भाषा पर विवाद राजनीतिक लाभ लेने का प्रयास तो नहीं ?
महाराष्ट्र में हिंदी बोलने पर मराठी भाषियों के एक वर्ग द्वारा विरोध और मारपीट करने की घटनाएं और कुछ नहीं बल्कि एक संवेदनशील मुद्दे की आड़ लेकर अपनी राजनीतिक ज़मीन को उपजाऊ बनाये रखने की कोशिश है। यह परिपाटी बन गई है कि जब भी लगे कि जनता को गुमराह कर अपना उल्लू सीधा करना है तो भाषा की लड़ाई शुरू कर दो और यह केवल एक राज्य तक सीमित नहीं, देश भर में यह पैंतरा अपनाया जाता है। इससे किसका लाभ होता है, इसे समझना होगा।
भाषाओं का संगम
भारत विश्व का सबसे अधिक आबादी और भाषावादी देश है। यहां प्रमुख रूप से और सरकार द्वारा मान्यताप्राप्त भाषाओं के अतिरिक्त लगभग सोलह सौ से अधिक मातृभाषाएं हैं, जिनका अपना इतिहास, संस्कृति और साहित्य है। इस विविधता को न समझ पाने का लाभ आक्रांताओं के रूप में आए मुगलों और अंग्रेज़ों ने उठाया और भारतीय भाषाओं पर अपनी भाषाओं को थोप दिया। उर्दू और हिन्दी मिलकर हिंदुस्तानी हो गई और अंग्रेज़ी राजकाज में इस्तेमाल होने लगी। जिन प्रदेशों में उनकी अपनी भाषाओं का बोलबाला था, उन पर भी अंग्रेज़ी लाद दी गई क्योंकि भाषाओं में इतना अलगाव और बिखराव था कि उन्हें समझना मुश्किल था, इसलिए यह चाल कामयाब हुई। धनी, ताकतवर और हुक्मरान समुदाय की भाषा ने आम और खास लोगों के बीच विभाजन की रेखा खींच दी।
महात्मा गांधी को अंग्रेज़ों की चाल समझने में देर नहीं लगी। उन्होंने देखा कि हिन्दी एक बहुत बड़े क्षेत्र में बोली जाती है लेकिन पूरे देश में नहीं। उन्हें लगा होगा कि हिन्दी को सर्वमान्य और पूरे देश को जोड़ कर रखने वाली भाषा बनाया जा सकता है। इसके लिए उन्होंने सन् 1918 में दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा की स्थापना मद्रास में की। हिन्दी अपने विविध रूपों में आधे भारत द्वारा बोली और समझी जाती है।
आज़ादी की लड़ाई में हिन्दी का प्रयोग सब जानते हैं। स्वतंत्र हुए तो कुछ नेताओं पर अंग्रेज़ी का नशा सिर चढ़ कर बोल रहा था और वे इसमें पारंगत होने की लालसा के अतिरिक्त अंग्रेज़ों को यह दिखाने में लगे रहते थे कि उनके जाने के बाद उन्होंने इसे पूरे देश की भाषा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी और सिद्ध किया कि यही देश के शासन और प्रशासन की भाषा हो सकती है।
सरकार की अक्षमता
सरकार की नीति के अनुसार व्यावहारिक रूप से सभी प्रशासनिक कार्य केंद्र और सभी राज्यों में अंग्रेज़ी में होने लगे लेकिन क्योंकि हिन्दी को भी कानून में अंग्रेज़ी के बराबर रखा गया था, इसलिए लीपापोती भी करनी थी। विद्वानों की ऐसी मंडली बनाई जिसने अंग्रेज़ी शब्दों का हिन्दी में ऐसा भ्रष्ट और घटिया अनुवाद किया कि उन्हें बोलना भी मुश्किल था। हिंदी को समझने के लिए सरकारी कार्यालयों में हिंदी अधिकारियों की फौज खड़ी कर दी और केंद्र सरकार ने राजभाषा विभाग बना दिया। ये सब अंग्रेज़ी में ही काम करते थे और उसी के समर्थक थे। ऐसे में हमारी जो क्षेत्रीय भाषाएं थीं, वे अलग-थलग पड़ कर अपनी पहचान बनाने का संघर्ष करने लगीं। इसका परिणाम यह हुआ कि वे अपने प्रदेश में हिन्दी प्रदेशों से नौकरी या व्यापार करने आए लोगों का विरोध करने लगे। मराठी न बोल पाने पर पिटाई कर देना इसका ही उदाहरण है।
देश में भाषा को लेकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले दल हिन्दी को साम्राज्यवादी बताते हुए अपनी अस्मिता, संस्कृति और यहां तक कि साहित्य और सिनेमा तक के लिए खतरा बताते हैं। एक झूठ कि हिन्दी को ज़बरदस्ती थोपा जा रहा है, निरन्तर फैलाते रहते हैं जबकि सच्चाई यह है कि हिन्दी के बिना इन भाषाई ठेकेदारों का कोई अस्तित्व ही नहीं है। क्या महाराष्ट्र में हिन्दी के बिना सिनेमा बन सकता है? क्या हिन्दी के समर्थन के बिना दूसरे राज्यों की भाषाएं अपना विस्तार कर सकती हैं? आज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पंजाबी, गुजराती, मराठी और मलयालम जैसी भाषाओं का सम्मान होता है, यदि हिन्दी को सबसे अधिक पसंद किया जाता हैं तो इसमें गलत क्या हैं?
इस बात से किसी को कोई आपत्ति नहीं है कि उनके प्रदेश में उनकी भाषा को प्रोत्साहन मिले, लेकिन यदि इसके साथ ही हिन्दी को भी रखा जाए तो इससे राष्ट्रीय एकता को मज़बूती मिलेगी। इसका विरोध क्यों होता है?
सरकार की मजबूरी
तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को यह आदेश देना पड़ा कि जब तक गैर-हिन्दी भाषी राज्य न चाहें, तब तक अंग्रेज़ी सरकारी कामकाज की भाषा बनी रहेगी। सभी राज्यों में प्रमुख रूप से अंग्रेज़ी में कामकाज होता है। यदि हिन्दी को राष्ट्रभाषा होने का गौरव हासिल होता है तो इससे क्षेत्रीय भाषाओं की अहमियत समाप्त नहीं होगी, यह विश्वास हिन्दी भाषी वालों को दिलाना होगा, तब ही हम ‘एक देश, एक भाषा’ का स्वप्न साकार कर सकते हैं। तीन भाषाएं पढ़ने की नीति शुरू से गलत साबित हुई क्योंकि इसे अमल में लाने के लिए दोगली नीति अपनाई गई। हिन्दी थोपे जाने का भ्रम इसी नीति ने पैदा किया। यह स्वीकार करें कि अंग्रेज़ी की अनिवार्यता और हिन्दी सहित सभी भाषाएं उसके माध्यम से ही फले-फूलें। एक ही उदाहरण काफी है कि फिल्म चाहे किसी भी भाषा में बने, लेकिन उसकी कहानी, कथानक और संवाद तक पहले अंग्रेज़ी में लिखे जाते हैं और फिर उन्हें उस भाषा में अनुवाद किया जाता है जिसमें फिल्म बननी है। संगीत, नृत्य, नाटक तथा अन्य रचनात्मक गतिविधियों में भी यही होता है कि पहले अंग्रेज़ी में तैयारी की जाती है। क्या यह संभव है कि यह सब अंग्रेज़ी के बजाय सबसे अधिक बोली जाने वाली हिन्दी में होना संभव है? यह एक कल्पना हो सकती है, लेकिन असंभव नहीं, ज़रा सोचिए।