व्यक्ति ही नहीं, एक परम्परा व ज्ञान का महासागर हैं दलाई लामा
इन दिनों 14वें दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो पूरी दुनिया की मीडिया की सुर्खियों में है। 6 जुलाई 2025 को अपना 90वां जन्मदिन मनाने वाले पवन पावन दलाई लामा इन दिनों विश्व मीडिया के केंद्र इसलिए हैं, क्योंकि वह अपने जीते जी अगले दलाई लामा का चयन करना चाहते हैं और चीन इस बात से बहुत खफा है। क्योंकि हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला शहर में रहने वाले दलाई लामा ने ऐलान कर दिया है कि दलाई लामा का अगला अवतार चीन के नियंत्रण वाले तिब्बत में से नहीं होगा बल्कि भारत या अन्य स्वत्रंत देशों से हो सकता है। यही नहीं उन्होंने यह भी कहा है कि तिब्बती लोग चाहें तो दलाई लामा की परंपरा को अब खत्म भी कर सकते हैं। क्योंकि यह एक धार्मिक संस्था है, कोई जन्मसिद्ध अधिकार नहीं। चीन इस बात से इसलिए बेचैन हो गया है क्योंकि उसने पिछले 66 सालों से अगर दलाई लामा जैसी संस्था के साथ छेड़छाड़ नहीं की थी, तो इसी उम्मीद से कि मौजूदा 14वें दलाई लामा की मृत्यु के बाद उसका इस संस्था पर कब्जा हो जायेगा। लेकिन अब उसे बेचैनी होने लगी है क्योंकि उसकी यह उम्मीद टूटती नज़र आ रही है। यही वजह है कि पिछले एक महीने के भीतर चीन ने कई बार दबी छुपी जुबान से दलाई लामा को, भारत को और उन सभी ताकतों को धमकी देने की कोशिश की है, जो इस बात के समर्थक हैं कि दलाई लामा को अपना उत्तराधिकारी चयन करने का धार्मिक, नैतिक और सांस्कृतिक अधिकार है, इस पर किसी और को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। बहरहाल दलाई लामा समूचे तिब्बत के न केवल अस्तित्व के पर्याय हैं बल्कि बौद्ध परंपरा की जीवंत कड़ी हैं। आइये विस्तार से जानते हैं कि दलाई लामा नाम की इस संस्था का तिब्बत और बौद्ध सम्प्रदाय में क्या महत्व है, इसकी क्या परंपरा है और यह परंपरा कहां से आयी है?
दलाई लामा का शाब्दिक मतलब होता है- दलाई अर्थात महासागर और लामा यानी गुरु। मंगोल भाषा में दलाई लामा का मतलब एक ऐसे गुरु से है, जिसका ज्ञान महासागर जितना हो अर्थात दलाई लामा ज्ञान के महासागर हैं। मौजूदा 14वें दलाई लामा जिनका निवास भारत के धर्मशाला शहर में है, वह बौद्ध धर्म के गेलुग्पा सम्प्रदाय के सर्वोच्च आध्यात्मिक गुरु होते हैं। यह पद न केवल धार्मिक नेतृत्व का प्रतीक है बल्कि ऐतिहासिक रूप से तिब्बत में राजनीतिक नेतृत्व से भी जुड़ा हुआ है। दलाई लामा परंपरा की शुरुआत 14वीं शताब्दी के उत्तरार्ध और 15वीं शताब्दी की शुरुआत में होती है, जब गेलुग सम्प्रदाय के संस्थापक जे त्सोंखापा के अनुयायी लामाओं की परंपरा शुरु हुई। हालांकि पहले दलाई लामा के रूप में माने जाने वाले गेदुन द्रुब का जन्म 1351 में हुआ था, लेकिन ‘दलाई लामा’ (यह पदवी) उन्हें उनके उत्तराधिकार के जीवनकाल में ही नहीं मिली थी। वास्तव में तीसरे दलाई लामा सोनाम ग्यात्सो को सन 1578 में यह पदवी या शीर्षक मंगोल नेता अल्तन खान द्वारा पहली बार दी गई थी। लेकिन एक बार यह पदवी मिलने के बाद पीछे के दो लामाओं गेदुन द्रुब और सोनाम ग्यात्सो को भी क्रमश: प्रदान कर दी गई।
