पौत्रियां संभाले हुए हैं गुरुदत्त की महान विरासत

लिविंग रूम की दीवार पर फिल्म ‘प्यासा’ (1957) का पोस्टर लगा हुआ है। दूसरी दीवार पर ब्लैक एंड वाइट फैमली फोटो टंगा हुआ है, जिसमें लीजेंडरी फिल्मकार गुरुदत्त, उनकी गायिका पत्नी गीता (राय) दत्त और उनके बच्चे हैं। मुंबई के इस घर में गुरुदत्त की मौजूदगी का एहसास हर जगह है। यह गुरुदत्त की बहू इफ़्फत का घर है, जिसमें वह अपनी दोनों बेटियों करुणा व गौरी के साथ रहती हैं। इफ्फत ने गुरुदत्त के बेटे अरुण दत्त से शादी की थी, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं। लेकिन तीनों मां व बेटियां अपने परिवार की महान सिनेमाई विरासत को संभाले हुए हैं और गुरुदत्त की जन्म शताब्दी वर्ष का जश्न मनाने की योजना बना रही हैं। गौरी बताती हैं, ‘हालांकि हमारे दादा गुरुदत्त की हमेशा ही हमारे जीवन में प्रभावी मौजूदगी रही है, लेकिन इस साल हम उसे कुछ अधिक ही महसूस कर रही हैं; क्योंकि 9 जुलाई 2025 को अगर वह होते तो सौ बरस के हो गये होते।’
गुरुदत्त ने 9 जुलाई 1925 को बंगलोर के कोंकणी चित्रापुर सारस्वत ब्राह्मण परिवार में आंखें खोलीं थीं। पिता शिवशंकर राव पादुकोण स्कूल में मास्टर थे और मां वसंथी पादुकोण गृहिणी थीं, जो कभी-कभी कहानियां लिखा करती थीं। मां-बाप ने उन्हें वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोण नाम दिया, लेकिन बचपन में एक हादसा हो जाने के बाद इस नाम को अशुभ माना गया और नाम गुरुदत्त रख दिया गया। गुरुदत्त के पैरेंट्स कारवार में रहते थे, मगर उन्हें अपना बचपन भोवानीपुर में गुज़ारना पड़ा, जिससे वह बंगाली भी अच्छी बोलने लगे। पैसे की तंगी थी, इसलिए दसवीं के बाद कॉलेज न जा सके। बकुट मामा (बालकिशन बेनेगल, जो श्याम बेनेगल के चाचा थे और गुरुदत्त की मां के कजिन) ने उदय शंकर की नृत्य मंडली में शामिल करा दिया। नृत्य सिखा, कुछ दिन टेलीफोन ऑपरेटर के रूप में नौकरी की, मन नहीं लगा, कोलकाता छोड़कर पुणे आ गये जहां प्रभात फिल्म कंपनी में नृत्य निर्देशक की नौकरी मिली और जीवन का रुख ही बदल गया।
पुणे में परवरिश पाते हुए पोतियों को अपने दादा गुरुदत्त का महत्व कॉलेज के दिनों में समझ में आया था। करुणा ने फार्ग्युसन कॉलेज से शिक्षा प्राप्त की थी और गौरी ने नैरोज़जी वाडिया कॉलेज से। गौरी बताती हैं, ‘जब हम बच्चियां थीं, तो हमें अपने दादा के कार्य से परिचय हमारे पिता ने कराया था। पुणे में शाम को अक्सर बिजली गुल हो जाया करती थी और बिजली आने का इंतज़ार करते हुए डैडी अपने पैरेंट्स के बारे में बातें किया करते थे।’ इफ्फत के अनुसार, करुणा अपनी दादी गीता दत्त की तरह अधिक सोशल है, जबकि गौरी अपने दादा व पिता की तरह अपने में गुम रहने वाली। पुणे में जिस लौंडरी पर गुरुदत्त अपने कपड़े धुलवाते थे, उसी पर देवानंद के कपड़े भी आते थे। संयोग से दोनों की एक दिन आपस में कमीजें बदल गईं और दोनों की मुलाकात हुई, जो दोस्ती में बदल गई। तब तक गुरुदत्त नृत्य निर्देशन के अलावा सहायक निर्देशक का भी काम करने लगे थे और फिल्मों में छोटी-छोटी भूमिकाएं भी। 
