मोटापे की चिन्ता है, पर दिल है कि मानता नहीं

जब सरकार जनता की चिंता करने लगे तो समझना चाहिए कि अवश्य कुछ गंभीर बात है और जब प्रधानमंत्री भी कहें कि हमारी जीवनशैली से जुड़ी बीमारियां स्वास्थ्य के लिए बहुत बड़ा खतरा हैं और मोटापा उनमें से एक है जो कई बीमारियों का मूल कारण है, तब हमें सचेत हो जाना चाहिए। आशंका यह है कि यदि इसमें बदलाव नहीं हुए तो यह भविष्यवाणी सत्य हो सकती है कि सन् 2050 तक हर तीन में से एक व्यक्ति अर्थात् एक तिहाई आबादी इस मोटापे से पीड़ित हो जाएगी। भलाई इसी में है कि समय रहते कदम उठा लिए जायें। जिन खाद्य पदार्थों पर सरकार की नज़र है उनमें समोसा, जलेबी, कचौरी, छोल-भटूरे और ऐसे ही व्यंजन हैं जिनसे मोटापा बढ़ता है। अब अगर कोई जानते बूझते इन्हें घर में लाता है या हलवाई की दुकान पर ही इनके स्वाद से संतुष्टि पाता है तो इसमें कोई क्या कर सकता है?
अगर हम अपने देश में शादी, वर्षगांठ या ऐसे ही किसी अवसर पर दावत का ज़िक्र करें तो पाएंगे कि इनमें परोसे जाने वाली सामग्री की गिनती दो-चार की नहीं बल्कि सैंकड़ों में हो सकती है। कोई मेहमान चाहे और हरेक का छोटा-सा टुकड़ा या कुछेक बूंद भी सेवन करे तो भी हर चीज़ नहीं चख पाएगा। फिर भी इतना खा पी ही लेता है कि घर पहुंचते पहुंचते ही खट्टी डकार लेने लगता है और एसिडिटी का शिकार होने से बच नहीं सकता। यदि कोई अक्सर ऐसी दावतों में जाता है तो उसे मोटा होने से कौन रोक सकता है और रीति-रिवाज़ है कि दावत हो तो शानदार वरना जीवन भर ताने सुनने पड़ेंगें। 
इसमें कोई संदेह नहीं कि तेल घी के ज़्यादा इस्तेमाल और तेज़ मसालों से ज़ायकेदार बना भोजन यदि नियमित रूप से खाया जाए तो शरीर की चर्बी बढ़ती है जिसे कम करने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है। यदि इसे नियंत्रित न किया तो रक्तचाप, मधुमेह और हृदय संबंधी समस्याएं हो सकती हैं। 
सरकार ने इसीलिए तय किया था कि तेलों की खपत में दस प्रतिशत की कमी की जाए और 2025 तक मोटापा ओढ़े हुए आधे लोगों को मुक्ति दिलाई जा, लेकिन यह संभव नहीं क्योंकि आधा साल बीत चुका है। 
अब सरकार को तो अपना काम करना ही है और वह भी नियम कायदे बनाकर। इसलिए सरकारी संस्थान एफएसएसएआई का गठन एक प्राधिकरण के तौर पर स्वास्थ्य मंत्रालय के अंतर्गत किया गया जिसकी ज़िम्मेदारी है कि खाद्य सुरक्षा के लिए मानक बनाये और उनका पालन करवाये। इसका काम है कि खाद्य सामग्री के बनाने, बेचने और आयात करने के लिए ऐसे उपाय करे जिनसे गुणवत्ता की जांच होती रहे और सेहत के लिए ठीक होने की व्यवस्था सुचारू रूप से चलती रहे। देशवासियों की सेहत से खिलवाड़ रोकना है जो स्वदेशी और अंतरराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा किसी न किसी रूप में किया जाता है। पैक या डिब्बे में बंद होकर बाज़ार में बिक्री के लिए जाने से पहले किसी भी खाद्य या पेय सामग्री का तय मानकों से होकर गुज़रना ज़रूरी है और उस पर इसका लोगो लगना भी अनिवार्य है ताकि उसकी क्वालिटी के बारे में निश्चिन्त हुआ जा सके।
