ जाती है।
 दरअसल खुश नेताजी कभी नहीं रहे। बचपन से ही इम्तेहानों का दौर जारी है। नेताजी ना हुए छात्र हो गये। 
पहले छात्र नेता का चुनाव। फिर वार्ड का चुनाव। फिर नगर प्रमुख का चुनाव। विधायकी, सांसदी। नेताजी विद्यार्थी की तरह हर बार परीक्षा के संत्रास से गुजरते रहते हैं। सबसे ज्यादा हड़बड़ी उन्हें चुनाव के समय महसूस होती है। दिल बल्लियों उछलने लगता है। हर बार किसी कुशल चिकित्सक की तरह जनता की नब्ज टटोलते रहतें हैं। हमेशा इस बात का भय बना रहता है कि ऊंट किस करवट बैठेगा? ऊंट अगर उल्टा बैठ गया। तो वो चारों खाने चित हो जायेंगे। चित वो आज तक कभी हुए नहीं तो आज कैसे हो जायेंगे? कभी-कभी कार्यकर्ताओं की गलती से वो चूक गये हों। तो वो अलग बात है वो आज के अर्जुन है। हमेशा मछली की आंख पर नज़र रखते हैं। खेल के शुरूआत से लेकर काऊंटिंग तक सारे दांव पेंच लगा देते हैं।  वो इस खेल के पुराने खिलाड़ी हैं। बहत्तर घाट का पानी पिया है। वो भले ही अंगूठा छाप हैं। लेकिन उनके आगे किसी की नहीं चलती। अफसर हाकिम-हुक्काम सबको अंगूठे पर रखते हैं। अंगूठाछाप हैं तो क्या? उन पर टाडा, मकोका, अपहरण, बलात्कार तक बीसिंयो मामले दर्ज हैं। कोई पढ़ा-लिखा करके दिखाए उनसे मुकाबला। यूँ ही नहीं वो नेताजी हैं। नेताजी होना खेल है क्या?
उनका कुर्सी प्रेम ष् त्वमेव माता च पिता त्वमेव ष् वाली उक्ति पर आधारित है। इन चुनावों के बीच सबसे ज्यादा परेशान नेताजी की पत्नी हैं। मुंआ दिन भर चुनाव -चुनाव करता है। ढंग से मेरी तरफ देखता भी नहीं। आखिर क्या करना है इतना पैसा? जब आदमी का चैन ही खो जाये। दो रोटी कमाया और खाया। नेताजी को इतने भर से सुख नहीं है। नेताजी को कस्तूरी चाहिए। नेताजी खुद तो कस्तूरी मृग है। और कस्तूरी की खोज में निकल पड़े हैं। बेकार ही भोले बाबा की उपासना की। बेकार ही सोलह सोमवार किये। अभी कुछ दिन नेताजी और उनकी पत्नी परेशान हैं। चुनाव के बाद तो जनता को मिलने दिल्ली आना ही होगा।