गुरुदत्त व देवानंद ने एक-दूसरे से वायदा किया, जो भी पहले निर्माता बनेगा वह दूसरे को अपनी फिल्म में काम देगा। पहले देवानंद निर्माता बन गए और उन्होंने ‘बाज़ी’ के निर्देशन की ज़िम्मेदारी गुरुदत्त को दी और अपना वायदा निभाया और जब गुरुदत्त ने ‘सीआईडी’ बनाई तो देवानंद को हीरो लिया। प्रभात फिल्म कंपनी में ही गुरुदत्त की मुलाकात रहमान से हुई और यह दोस्ती भी उम्र भर चली। ‘बाज़ी’ (1951) में गीता ने ‘तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले’ गीत गाया था और उनकी मखमली आवाज़ ने गुरुदत्त को स्तब्ध कर दिया था। वह अपना दिल ही हार गये थे। तीन साल तक कोर्टशिप चली और फिर 26 मई 1953 को गीता रॉय गुरुदत्त की गीता दत्त बन गईं। उनके तीन बच्चे हुए- तरुण, अरुण व नीना। चूंकि पोतियों का अपने दादा की फिल्मों से परिचय किशोरावस्था में हुआ था, इसलिए वह उनके कार्य को बेहतर ढंग से समझ सकीं और तटस्थता के साथ उस पर अपनी राय भी कायम कर सकीं। करुणा को ‘प्यासा’ ने अधिक प्रभावित किया है, लेकिन उन्हें लगता है कि ‘मिस्टर एंड मिसेज़ 55’ (1955) उतनी प्रशंसा नहीं मिली है, जितनी कि मिलनी चाहिए थी, जबकि मनोरंजन से भरी यह फिल्म आज भी प्रासंगिक है। गौरी की पसंदीदा फिल्म ‘कागज़ के फूल’ (1959) है। जब दोनों बहनें फिल्म प्रोफेशनल के तौर पर काम करने लगीं तो कुछ साल पहले उनका परिवार पुणे से मुंबई शिफ्ट हो गया। करुणा सहायक निर्देशक हैं और गौरी पृथ्वी थिएटर से जुड़ी हुई हैं।  दोनों बहनें अपनी फिल्में बनाकर गुरुदत्त की विरासत को आगे बढ़ाने की इच्छुक हैं और उसी दिशा में कार्य कर रही हैं। गुरुदत्त की जन्मशती के लिए परिवार ने कोई विशेष योजना नहीं बनायी है। इफ्फत बताती हैं, ‘परिवार के ऐसे अवसरों का हम प्राइवेटली जश्न मनाते हैं। लेकिन हम परिवार की परम्परा का पालन करते हुए अपने दिवंगत सदस्यों के पसंदीदा व्यंजन तैयार करके उन्हें पक्षियों को खिलाते हैं। यह परम्परा अरुण ने शुरू की थी। इसलिए 9 जुलाई को हम पापा (गुरुदत्त) की पसंदीदा मंगलोरी डिश जैसे दाल चावल व सौंग (आलू प्याज़ की मसालेदार डिश) तैयार करेंगे।’ हालांकि फिल्म निर्माण प्रक्रिया अब एनालॉग से डिजिटल हो गई है, लेकिन गुरुदत्त अब भी मील का पत्थर हैं कि वह जो कहानियां सुनाना चाहते थे, उन पर उन्होंने कालजयी सिनेमा बनाया और वह भी बाज़ार की सीमाओं में काम करते हुए। अपने जन्मशती वर्ष में हमारे पास उनकी वापसी एक टीचर व सत्य के झंडाबरदार के रूप में होनी चाहिए। करुणा व गौरी की यही कोशिश है। -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

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