सिख त़ख्तों के बीच टकराव के कारण क्या हैं ?

जब भी कद ऊंचा लगे तो आसमां को देखना,
आदमी बौना है कितना यह बताता है हमें।
राघवेन्द्र द्विवेदी का यह शे’अर इसलिए लिखना पड़ा क्योंकि इस समय श्री अकाल तख्त साहिब तथा तख्त श्री पटना साहिब के बीच चल रहे आपसी संघर्ष बारे सिख जगत बहुत चिंचित है, कई विद्वान तथा प्रमुख सिख चाहते हैं कि काश कोई साझा एवं प्रमाणित व्यक्ति आगे आकर इस आपसी लड़ाई में समझौता करवा सके। चाहे कुछ लोग इसे जत्थेदारों की या तख्तों की सत्ता तथा अहं की लड़ाई करार दे रहे हैं, परन्तु मेरी साफ व स्पष्ट समझ है कि वास्तव में यह लड़ाई न तो जत्थेदारों की निजी अहं की लड़ाई है और न ही किसी तरह की धार्मिक लड़ाई है। चाहे इसे तख्तों की सत्ता तथा प्रभाव क्षेत्र की लड़ाई के रूप में पेश किया जा रहा है और इस पर धार्मिक बहस जारी है कि कौन-से तख्त साहिब का अधिकार क्षेत्र क्या है, परन्तु असल बात तो यह है कि यह लड़ाई भाजपा तथा अकाली दल गठबंधन टूटने के बाद सिख धर्म स्थानों पर काबिज़ पक्षों की राजनीतिक लड़ाई है। इस समय स्पष्ट रूप में श्री अकाल तख्त साहिब तथा पंजाब के तख्त साहिबान की सत्ता शिरोमणि कमेटी के पास है, जहां अकाली दल सत्ता में है और पंजाब से बाहर की सिख संस्थाओं पर भाजपा या भाजपा के समर्थक सिख गुटों का प्रभाव है। यह लड़ाई तख्तों के जत्थेदार साहिबान के कद ही बौना नहीं कर रही, अपितु यह तख्त साहिबान की शान को भी ठेस पहुंचा रही है। हालांकि 23 मई, 2025 के इसी कालम में हमने लिखा था, ‘काश कुछ साझे प्रभावशाली व्यक्ति मध्यस्थता करने की कोशिश करें’, परन्तु अब गम्भीरता से स्थिति का पुन: मूल्यांकन करने पर यह स्पष्ट होता जा रहा है कि यह लड़ाई सिखों की धार्मिक लड़ाई कम है और दो पार्टियों की राजनीतिक लड़ाई ज़्यादा है। इतिहास सब याद रखता है और एक पल की गलती का खमियाज़ा कौमों को सदियों तक भुगतना पड़ता है। 
ये जबर भी देखा है ताऱीख की नज़रों ने,
लम्हों ने ़खता की थी सदियों ने सज़ा पाई।
-मुजफर रज़मी 
समाधान क्या है फिर? 
साहिब श्री गुरु नानक देव जी की बाणी मारू महला पहला की दो पंक्तियों का ज़िक्र यहां ज़रूरी प्रतीत होता है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के अंग 1038 पर लिखा है : 
‘त़खति बहै त़खतै की लाइक।’ 
तथा अंग 1088 पर फिर दर्ज है :
‘त़खति राजा सो बहै जि त़खतै लाइक होई।’
यदि सिर्फ तुक-अर्थ ही किये जाएं तो शायद जो हम कहना चाहते हैं, वह बिना कहे ही स्पष्ट हो रहा है। 
वास्तव में यदि हमने श्री अकाल तख्त साहिब तथा दूसरे तख्तों को सर्वोच्च मानने की बन गई परम्परा को जारी रखना है तो हमें तख्त साहिबान के जत्थेदारों की नियुक्ति, सेवा-मुक्ति तथा योग्यताओं का विधि-विधान जल्दी ही बनाना पड़ेगा, परन्तु अफसोस कि अब भी इस बारे जो यत्न हो रहे हैं, वे सिर्फ और सिर्फ श्री अकाल तख्त के जत्थेदार की नियुक्ति तथा सेवाओं के बारे हो रहे हैं। शेष तख्तों के जत्थेदारों की नियुक्तियों तथा सेवाओं बारे कुछ नहीं विचार किया जा रहा जबकि चाहिए यह है कि इन तख्तों के जत्थेदारों का कद तथा गरिमा इतनी ऊंची-सुच्ची हो कि उन्हें किसी भी राजनीतिक ‘आका’ के इशारों पर चलने की न तो ज़रूरत हो और न ही परवाह।
