भोलेनाथ की भक्ति में डूबी आस्था की पदयात्रा ‘कांवड़ यात्रा’
कांवड़ यात्रा पर विशेष
भगवान शिव को सावन का पावन महीना बहुत प्रिय माना गया है। शिव पुराण में भी सावन के महीने की महिमा का वर्णन मिलता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार सावन महीने में ही समुद्र मंथन हुआ था, जिसमें से निकले विष को भगवान शिव ने ग्रहण कर लिया था। कुछ पौराणिक मान्यताओं के अनुसार अपने पति के रूप में भगवान शिव को प्राप्त करने के लिए मां पार्वती ने पूरे सावन महीने में कठोरतम तप किया था। हिन्दू कैलेंडर के अनुसार सावन 5वां महीना होता है और हिन्दू धर्म में यह जप, तप व व्रत का महीना माना जाता है। सावन के महीने में भगवान शिव की पूजा-अर्चना करने, सोमवार के व्रत रखने के अलावा कांवड़ियों द्वारा शिवलिंग पर जलाभिषेक का विशेष महत्व माना गया है। दृक पंचांग के अनुसार इस साल सावन माह का शुभारंभ 11 जुलाई से हो रहा है। सावन माह की शुरुआत के साथ ही कांवड़ यात्रा की शुरुआत हो जाती है, जो बेहद पुण्यदायी तीर्थयात्रा मानी जाती है। सावन माह के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से ही कांवड़ यात्रा का शुभारंभ होता है, जो सावन कृष्ण चतुर्दशी तक यानी सावन शिवरात्रि तक चलती है। इस वर्ष कांवड़ यात्रा 11 जुलाई से शुरू होगी और 13 दिन तक चलेगी, जिसका समापन 23 जुलाई को सावन शिवरात्रि के दिन होगा।
धार्मिक दृष्टिकोण से कांवड़ यात्रा का हिन्दू धर्म में विशेष महत्व है। इस दौरान कांवड़ियों में बहुत उत्साह देखने को मिलता है। कांवड़ यात्रा के दौरान हर कहीं उत्सव जैसा माहौल देखने को मिलता है। सावन के महीने में भगवान भोलेनाथ के भक्त मीलों पैदल चलकर गंगा तट पर जाते हैं, वहां स्नान करने के पश्चात कलश में गंगा जल भरते हैं और फिर कांवड़ पर उसे बांधकर अपने कंधे पर लटकाकर अपने-अपने क्षेत्र के शिवालय में लाते हैं और शिवलिंग पर अर्पित करते हैं। मान्यता है सावन के पावन महीने में कांवड़ यात्रा करने और कांवड़ उठाने वाले भक्तों के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और कांवड़ में जल लाकर शिवलिंग का अभिषेक करने वालों पर पूरे साल भगवान भोलेनाथ की कृपा बरसती है, उन्हें दुख, दोष, दरिद्रता से मुक्ति मिलती है। कांवड़ यात्रा को भगवान शिव को प्रसन्न करने और उनकी कृपा पाने का एक अचूक उपाय माना गया है। कांवड़ यात्रा वास्तव में भगवान शिव के भक्तों द्वारा किया जाने वाला एक पवित्र अनुष्ठान है। पौराणिक मान्यता है कि यदि आप भगवान शिव के भक्त हैं तो आपको जीवन में एक बार तो कांवड़ यात्रा अवश्य करनी चाहिए।
भगवान शिव को समर्पित कांवड़ यात्रा श्रद्धा और समर्पण की प्रतीक होती है और इस दौरान भक्त की श्रद्धा-भक्ति एवं दृढ़ता की परीक्षा होती है। मान्यता है कि भगवान शिव को केवल एक लोटा जल चढ़ाकर भी प्रसन्न किया जा सकता है लेकिन साथ यह मान्यता भी है कि शिव बहुत जल्दी क्रोधित भी हो जाते हैं। यही कारण है कि हिन्दू धर्म में कांवड़ यात्रा को लेकर काफी कठोर नियम हैं। कांवड़ यात्रा के दौरान मांस, मदिरा, तामसिक भोजन पर पूर्ण प्रतिबंध होता है और पूरी यात्रा के दौरान पूर्ण रूप से सात्विक भोजन ही किया जाता है। इस दौरान शराब, पान, तंबाकू, गुटखा, सिगरेट इत्यादि किसी भी प्रकार के नशे और तामसिक चीजों का सेवन पूरी तरह वर्जित होता है। कांवड़ियों द्वारा रास्ते में आराम करने के समय कांवड़ को किसी ऊंचे स्थान या पेड़ पर लटकाकर रखा जाता है। दरअसल कांवड़ को जमीन पर रखना कांवड़ का अपमान माना जाता है। यदि गलती से भी कांवड़ को जमीन पर रख दिया तो कांवड़ में फिर से पवित्र जल भरकर लाना होता है। कांवड़िये ऐसे ही कठोर नियमों का पालन करते हुए कई दिनों तक पैदल चलते हैं और कांवड़ में गंगाजल लाकर सावन शिवरात्रि पर भगवान भोलेनाथ का अभिषेक करते हैं।
