किधर शब्द-सवार तुर गिया

10 मई को लुधियाना से बरनाला और बरनाला से जगराओं के पंज दरिया होटल में सज्जनों के चाव में शामिल डा. सुरजीत पातर जी रात को देर से घर पहुंचे। सुबह बहन जी भुपिन्दर पातर ने हिलोरा देकर उठाया तो साजन प्यारे लम्बी उड़ान पर जा चुके थे, साथ में मौजूद बहन जी भुपिन्दर ने पुत्र को ब्रिस्बेन (आस्ट्रेलिया) फोन किया, पुत्र अंकुर! तुम्हारे पिता नहीं उठ रहे? अश्रु-अश्रु घर, आंगन, दरवाज़ा। अंकुर ने अपने बचपन के दोस्त मेरे पुत्र पुनीत को कहा, तुरन्त मम्मी के पास पहुंच! पापा नहीं जाग रहे। यह सुन कर मैं भी घबरा गया। रणजोध को तुरंत उनके घर 46-47 आशापुरी पहुंचने को कहा पर पुनीत ने एडवोकेट हरप्रीत संधू को। वे दोनों पातर जी को तुरन्त ओरीसन अस्पताल ले गये। पुनीत पहुंचा तो डाकटर कह रहे थे, खेल तो काफी समय पहले खत्म हो चुका है। पातर जी का छोटा पुत्र मनराज भी फिल्लौर से पहुंच गया, जहां वह ट्रेनिंग पर था। सहजवंत सुहजधारी शायर सुरजीत पातर की मौत संबंधी समाचार पल भर में पूरे विश्व में पहुंच गया। हर नेत्र नम हुआ। सबको लगा कि हमारे घर का सदस्य संसार से चला गया है। पातर साहिब के जाने के कुछ समय बाद ही उनके छोटे भाई उपकार सिंह की जीवन संगिनी की नई दिल्ली में उपचार के बावजूद मौत हो गई। दर्द का सैलाब आ गया। 
दूसरे ही दिन शाम को आस्ट्रेलिया से फ्लाईट लेकर अंकुर भी घर पहुंच गया। 13 मई को सुबह 11 बजे अंतिम संस्कार हो गया। उत्तर भारत के उनके दोस्त-मित्र, चिंतक और लेखक सुरजीत पातर को अलविदा कहने के लिए माडल टाऊन एक्सटैन्शन लुधियाना के श्मशान घाट आए। डा. स.स. जौहल से लेकर प्रदेश के मुख्यमंत्री तक सब ़गमगीन थे। स्कूलों कालेजों के बच्चों सहित घर परिवार रिश्तेदार मित्र सब नि:शब्द थे।
मैं और सतबीर सिंह सिद्धू, दीप जगदीप और सुरिन्दर सागर डेढ़ बजे तक श्मशान घाट में बैठे रहे, दीप जगदीप एवं सुरिन्दर सागर जलती चिता के पास जाकर पातर साहिब को उनकी ़गज़लें सुना रहे थे। दीप जगदीप फोन पर रिकार्ड कर रहे थे। श्मशान की शांति में हरि प्रसाद चौरसिया का बांसुरी वादन सुनाई दे रहा था।
पातर साहिब ने अपनी पहली किताब का पहला नाम भी तो ‘लिखतुम नीली बांसुरी’ रखा था न! इमरोज़ से टाईटल बनवाकर छपवा भी लिया। हम छपे टाईटल को किसी पहले छपी किताब पर चढ़ाकर स्वांद-स्वांद होते रहे। बाद में उन्होंने किताब का नाम बदल कर ‘हवा विच लिख हऱफ’ रख लिया था जिसको जनमेजा सिंह जौहल ने छापा था पहली बार।
मुझे बोल याद आ रहे थे पातर साहिब जी की एक ़गज़ल के :
हुंदा सी ऐथे श़ख्स इक सच्चा किधर गया
इस पत्थरां के शहर चों शीशा किधर गया?
जांदा सी मेरे पिंड नूं रस्ता किधर गया
पैड़ां दी शायरी दा उह वरका किधर गया?