कुछ सुझाव
हालांकि यह बहुत बड़ा विषय है और कोई एक व्यक्ति इस बारे में अंतिम सलाह देने के समर्थ नहीं। पहले जत्थेदार की नियुक्ति सरबत खालसा बुला कर की जाती थी। आज के युग में सरबत खालसा बुलाना लगभग असम्भव जैसा है। अत: इसलिए सर्व-प्रमाणित तथा योग्य जत्थेदार के चयन के लिए एक सुझाव है कि पहले जत्थेदारों की नियुक्ति के लिए योग्य धार्मिक विद्वानों का एक पैनल बनाया जाए जो पहले निश्चित की जा चुकी योग्यता के मालिक उन व्यक्तियों से एक निश्चित समय में आवेदन ले जो स्वयं को इस महान पद पर सेवा करने के समर्थ समझते हों। यह पैनल या बोर्ड सभी आवेदन देने वालों का बाकायदा लिखित तथा मौखिक टैस्ट ले, जिसमें गुरबाणी की समझ, गुरबाणी आधारित जीवन-क्रिया, सिख तथा विश्व इतिहास की समझ, सिख धर्म बनाम संसार के अन्य बड़े धर्मों में अंतर एवं समानताएं तथा उम्मीदवार के अपने जीवन तथा रहित मर्यादा के बारे में अलग-अलग पेपर हों। इस परीक्षा में पहले 3 या 5 स्थानों पर आने वाले व्यक्तियों का जीवन ब्यौरा (रीज़ियूम) प्रकाशित किया जाए और सरबत खालसा जैसी स्वीकृति लेने के लिए एक ‘निर्वाचक मंडल’ को भेजा जाए। इस ‘निर्वाचक मंडल’ में सभी सदस्य शिरोमणि कमेटी, दिल्ली गुरुद्वारा कमेटी, हरियाणा गुरुद्वारा कमेटी, श्री हज़ूर साहिब तथा श्री पटना साहिब बोर्डों के सदस्य, मौजूदा जत्थेदार, श्री दरबार साहिब तथा तख्त साहिबान के मुख्य ग्रंथी निजी हैसियत में मतदाता हों जबकि सभी सिख सम्प्रदायों तथा कौम द्वारा मंज़ूरी-प्राप्त संस्थाओं का एक-एक प्रतिनिधि भी मतदान का अधिकारी हो और संसार भर में स्थापित गुरुद्वारों की कमेटियों को एक वोट का अधिकार या उस शहर की या समूचे एक शहर की गुरुद्वारा कमेटियों के समूह को संयुक्त रूप में एक वोट का अधिकार दिया जाए। फिर इन तीनों या पांचों उम्मीदवारों में से तब तक पदाधिकारी न चुना जाए जब तक कोई अकेला उम्मीदवार 51 प्रतिशत वोट नहीं ले जाता। इसलिए यदि किसी को 51 प्रतिशत वोट नहीं मिलते तो आगामी मातदान तक सबसे पीछे रहने वाला उम्मीदवार चुनाव से बाहर कर दिया जाए। आज के तकनीकी युग में यह चुनाव विधि अपनाना कोई अधिक कठिन काम नहीं। फिर जत्थेदार के अधिकार तथा सेवा-मुक्ति के नियम भी स्पष्ट तौर पर तय हों ताकि जत्थेदार बिना किसी डर-भय के सिखी विचारधारा के अनुसार तथा बिना राजनीतिक दबाव के काम कर सकें।  परन्तु जत्थेदार का कार्य क्षेत्र भी स्पष्ट हो, वे दैनिक राजनीतिक बातों में हस्तक्षेप न कर सकें और यह भी ज़रूरी हो कि फैसले 5 जत्थेदार ही करें, अपनी मज़र्ी के अन्य 3-4 ग्रंथी या प्यारे शामिल करके कोई फैसला न किया जा सके। आज के युग में प्रत्येक ज़रूरी मामले पर किसी समय भी ऑन लाइन बैठक की जा सकती है। 
सिख इतिहास पढ़ाना ज़रूरी 
अपने मरकज़ से अगर दूर निकल जाओगे,
़ख्वाब हो जाओगे अ़फसानों में ढल जाओगे।
दे रहे हैं तुम्हें, जो लोग ऱिफाकत का ़फरेब,
उनकी ताऱीख पढ़ोगे तो दहल जाओगे। 