जो भोजन ताज़ा बना हो और एक दिन बाद बासी हो जाए और खाने पीने योग्य न रहे, वह लंबे समय तक खाने लायक बना रहे तो उसमें कुछ तो ऐसा मिलाया जाता होगा जिससे वह खाने लायक हो या बदबू न आए। इसी की निगरानी यह संस्थान करता है और नियमों का उल्लंघन पाए जाने पर कारावास और जुर्माने की सिफारिश कर सकता है। मिलावट रोकने और मिलावटियों को सज़ा दिलाने का भी प्रावधान है।  
एक उदाहरण से समझिए। दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश से सन् 2014 में गठित एक समिति ने कहा कि स्कूलों में जंक फूड न पहुंचे, इसकी व्यवस्था हो। यह भी कहा गया कि पैकिंग पर बड़े अक्षरों में लिखा जाए कि यह भोजन किन चीज़ों से बनाया गया है और सेहत के लिए कितना फायदेमंद या हानिकारक है। समय बीतता गया और अनेक लोगों ने अपनी राय भी दीए यहां तक कि विज्ञान को भी इसमें शामिल किया गया और दिखाया गया कि उपभोक्ता का हित ही सबसे ऊपर है और उसके स्वास्थ्य की रक्षा करना सामग्री निर्माताओं का परम् कर्त्तव्य है। इससे कौन इंकार कर सकता है कि हम जो खा पी रहे हैं, वह जानने का अधिकार हमें है लेकिन बड़ी-बड़ी कंपनियों की नीति है कि उपभोक्ता को यह पता नहीं लगने देना है कि जो वह सेवन कर रहा है, वह किस चीज़ से बना है।
अप्रैल 2025 में तीन महीने का समय सर्वोच्च न्यायालय ने दिया कि खानपान की सामग्री पर यह सब लिखे जाने का प्रबंध हो जाए और जब यह अवधि समाप्त होने को हुई तीन माह की मोहलत और दे दी। इसके बीतने पर क्या होगा, यह कोई नहीं जानता। कंपनियों का कहना है कि उन्हें पूरी पैकेजिंग सामग्री फिर से बनानी होगी और इसमें इतना खर्चा होगा कि वे बर्बाद होने के कगार पर पहुंच सकती हैं। असल में यह कंपनियां और इनके मालिक कुछ स्वार्थी सियासी लोगों के साथ मिलकर कोई भी ऐसी व्यवस्था नहीं चाहते जिससे इनकी वास्तविकता सामने आ सके वरना किसी ईमानदार और जनहित सोचने वाले व्यक्ति को यह बताने में क्या जाता है कि वह जिस वस्तु को बना रहा है, उसका विवरण दे और और उपभोक्ता को तय करने दे कि उस पर विश्वास करे या ना करे। 
असल में ऐसी कोई व्यवस्था ही नहीं है कि खाद्य सामग्री के बारे में लोगों को सही जानकारी मिल सके, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में जहां शिक्षा की कमी तो है ही, साथ ही अंग्रेज़ी में क्या लिखा है, वे समझ नहीं पाते। इसे देखते हुए सुझाव दिया गया कि पैकेट पर रंग छापे जाएं या चित्र अथवा आकृति या कार्टून बनाये जाएं जिससे उपभोक्ता समझ सके कि जो वह खरीद रहा है, वह उसकी सेहत के लिए कितना ठीक है। प्राथमिक स्वास्थ्य तथा सामुदायिक केंद्रों या स्व सहायता समूहों के ज़रिए विज्ञापन या फिल्म दिखाकर भी जागरूकता फैलाने का काम किया जा सकता है। ख़तरनाक रसायनों या मसाले से पके फल और सब्ज़ियां कितनी हानिकारक होती हैं, यह बताए जाने की ज़रूरत है क्या और यह भी कि यह गैर-कानूनी है। नालों के कीचड़ भरे पानी से फल और सब्ज़ियों की धुलाई और उन पर विषैले रंग की परत बहुत मामूली बात है। 
सरकार तो प्रयास कर ही रही है लेकिन जनता का भी कर्त्तव्य है कि वह ऐसी वस्तुओं का बहिष्कार करे जिनके बारे में तथ्यों को छिपाया गया हो। अच्छे स्वास्थ्य की एक ही कुंजी है और वह है सुपाच्य भोजन और समय पर खाना। वजन बढ़ने या घटने का पैमाना हमें तय करना है। 
 

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