दलाई लामा पिछली 11 सदियों से बौद्ध सम्प्रदाय की एक महान परंपरा के रूप में जाने जाते हैं। 14वीं से 17वीं शताब्दी तक इस परंपरा का प्रारंभिक काल था और उस जमाने के दलाई लामाओं का प्रभाव मुख्यत: धार्मिक हुआ करता था। राजनीतिक शक्ति उन दिनों तिब्बती राजा या मंगोल शासकों के पास होती थी। मगर 5वें दलाई लामा, जिनसे महान दलाई लामा युग की शुरुआत होती है, तब से दलाई लामा का प्रभाव राजनीतिक और सामाजिक व आध्यात्मिक भी होने लगा। 5वें दलाई लामा लोसांग ग्यात्सो थे, जिन्होंने 1642 में तिब्बत की राजनीतिक सत्ता अपने हाथों में ली थी। यह तिब्बत का एकीकरण और दलाई लामा के तहत एक थियोक्रेटिक शासन की शुरुआत की। उन्होंने ही दलाई लामा की सत्ता के केंद्र पोटाला पैलेस का निर्माण शुरु कराया था। इसके बाद 18वीं, 19वीं शताब्दी में तिब्बत ने अपनी धार्मिक स्वत्रंता बनाये रखते हुए, राजनीतिक स्वत्रंता को बचाने की बहुत कोशिश की, लेकिन निरंतर चीन के किंग वंश और मंगोलों का तिब्बत की राजनीति में प्रभाव बढ़ता गया।
13वें दलाई लामा के समय तिब्बत पर काफी हद तक ब्रिटिश प्रभाव तारी हो गया था, जिससे उन्होंने तिब्बत को बचाने की बहुत कोशिश की और कहना चाहिए कि चीन के पतन और यूरोपीय ताकतों के विस्तार के बावजूद तिब्बत ने किसी तरह अपनी स्वायत्तता बनाये रखी। लेकिन 14वें दलाई लामा, जिनका समय 1935 से शुरु होकर अब तक जारी है के समय तिब्बत अपनी राजनीतिक सत्ता चीन के आक्रामक भू-विस्तार की मंशा के कारण नहीं बचा सका। 1950 में चीन ने तिब्बत पर सैन्य आक्रमण कर दिया और 9 साल तक के लंबे संघर्ष और विरोध के बाद जब 1959 में तिब्बती विरोध हुआ, जिसे चीन ने बड़ी क्रूरता से कुचल दिया, उसी विरोध के दौरान 14वें दलाई लामा तेनजिंग ग्यात्सो अर्थात मौजूदा परम पावन दलाई लामा तिब्बत से भागकर भारत में शरण ली। इनका जन्म 6 जुलाई 1935 को उत्तर पूर्वी तिब्बत के ताकस्तर गांव में हुआ था तथा उन्हें 2 वर्ष की आयु में ही 14वें दलाई लामा के रूप में पहचान लिया गया था और 1950 में जब उनकी उम्र महज 15 वर्ष थी, उन्हें पूर्ण धार्मिक और राजनीतिक अधिकार दे दिये गये थे।
14वें दलाई लामा को पूर्ण रूप से अधिकार दिये जाने के समय से ही चीन की आंख तिब्बत को अपने में मिलाने पर लगी थी और अंतत: 1959 में उसने तिब्बत को अपने भौगोलिक विस्तार में शामिल कर लिया। लेकिन तिब्बत में आज भी दलाई लामा जैसी संस्था का जबर्दस्त सम्मान है और आज भी इस परंपरा को कायम रखे जाने की मंशा है, जो कि उत्तराधिकार की खोज पर टिकी होती है। 