सच में वरका गुम हो गया लगता है। कुछ लिखने पढ़ने का दिल नहीं कर रहा। लगता है, पातर साहिब शब्दों सहित सब कुछ साथ ले गये थे। कीरतपुर साहिब परिवार के साथ अस्थियां जल प्रवाह करके पंजाबी शायर गुरविन्दर सिंह जौहल (चाक) कह रहा है।
भा जी, यकीन-सा नहीं होता अभी भी कि पातर साहिब जा चुके हैं।
यही हालत देश-विदेश में रहने लोगों की है। कुलदीप सिंह धालीवाल याद करवा रहे मुझे 2012 की वह अमरीका में मिलपीटस में हुई कांफ्रैंस, जिसमें सुरजीत पातर और सुखविन्दर अमृत के अतिरिक्त आपके सहित कनाडा से वरियाम संधू और कुलविन्दर खैहरा हाज़िर थे। सुखविन्दर कंबोज और कुलविन्दर का पांव धरती पर नहीं लग रहा था। वह रौनकें अब कभी नहीं लगेंगी। उसी समागम में ही तो मैं वहां पाश के पिता जी मेजर सोहन सिंह संधू और पाश की बेटी विंकल से मिला था। उसकी गोद में एक छोटा सा बच्चा था, पाश जैसी बिल्लौरी आंखों वाला।
11 मई को सुबह सूर्य उदित होते ही अस्त हो गया। सुबह साढ़े सात बजे ही उदास खबर मिल गई कि सुरजीत पातर जी का देहांत हो गया। 10 मई को तो वह साहित्य सभा बरनाला के समागम की अध्यक्षता कर रहे थे। शाम को जगराओं के निकट अपने मित्र कनाडा से आए मित्र हरजिन्दर थिंद, मोहम्मद सदीक, जसवंत संदीला, जी.एस. पीटर और अमनदीप फल्लड़ के साथ बगलगीक थे, रात पौने ग्यारह बजे तक। 
आंखें बंद करके अन्तर्ध्यान होकर देख रहा हूं। सुरजीत पातर जी का व्यवहार, तौर तरीका, विचरण अंदाज, सहज स्वभाव बहते दरिया की तरह लगता था। निरंतर बहता, किनारों को नहीं तोड़ता। अपनी सीमा और समर्थ्य को जानने वाला यदि कोई समकालीन शायर था तो वह सिर्फ सुरजीत पातर ही थे। उनकी शायरी के साथ मेरी सामंजस्यता का यह 52वां साल है।
मैंने पातर साहिब को पहली बार गुरु नानक कालेज काला अफगाना (गुरदासपुर) में गुरु नानक देव जी की 500 साला शताब्दी को समर्पित 1970 में पहली बार सुना था।
सुरजीत पातर पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला में तब रिसर्च फैलो थे। बाद में अपने मित्र डा. जोगिन्दर कैरों की सलाह पर बाबा बुड्ढा कालेज बीड़ साहिब (अमृतसर) में पढ़ाने लगे। 1971 में मैं लुधियाना जी.जी.एन. खालसा कालेज में पढ़ने आ गया। यहां शमशेर सिंह संधू और कुछ अन्य दोस्तों के साथ मिलकर हमने डा. स.प. सिंह जी के नेतृत्व में ‘संकल्प’ नामक अकालिक धारावाहिक मैग्ज़ीन प्रकाशित करना शुरू कर दिया। लेख इकट्ठे करते हुए मैंने सुरजीत पातर जी की कविताएं मांगने के लिए ज़िम्मेदारी ले ली। पोस्टकार्ड लिखा बीड़ साहिब के नाम पर। जवाबी पत्र आ गया कि अगले महीने लुधियाना में ही नौकरी के लिए पंजाब एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी में प्रोफैसर मोहन सिंह जी के पास आ रहा हूं। आकर कविताएं दे दूंगा। मैं पहले कुछ दिन पावटे हाउस में आकर रहूंगा, मिल लेना।
डा. म.स. रंधावा जी ने कलात्मक माहौल शिखर पर पहुंचा दिया था। वह वाईस चांसलर थे और वही प्रोफैसर मोहन सिंह जी को लुधियाना लेकर आए थे। कहानीकार कुलवंत सिंह विर्क, अजायब चित्रकार और उर्दू  कवि कृष्ण अदीब पहले ही यूनिवर्सिटी की सेवा में थे। डा. स.न. सेवक. डा. दलीप सिंह दीप, डा. विद्या भास्कर अरुण, डी. साधु सिंह, गुरपाल घवद्दी और नछत्तर भी इस यूनिवर्सिटी की सेवा में थे।
सुरजीत पातर की तब तक कोई किताब नहीं छपी थी। परमिन्दरजीत और जोगिंदर कैरों के साथ सांझे तौर पर पहली पुस्तक ‘कोलाज किताब’ भी बाद में छपी। छिटपुट कविताएं और ़गज़लें एकत्रित करके जान-पहचान के लिए हमने मसाला इकट्ठा किया।
इस समागम की अध्यक्षता युग कवि प्रो. मोहन सिंह जी ने की थी। श्रोताओं में नौजवान कवि इकबाल रामूवालिया और सुरिन्दरजीत, देव, पाश, अमरजीत ग्रेवाल, सुखचैन और गुरशरण रंधावा भी बैठे थे। सुरजीत पातर ने नई कविताएं सुनाईं : बुड्ढी जादूगरनी आखदी है, घरर घरर, पच्छों ते पुरवइया, मकतूल सज्जन नोट करन पहली बार सुनाई। एक कविता का कुछ हिस्सा अब तक याद है-
मेरी धुप बीमार पई है।
मेरे सूरज नूं घड़ीयां ने टुक्क दित्ता है।
दफ्तर दे दरवाजियों बाहर
मेरी नज़्म उडीकदी मैंनूं बुड्ढी हो गई,
उस विचारी दे तां लंमड़े वाल मुहाणे,
......................................