कांवड़ बांस या लकड़ी से बना एक बड़ा डंडा होता है, जिसे रंग-बिरंगी पताकाओं, झंडों, धागों, चमकीले फूलों इत्यादि से सजाकर इसके दोनों सिरों पर गंगाजल से भरा कलश लटकाया जाता है। कांवड़ का मूल शब्द ‘कावर’ है जिसका सीधा अर्थ कंधे से है। दरअसल अधिकांश शिव भक्त अपने कंधे पर पवित्र जल का कलश लेकर पैदल यात्रा करते हुए ही गंगा नदी तक जाते हैं। कांवड़ का अर्थ है परात्पर शिव के साथ विहार अर्थात ब्रह्म यानी परात्पर शिव, जो उनमें रमन करे, वही है कांवड़िया। वैसे तो लाखों की संख्या में कांवड़िये गंगाजल लेने हरिद्वार आते हैं लेकिन हरिद्वार के अलावा भी भक्त गंगा, नर्मदा, शिप्रा आदि नदियों से भी जल भरकर उसे एक लंबी पैदल यात्रा कर भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए शिव मंदिर में स्थित शिवलिंग पर चढ़ाते हैं। उत्तराखंड में कांवड़िये हरिद्वार, गोमुख, गंगोत्री से गंगाजल भरकर इसे अपने-अपने क्षेत्र के शिव मंदिरों में स्थित शिवलिंगों पर अर्पित करते हैं, वहीं मध्य प्रदेश के इंदौर, देवास, शुजालपुर इत्यादि स्थानों से कांवड़िये वहां की नदियों से पवित्र जल लेकर उज्जैन में भगवान भोलेनाथ का जलाभिषेक करते हैं। बिहार में कांवड़ यात्रा सुल्तानगंज से देवघर और पहलेजा घाट से मुजफ्फरपुर तक होती है। सुल्तानगंज से गंगाजल भरकर भक्त करीब 108 किलोमीटर की पैदल यात्रा कर झारखंड के देवघर में बाबा बैद्यनाथ धाम में जल चढ़ाते हैं, वहीं सोनपुर के पहलेजा घाट से मुजफ्फरपुर के बाबा गरीबनाथ, दूधनाथ, मुक्तिनाथ, खगेश्वर मंदिर, भैरव स्थान मंदिरों पर भी कांवड़िये गंगा जल चढ़ाते हैं।
कांवड़ मुख्यत: चार प्रकार (सामान्य कांवड़, डाक कांवड़, खड़ी कांवड़, दांडी कांवड) की होती हैं और प्रत्येक कांवड़ के अलग नियम और महत्व होते हैं। सामान्य कांवड़ में शिव भक्त आराम कर सकते हैं, जगह-जगह पर कांवड़ियों के लिए पंडाल लगे होते हैं, जहां वे अपनी कांवड़ रखकर आराम कर सकते हैं। डाक कांवड़ के दौरान जहां से गंगाजल भरा है और जहां जलाभिषेक करना है, वहां तक कांवड़िये को बिना रुके लगातार चलते रहना होता है। डाक कांवड़ियों को लेकर मंदिरों में अलग से प्रबंध किए जाते हैं ताकि कोई भी डाक कांवड़िया बिना रुके शिवलिंग तक पहुंच सके। खड़ी कांवड़ के दौरान पूरे रास्ते में कांवड़िये की मदद के लिए कोई न कोई होता है। जब भी कांवड़िया आराम करता है, उसका सहयोगी अपने कंधों पर कांवड़ ले लेता हैं और कांवड़ को चलाने के अंदाज में हिलाता रहता है। सबसे मुश्किल होती है दांडी कांवड़ यात्रा क्योंकि इस कांवड़ यात्रा के दौरान कांवड़िये गंगातट से लेकर शिवधाम तक दंडौती देते हुए परिक्रमा करते हैं और लेट-लेटकर यात्रा पूरी करते हैं, इस कांवड़ यात्रा में कम से कम एक महीना लगता है।
कांवड़ यात्रा की शुरुआत कब और कैसे हुई, इसे लेकर वैसे तो अनेक मत है लेकिन हिन्दू शास्त्रों के अनुसार मान्यता है कि भगवान शिव के महान भक्त भगवान परशुराम ने श्रावण महीने के दौरान पहली बार यह कांवड़ यात्रा कर भगवान शिव को प्रसन्न किया था, तभी से कांवड़ यात्रा निकाली जा रही है। माना जाता है कि भगवान परशुराम ने उत्तर प्रदेश में बागपत के पास स्थित पुरा महादेव में गढ़मुक्तेश्वर से कांवड़ में गंगा जी का जल लाकर उस पुरातन शिवलिंग पर जलाभिषेक किया था। उसी परम्परा का अनुपालन करते हुए आज भी श्रावण मास में गढ़मुक्तेश्वर (ब्रजघाट) से जल लाकर लाखों भक्त श्रावण मास में भगवान शिव पर जल चढ़ाकर अपनी कामनाओं की पूर्ति करते हैं। यह मान्यता भी है कि भगवान श्रीराम ने भी कांवड़ यात्रा की थी। कावड़ यात्रा को लेकर प्रचलित विभिन्न पौराणिक कथाओं में भगवान राम और भगवान परशुराम के अलावा श्रवण कुमार तथा लंकाधिपति रावण द्वारा भी कावड़ यात्रा किए जाने का उल्लेख मिलता है।