सिर्फ नारा मात्र है  ‘जनता का राज, जनता के लिए’

समय के साथ-साथ जिन शब्दों, वाक्यों को हम शाश्वत मानते हैं, जिनके अर्थ यह विश्वास किया जाता है कि जब तक देश है, जब तक संविधान है, तब तक सत्य रहेंगे, वही देखते-देखते बदल गए तथा आगे और भी ज्यादा बदल जाएंगे। जो सदियों तक सार्थक रहने चाहिए थे, उनके कुछ दशकों में ही अर्थ ही नहीं, रूप स्वरूप भी बदल गए। जब भारत स्वतंत्र हुआ, स्कूलों-कालेजों में लोकतंत्र की परिभाषा हमें यही पढ़ाई गई, ‘जनता का राज, जनता के लिए, जनता के द्वारा’ है, परन्तु अब जब व्यावहारिक जीवन में चलते हैं तो जनता के लिए कहीं दिखाई नहीं देता और जनता द्वारा भी नहीं। अगर राज जनता का होता तो स्वतंत्रता के आठवें दशक तक पहुंचते-पहुंचते भी जनता कहीं दूर हाशिये पर न फैंक दी गई होती या सिसक-सिसक कर जीने को विवश नहीं होती। 
आश्चर्य है कि यह राज तो जनता के द्वारा कहा जाता है, परन्तु यह तो धन-बल से बनता है, बाहुबल से सुरक्षित होता है, डंडे के बल से चलाया जाता है। तभी तो स्थानीय स्वशासन की सबसे छोटी इकाई के चुनाव में भी पंच-सरपंच और उसके बाद नगर निगम और नगर परिषद में चुनाव लड़ने वालों को करोड़ों रुपये खर्च करने पड़ते हैं अर्थात धन का राज, बाहुबलियों का राज। जिस देश में संभवत: एक प्रतिशत लोग भी ऐसे नहीं होंगे जो मतदाताओं को शराब पिलाये बिना, नोट बांटे बिना और कई तरह के उपहार दिये बिना वोट मांगते हों, उसे हम जनता का राज कैसे कह सकते हैं? इसका सीधा परिणाम यह है कि जब जनता हाथ जोड़े अपने प्रतिनिधियों के आगे पीछे घूमती है तो वे भी उनकी कोई परवाह नहीं करते। वे जानते हैं कि उनके हाथों में नोट दिए थे, तभी हमें वोट मिले हैं। जुड़े हुए हाथों की अब उन्हें चिंता नहीं। जनता के लिए यह कहा जाता है कि सुंदर शहर बनाए जा रहे हैं। बड़ा नया नाम दिया गया है—स्मार्ट सिटी। पिछले दो दशकों से पंजाब में भी अमृतसर को स्मार्ट सिटी बनाने की बहुत चर्चा हो रही है। अरबों रुपये इसके लिए आ गए। कुछ तो खर्चे भी गए, लेकिन सिटी तो दिखाई देता है, इसमें स्मार्टनेस कहीं नहीं है। हमें बताया गया कि भारत का पहला स्मार्ट सिटी भुवनेश्वर है, उड़ीसा की राजधानी। अब सभी लोग तो यहां से जाकर भुवनेश्वर देख नहीं सकते। सौभाग्य से श्री जगन्नाथ पुरी के दर्शन करते समय भुवनेश्वर में भी प्रवास हो गया, पर उसे देखकर यह लगा कि अमृतसर स्मार्ट सिटी बन रहा है, यह तो दिवास्वप्न है। ‘आप’ पार्टी की सरकार आने से पहले जब कांग्रेस की सरकार थी तो हमारे एक मंत्री ने 125 करोड़ रुपये की लागत से लोहगढ़ गेट से सर्कुलर रोड बनाने का काम शुरू किया। शिलापट्ट लगा है, उसके ऊपर मिट्टी भी पड़ी है। स्मार्ट सिटी बनाने के लिए शहर के अंदरूनी क्षेत्रों की बिजली बंद कर दी गई। घंटों तक बिजली कटौती रहती है और कहा जाता है कि स्मार्ट सिटी बन रहा है।