सर्कस वाला बुड्ढा शेर हुन आवेगा
पल विच मेरे सारे सुपने भसम करेगा
मैं कविता, मैं भीड़ का पुरजा
गुच्छू मुच्छू हो के एक दराज़ दे अंदर बहि जावांगा।
उसकी कविता ‘पुल’ बेअंत मूल्यवान कृति है। इसको पातर के मुंह से सुनने का अपना ही सौभाग्य था। इस कविता के बीच का दर्द शब्दों से बाहर भी फैलता है। मैं इसको आज भी बहुत बलवान कविता के रूप में स्वीकार करता हूं। 
मैं जिन लोगों के लिए पुल बन गया था
जब वे मेरे ऊपर से निकल रहे थे
शायद कह रहे थे
कहां रह गया वह चुप सा आदमी
शायद पीछे मुड़ गया है
हमें पहले ही पता था
 उसमें दम नहीं है।
लुधियाना में सुरजीत पातर के आगमन के साथ यहां कविता लोकप्रिय हो गई थी। पहले चाहे प्रो. मोहन सिंह और अजायब चित्रकार जैसे समर्थ कवि उपस्थित थे, परन्तु पातर के आने से सक्रियता बढ़ी। यूनिवर्सिटी में डा. स.न. सेवक की हिम्मत से यंग राईटज़र् एसोसिएशन अच्छा फोरम बन चुका था। इसी फोरम ने ही डा. ़फकीर चंद शुक्ला, अमरजीत ग्रेवाल, डा. सुखचैन मिस्त्री, प्रदीप बोस, डा. गुरशरण रंधावा, डा. अमरजीत टांडा, शरणजीत मणकू, जनमेजा जौहल, सुखपाल और कई अन्यों को विशेष पहचान दी।
सुरजीत पातर जी के मूल्यवान साहित्य सृजना को नमन करते हुए भारत के पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने भी सिर झुकाया है, पत्रकारिता के निडर योद्धा रवीश कुमार ने भी। प्रसिद्ध गायक दिलजीत ने तो कैलीफोर्निया में अपना एक शो ही पातर साहिब को समर्पित किया। विदेश में ही लोक गायक डा. सतिन्दर सरताज ने अपना एक शो पातर साहिब की निम्नलिखित रचना के साथ शुरू किया :
चल पातर हुण ढूंडन चल्लिए भुल्लियां होईयां थावां
कित्थे कित्थे छड्ड आए हां अणलिखियां कवितावां।
सुरजीत पातर जी के जाने पर हर आंख नम हुई लेकिन पंजाबी लेखक जंग बहादुर गोयल की टिप्पणी मूल्यवान है, मौत हमसे सुरजीत को छीन सकती है, पातर नहीं। शायर और गायक देबी मखसूसपुरी अश्रु-पुरित है उसी दिन से। सरी (कनाडा) वाला मोहन गिल कह रहा है, शब्द हार गये हैं।
 उसके जाने के बाद लिखी इस ़गज़ल के कुछ शेयरों के साथ ही विदा होता हूं :
चढ़दे सूरज दे विच लुकिया, 
किधर शब्द-सवार तुर गिया।
हुन नहीं कदे कुवेला करदा, 
करके कौल करार तुर गिया।
एस तरां तां हौका वी ना 
हिकड़ी विचों ऱुख्सत हुंदा, 
कोल पियां नूं मार झकानी, 
चुप दी बुक्कल मार तुर गिया।
अचनचेत किस मारग तुरिया, 
पिछे छड्ड के गंध कस्तूरी,
लब्भदे फिरीये पौणां विचों, 
सब नूं जिऊंदे मार तुर गिया।