‘इकबाल अज़ीम’ के इस शे’अर के अर्थ ये हैं कि यदि अपना केन्द्र भूल जाओगे तो किसी अनजान जगह पर पहुंच जाओगे, एक स्वप्न बन के सिर्फ एक कहानी हो जाओगे। जो लोग आपसे हमदर्दी जता कर अपनेपन का ़फरेब दे रहे हैं यदि उनका इतिहास पढ़ लोगे तो डर लगेगा। यहां सिख कौम के रहनुमाओं तथा नेताओं के लिए भारत के इतिहास का एक पृष्ठ पढ़ लेना ही काफी हो सकता है कि भारत में बुद्ध धर्म का खात्मा कैसे हुआ? भारत में अंतिम बोधी राज घराने मौर्य वंश के अंतिम राजा ब्रहिदर्थ को किसने, कैसे और क्यों मारा? शुंग वंश का पहला राजा पुशियामित्र शुंग कौन था, कैसे राजा बना और उसने क्या किया? ़खैर, जहां दूसरों का इतिहास पढ़ना ज़रूरी है, वहीं अपने इतिहास को जीवित रखना तथा विश्व को पढ़ाना भी ज़रूरी होता है।
यह काबिल-ए-तारीफ है दिल्ली के मंत्री मनजिन्दर सिंह सिरसा की पहल पर दिल्ली विश्वविद्यालय ने सिख इतिहास के कुछ ‘पृष्ठ’ अपने पाठ्यक्रम में शामिल करने का फैसला किया है। सिरसा का इसके लिए भी धन्यवाद कि उन्होंने मेरे सुझाव कि दिल्ली विश्वविद्यालय जो सिख इतिहास अपने पाठ्यक्रम में शामिल करे, उसके बारे सुनिश्चित बनाया जाए कि वह सिख स्कालरों की सलाह से स्वीकार किया जाए, को ध्यान में रखने का वादा किया है।
उल्लेखनीय है कि प्रत्येक विश्वविद्यालय अपना पाठ्यक्रम बनाने के लिए स्वतंत्र होता है। देश में इस समय 1168 विश्वविद्यालयों या उनके समान संस्थाएं हैं, जबकि पंजाब में भी 41 विश्वविद्यालय हैं। इनके इतिहास या समाज विज्ञान संबंधी विषयों में सिख धर्म बारे चैप्टर हो सकते हैं। वैसे मुझे नहीं प्रतीत होता कि पंजाब के सभी विश्वविद्यालयों में भी सिख इतिहास के चैप्टर शामिल होंगे। सिख देश का एक प्रमुख धार्मिक अल्पसंख्यक ही नहीं, सिख इतिहास भारत की शान तथा संघर्ष का इतिहास है। इसलिए शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी, दिल्ली गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी, हरियाणा कमेटी, श्री हज़ूर साहिब तथा श्री पटना साहिब बोर्ड, चीफ खालसा दीवान आदि संस्थाओं द्वारा देश तथा अपने-अपने राज्यों के विश्वविद्यालयों, राज्य तथा केन्द्र सरकारों एवं राजनीतिक पार्टियों के प्रमुखों के सिख इतिहास के महत्व तथा उनके देश की आज़ादी, शान तथा विकास में डाले गये योगदान के बारे में बताते हुए पत्र लिख कर तथा अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके ‘सिख इतिहास’ को विश्वविद्यालयों तथा स्कूल बोर्डों के इतिहास एवं समाज विज्ञान के विषयों में शामिल करवाने के यत्न करने चाहिएं। इसके लिए कांग्रेस नेता राहुल गांधी, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री तथा अन्य गैर-भाजपा राज्यों के मुखियों, ‘आप’ प्रमुख अरविंद केजरीवाल के साथ भी सम्पर्क करना बनता है जबकि देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तो सिखों से निकटता की बात करते ही हैं। मनजिन्दर सिंह सिरसा जिन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में यह पहल करवाई है, का भाजपा में इस समय काफी प्रभाव है, को भी और उत्साहित करना चाहिए। यह सिख धर्म तथा कौम की किसी समय देश तथा दुनिया में रही शान की पुन: बहाली की ओर एक बड़ा कदम सिद्ध होगा।

-मो. 92168-60000

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