स्मार्ट का पता नहीं, पर अमृतसर सिटी की हालत बुरी है। सीवरेज की सफाई का प्रबंध नहीं। सड़कें टूटी हैं। बिजली की तारें लटकती हैं, जो किसी के लिए भी मौत का कारण बन सकती हैं, कई बार बन भी गईं। नलों में साफ  पानी कभी-कभी मिलता है। कुछ इलाकों में तो सीवरेज और पीने वाला पानी मिले रहते हैं। कूड़े के बड़े-बड़े ढेर और मच्छर अमृतसर को मिले हैं। आवारा पशु सड़कों पर घूमते व लड़ते देखे जा सकते हैं। आज भी अमृतसर में स्मार्ट सिटी के नाम पर करोड़ों रुपयों की मशीनरी, गाड़ियां खरीद कर रखी गई हैं। अमृतसर के 450 वर्ष पूरे होने के जश्न सरकार मनाने जा रही है, पर यह उत्तर देने को तैयार नहीं कि क्या अमृतसर केवल 450 वर्ष पुराना है?
पिछले दिनों भारत के सबसे स्वच्छ शहर इंदौर के महापौर पंजाब आए। प्रदेश के लोगों को अपनी सरकार से यह पूछने का भी अधिकार नहीं कि इंदौर अगर स्वच्छ हो गया तो कैसे हो गया और पंजाब के शहरों को किस तरह किया जा सकता है। आज इस बात की जांच होनी चाहिए स्मार्ट शहरों के लिए कितना पैसा आया और कहां लगा? जो काम पांच वर्ष में होना था, वह दस में भी क्यों नहीं हो पाया?  सीधी बात है कि इस देश में अपने पंजाब में जो भी बनता है, वह नेताओं के लिए, आज के सत्तापतियों के लिए, राजनीतिक पार्टियों और उच्चाधिकारियों की सुख सुविधा के लिए बनता है। बड़े-बड़े अधिकारियों के कार्यालयों में ए.सी. निर्बाध चलते हैं, क्योंकि सरकार के लिए राज है, जनता के लिए कोई राज नहीं। अब तो शुद्ध पानी भी नहीं।
क्या हम अपनी सरकारों द्वारा नलकों में दिए जा रहे पानी पर भरोसा नहीं कर सकते? एक ही धारणा बना दी कि यह पानी पीने के लिए अच्छा नहीं। अगर यह पानी पीने के लिए अच्छा नहीं तो फिर स्थानीय निकाय सरकारें किस लिए हैं, जलापूर्ति विभाग किस लिए है? सरकारी कार्यालयों में तो पानी सरकारी पैसों से पहुंचता है, पर आम आदमी को तो अपनी मेहनत की कमाई से मंगवाना पड़ता है। यह धारणा बन गई है कि सिटी बने स्मार्ट या स्वच्छतम, वह केवल उनके लिए है जो सत्ता के शिखर पर बैठे हैं, जिन्होंने मोटे-मोटे नोट खर्च कर वोट लिए हैं। वे आम जनता से इतने दूर हो जाते हैं कि उन्हें पता ही नहीं लगता कि स्मार्ट नाम की कोई चीज़ जनता के लिए भी चाहिए। बेचारी जनता भी नहीं जानती कि स्मार्ट शहर क्या होते हैं। पैसा जनता का, टैक्स जनता ने दिए, लेकिन उनके लिए कुछ नहीं। आज की स्थिति में यह कहना ही अप्रासंगिक है कि राज जनता का है या जनता के लिए है। राज सत्ता का है, सत्तापतियों का है और धन-बल तथा बाहुबल के द्वारा है।

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