1959 में तिब्बत पर कब्जा कर लेने के बाद भी चीन का अभी तक तिब्बत पर पूरे तरीके से धार्मिक और आध्यात्मिक मानस पर काबिज नहीं हो सका। चीन भी इस बात को जानता है, इसलिए उसने तिब्बत की सत्ता को कब्जाने के लिए किये गये अपने तमाम आक्रामक प्रयासों के बीच भी दलाई लामा के उत्तराधिकार चयन की परंपरा को अभी तक नहीं छेड़ा था। उसे लग रहा था मौजूदा दलाई लामा की मृत्यु के बाद वह स्वयं ही इस संस्था पर कब्ज़ा कर लेगा, क्योंकि अगले दलाई लामा के उत्तराधिकारी की खोज की अब तक की परंपरा मौजूदा दलाई लामा की मृत्यु के बाद शुरु होती थी। लेकिन 14वें परम पावन दलाई लामा ने इस नियम को उलटते हुए अपने जीते जी अपने उत्तराधिकारी की चयन की कोशिशें जब से शुरु कर दी हैं, तब से चीन बहुत बौखलाया हुआ है और वह किसी भी कीमत पर दलाई लामा के उत्तराधिकारी चयन की परंपरा पर विराम लगाना चाहता है।
लेकिन जिस तरह से 14वें दलाई लामा का पूरी दुनिया में सम्मान है और जिस तरह चीन, अमेरिका व यूरोप की नज़रों में उभरती हुई राजनीतिक महाशक्ति के रूप में खटकता है, उसके कारण अमेरिका और यूरोप दलाई लामा के साथ खड़े हैं और भारत तो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दलाई लामा के साथ ही है, क्याेंकि हिंदुस्तान न केवल दलाई लामा का मौजूदा घर है बल्कि बौद्ध धर्म व इसकी महान परंपराओं की सरजमीं भी भारत है। इस कारण लगता नहीं कि अपनी तमाम कोशिशों के बाद भी चीन नये दलाई लामा की खोज को रोक पायेगा।
दलाई लामा के उत्तराधिकारी की खोज की अब तक यह परंपरा रही है कि मौजूदा दलाई लामा के निधन के बाद उनके नये अवतार (तुलकु) की खोज एक पारंपरिक, रहस्यवादी और ज्योतिषीय प्रक्रिया से सम्पन्न होती है, जिसमें मौजूदा दलाई लामा की मृत्यु के बाद वरिष्ठ लामाओं की एक समिति अपनी ध्यान शक्ति, देखे गये स्वप्न और विशिष्ट धार्मिक संकेतों के विश्लेषणों के आधार पर दलाई लामा के उत्तराधिकारी की खोज करते हैं। यह भी मान्यता है कि कभी-कभी जीवित दलाई लामा अपने उत्तराधिकारी के संबंध में कुछ पुष्ट संकेत छोड़ जाते हैं, जिन संकेतों के तहत उत्तराधिकारी की खोज पूरी होती है। बहरहाल उत्तराधिकारी की खोज में तिब्बत की एक पवित्र झील ल्हामो ल्हात्सो में मठवासी अपनी ज्योतिषीय शक्ति से ध्यान लगाकर देखते हैं और फिर नये दलाई लामा के जन्मस्थान की ओर संकेत करते हैं। इस खोज का एक और पुष्ट सूत्र यह होता है कि पहले दो सूत्रों के आधार पर जिन विभिन्न क्षेत्रों में नये दलाई लामा की संभावना वाले कई बच्चों की तलाश की जाती है, उनकी आपस में कई बार अलग-अलग तरह से परीक्षा ली जाती हैं, जो कि पिछले दलाई लामा द्वारा चुनने की दी गई सीख पर आधारित होती हैं। इन परीक्षाओं में सही बच्चा वही माना जाता है, अंतत: जो पूर्ववर्ती दलाई लामा की सभी वस्तुआें की पहचान कर ले। जब कोई संभावित दलाई लामा बन सकने वाला बच्चा पूर्ववर्ती दलाई लामा की वस्तुएं पहचान लेता है, तो तिब्बत की धार्मिक परिषद कभी-कभी मंगोल या चीनी सत्ता की मंजूरी से इस बच्चे को नया दलाई लामा घोषित कर देती है।
