कहानी - पंख 

छाया बचपन से ही सपनों को आसमान की तरह बड़ा मानती थी। उसका मानना था कि इंसान अगर ठान ले, तो किसी भी ऊंचाई को छू सकता है। लेकिन वो यह भी जानती थी कि सपनों का बोझ, गरीब कंधों पर अक्सर भारी पड़ता है। उसका परिवार छोटा था- मां, पापा और वो खुद। वे एक छोटे से कस्बे में रहते थे, जहां ज़िंदगी की रफ्तार धीमी, पर संघर्ष की तीव्रता तीखी होती है।
छाया के पापा, रमेश जी कपड़ों की फेरी लगाते थे। सुबह-सुबह अपनी पुरानी साइकिल उठाकर घर से निकल जाते और देर शाम लौटते- पसीने से तर-बतर, धूप से झुलसा चेहरा लिए। उस साइकिल की घंटी, घर के आंगन में जैसे किसी प्रतीक्षा की आवाज़ बन चुकी थी। रमेश जी बहुत कम बोलते थे। ना ज्यादा डांटते, ना दुलार जताते। उनकी उपस्थिति एक गूंगी मगर मजबूत दीवार जैसी थी- जो सब सहती है, लेकिन कभी कुछ कहती नहीं।
छाया उन्हें कभी ठीक से समझ नहीं पाई। मां अक्सर कहती थीं- ‘तेरे पापा बहुत गहरे समंदर हैं बेटा, जितना देखती है उससे कहीं ज्यादा छुपा है उनके भीतर।’
छाया पढ़ाई में तेज़ थी। उसका सपना था कि वो एक दिन अपने परिवार की हालत बदल दे। उसने मेहनत की और शहर के सबसे अच्छे कॉलेज में दाखिला पा लिया लेकिन कॉलेज घर से दस किलोमीटर दूर था। रोज़ आना-जाना पैदल मुमकिन नहीं था। छाया ने मां से साइकिल के लिए कहा। मां ने धीरे से कहा, ‘तेरे पापा बहुत परेशान रहते हैं... समय आने पर सब होगा।’
छाया ने उस जवाब में ‘ना’ को पहचान लिया। उसे पता था कि ये ‘समय आने पर’ शायद कभी नहीं आएगा। कुछ दिन बीते, एक सुबह जब वह तैयार होकर स्कूल जाने को निकली, तो देखा- पापा अपनी पुरानी साइकिल को साफ कर रहे हैं। उन्होंने कुछ नहीं कहा, बस साइकिल उसकी ओर बढ़ा दी और बोले- ‘अब मुझे इसकी ज़रूरत नहीं।’
छाया कुछ कह नहीं पाई। उसके गले में कुछ अटका रहा। साइकिल लेकर कॉलेज जाना शुरू हो गया, लेकिन उस साइकिल की हर चेन में, हर पहिये में पापा की खामोशी गूंजती रही। कॉलेज के दिन बीतते गए। वह अच्छे नंबर लाने लगी और शिक्षक उसकी तारीफ करते। पर मन में पापा की उदासी और चुप्पी एक अजीब सी टीस छोड़ जाती।
एक दिन एक क्लासमेट ने यूँ ही पूछ लिया- ‘तुम्हारे पापा को रोज़ पैदल फेरी लगाते देखा है... वो अब साइकिल से क्यों नहीं आते?’
उस एक सवाल ने जैसे छाया की पूरी दुनिया को झकझोर दिया। वो दौड़ती हुई घर पहुंची। मां से पूछा- ‘पापा पैदल क्यूं फेरी लगाते हैं?’
मां की आंखों से आंसू बहने लगे- ‘तेरी पढ़ाई रुक न जाए, इसलिए बेटा। वो नहीं चाहते थे कि तू थके, हारे या पिछड़े। अपने पैरों से चलने का बोझ उन्होंने खुद उठा लिया।’
उस रात छाया रोती रही। वो सारी छोटी-छोटी ख्वाहिशें, जो उसे अधूरी लगती थी, अब पापा की खामोश कुर्बानियों के रूप में पूरी नज़र आ रही थीं।
कुछ हफ्तों बाद कॉलेज में एक स्कॉलरशिप का नोटिस आया- अंतर्राज्यीय मेरिट स्कॉलरशिप। दिल्ली के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में चयन का मौका। फीस पूरी माफ, छात्रावास में रहना भी शामिल। छाया ने आवेदन कर दिया। कुछ ही हफ्तों में चयन की सूचना आ गई। वो दिल्ली जा सकती थी- एक नई दुनिया, नए सपने और नई ऊंचाइयों के लिए। लेकिन अब सबसे कठिन काम था- यह बात पापा को बताना।
उस रात छाया काफी देर तक सोचती रही। फिर हिम्मत जुटाकर पापा के पास गई और धीरे-धीरे सब कुछ बता दिया। पापा चुपचाप सुनते रहे। चेहरा बिल्कुल शांत। कोई सवाल नहीं, कोई प्रतिक्रिया नहीं।
छाया को लगा कि उन्हें फर्क नहीं पड़ा। शायद उन्हें अच्छा नहीं लगा कि वो इतनी दूर जा रही है। वो चुपचाप अपने कमरे में भरी मन के साथ लौट गई।
सुबह जब उसकी आंख खुली, तो देखा- सिरहाने एक ट्रॉली बैग रखा था। उसके ऊपर पापा की वही पुरानी, घिसी हुई टोपी। और टोपी के नीचे एक चिट्ठी: ‘बिटिया, मैंने तुझे कभी गोद में बिठाकर आसमान नहीं दिखाया, पर आज तू उड़ने को तैयार है, तो मैं अपनी जमीन तेरे पंखों के नीचे बिछा रहा हूँ। साइकिल तुझे दी, पर तेरे हौसले मुझे मिल गए। मेरे पास कहने को शब्द नहीं, पर तू जब भी जीत कर लौटे, तो वो मुस्कान ज़रूर लाना, जो तू कॉलेज से लौटते वक्त मेरे चेहरे पर देखती थी। -तेरा पिता, रमेश’
छाया की आंखों से आंसू बह निकले। वो चिट्ठी नहीं, जैसे एक उम्र भर की खामोशी का इज़हार था। पापा की हर चुप्पी, हर त्याग, हर रात की थकान- सब उस एक पन्ने में बोल उठे थे।
आज छाया दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर है। उसका कमरा पुरस्कारों से भरा है - बेस्ट रिसर्चर, यंग एजुकेटर, वुमन लीडर अवॉर्ड। लेकिन जब भी वह किसी मंच पर खड़ी होती है, एक तस्वीर उसके बैग में ज़रूर रहती है- एक पुरानी, जंग लगी साइकिल की तस्वीर।
वो जब भी कोई अवॉर्ड लेती है, मुस्कराते हुए कहती है : ‘ये मेरा पहला पंख था- मेरे पापा का दिया हुआ।’
रमेश जी अब इस दुनिया में नहीं हैं। उनका देहांत छाया की डॉक्टरेट पूरी होने से कुछ महीने पहले हो गया था। लेकिन छाया जब भी कोई नई लड़की को उसके सपने की ओर बढ़ते देखती है, तो उसे लगता है - पापा अब भी वहीं हैं। साइकिल के हैंडल पर अपनी हथेली रखे, दूर कहीं खड़े, धीरे-धीरे मुस्करा रहे हैं...।

-5376, एरो सिटी, मोहाली 
मो. 7027120349

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