पहले भारत दलाई लामा की चयन प्रक्रिया का जीवंत हिस्सा नहीं था, लेकिन 1959 में जब 14वें दलाई लामा तिब्बत से भागकर भारत में शरण ली और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने धर्मशाला में उनके आधिकारिक निवास को तिब्बती सरकार इन एग्जायल के मुख्यालय का दर्जा दिया, तब से भारत भी इस खोज में सक्रिय भागीदारी करता है, क्योंकि भारत में एक लाख से कहीं ज्यादा तिब्बती शरणार्थी रहते हैं, जो इस प्रक्रिया के हिस्सेदार होते हैं। हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला शहर को छोटा ल्हासा भी कहा जाता है। भारत ने तिब्बती बौद्ध परंपरा को सुरक्षित रखने में इस भारतीय ल्हासा के जरिये महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। भारत से दलाई लामा का संबंध सिर्फ राजनीतिक शरण पाने तक ही नहीं है बल्कि दलाई लामा नामक संस्था का भारत के भी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक प्रभाव क्षेत्र में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी है। भारत की जो आध्यात्मिक और सांस्कृतिक सत्ता है, उसमें दलाई लामा की भी ताकत समाहित हैं। चीन को यह बात कतई पसंद नहीं है। क्योंकि चीन जो तिब्बत को अपना अविभाज्य अंग मानता है, वह दलाई लामा के चयन में भारत की इस तरह की भूमिका को अपने विरूद्ध एक राजनीतिक और कूटनीतिक हस्तक्षेप मानता है। 1995 में 14वें दलाई लामा द्वारा चुने गये 11वें पंचेन लामा (गेदुन चोयकी न्यिमा) को चीन ने अगवा कर लिया और उसकी जगह एक सरकारी पंचेन लामा नियुक्त कर दिया। चीन का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर यह मानना था कि पंचेन लामा के चुने जाने के षड़यंत्र में भारत भी शामिल है। जबकि भारत की इस संबंध में जरा भी भूमिका नहीं थी। भारत तिब्बतियों के आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा के किसी भी काम में कोई हस्तक्षेप नहीं करता। लेकिन चीन का मानना है कि न सिर्फ पंचेन लामा के चयन में भारत की भूमिका थी बल्कि 14वें दलाई लामा जिस तरह अपने जीते जी अगले दलाई लामा की खोज कर रहे हैं, उसमें भी भारत का हाथ है।
बहरहाल इससे क्या फर्क पड़ता है कि चीन क्या मानता है? भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि दलाई लामा और तिब्बती लोग चाहें तो जिसे अपना उत्तराधिकारी तय करें, हमें इससे कोई लेना देना नहीं है। हम इस धार्मिक, आध्यात्मिक प्रक्रिया में जरा भी हस्तक्षेप नहीं करते और दलाई लामा की परंपरा को शांति, अहिंसा, करुणा और बौद्ध धर्म व संस्कृति का हिस्सा मानते हैं। लेकिन 1989 में नोबेल शांति पुरस्कार पा चुके दलाई लामा को चीन कतई मान्यता नहीं देता। वह उन्हें तिब्बत की अपनी सत्ता के खिलाफ साजिश करने वाला शख्स मानता है। बहरहाल इस खींचतान के बीच नये और मौजूदा दलाई लामा के उत्तराधिकारी की खोज और प्रतिष्ठा होनी है, देखते हैं यह किस तरह सम्पन्न होगी।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर