नैतिक शिक्षा के अभाव में अपराध की ओर बढ़ते नाबालिग

हम ऐसे समाचारों से ज़रूर चौंक जाते हैं कि बच्चे या किशोर ने कोई गम्भीर अपराध कर दिया अथवा किसी अपराध को अंजाम देते पकड़ा गया। क्रोधी और ज़िद्दी स्वभाव वाले बच्चे तो आम तौर पर देखने को मिल ही जाते हैं। नाबालिगों का अपराध में संलिप्त होना बेहद गंभीर मसला है। जिस उम्र में बच्चों के कंधों पर बस्ता और हाथ में कलम होनी चाहिए, उस उम्र में बहुत-से पढ़ाई से भटक कर वे अपराध की तरफ  अग्रसर हो रहे होते हैं। 
दरअसल हमारे परिवेश विशेष रूप से पारिवारिक व सामाजिक बदलाव का असर बच्चे के नाज़ुक दिलो-दिमाग पर भी हो रहा है। परिवार में उचित देखभाल की कमी व नैतिक शिक्षा नहीं मिलने से बच्चों के कदम अपराध की ओर बढ़ने लग जाते हैं और इसकी शुरुआत नशे से होती है। बच्चों को अपराध की ओर धकेलने में नशा मुख्य कारण होता है। फिर अपनी लत व इच्छा की पूर्ति के लिए वे अपराध की राह पर चल पड़ते हैं। नाबालिगों में आक्रामकता की ऐसी प्रवृत्ति इससे पूर्व कभी नहीं थी। यही कारण है कि अभिभावकों, मनोवैज्ञानिकों और समाज शास्त्रियों के लिए यह मामला चिंताजनक बन गया है।  महानगरों में नाबालिग अपराधियों की संख्या में ज़बरदस्त वृद्धि के आंकड़े  चौंकाने वाले हैं। किसी भी सभ्य समाज के लिए यह अच्छा संकेत नहीं हो सकता। जिनके कंधों पर देश के भविष्य की बागडोर टिकी है, उनका इस तरह आपराधिक वारदातों में लिप्त होना चिंताजनक है। ऐसे में परिजनों की ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती है। बच्चों के रहन-सहन तथा उनके मित्रों के संबंध में ज़रूरी जानकारी उन्हें रखनी चाहिए। जब कभी भी बच्चा असामान्य लगे तो उसे समझने की ज़रूरत है। 
वैसे बच्चों के बिगड़ने या उनके अपराधों में संलिप्त होने के पीछे कई कारण हैं। इस संदर्भ में फिल्मों और टेलीविजन की भूमिका की अनदेखी नहीं की जा सकती। मनोचिकित्सकों की राय में इस तरह के कार्यक्रमों में जिस तरह से अपराध और हिंसा को नायक के रूप में दिखाया जा रहा है, उसका बच्चों और किशोरों के दिमाग पर बुरा असर पड़ता है।  अपरिपक्व बुद्धि के कारण बच्चे फिल्मों के नायक या खलनायक को अपना रोल माडल बना लेते हैं। इसके परिणामस्वरूप उनकी सोच नकारात्मक व आक्रामक हो जाती है। एक अध्ययन के अनुसार जो बच्चे अपराधों में लिप्त पाये गए, उनमें से ज्यादातर ने यह स्वीकार किया कि उन्हें अपराध करने की प्रेरणा हिंसात्मक फिल्मों व टीवी कार्यक्रमों से ही मिली थी।  उपभोक्तावादी संस्कृति को भी काफी हद तक इस समस्या के लिए ज़िम्मेवार माना जा सकता है। शार्ट कट से पैसा कमाने की लालसा भी इस समस्या का प्रमुख कारण है। आज चमक-दमक सभी नैतिक मूल्यों पर हावी हो रही है। इस कारण बच्चों के अंदर हर वस्तु पाने की लालसा बढ़ जाती है। ज्यादातर मां-बाप कमज़ोर आर्थिक स्थिति के कारण बच्चों की ऐसी मांगों को पूरा करने की हैसियत में नहीं होते। इस कारण अक्सर बच्चे गुमराह होकर अपराध की ओर अग्रसर हो जाते हैं।
 अनेक बच्चे अपनी ज़रूरतों की ओर माता-पिता का ध्यान आकर्षित करने के लिए गलत कदम उठाने से परहेज नहीं करते। ऐसे बच्चों के मन में यह धारणा घर कर जाती है कि गलत हरकतें करने से वे  माता-पिता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हो सकते हैं। आपराधिक कृत्यों को अंजाम देने के पीछे उनमें अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने की मंशा ही छिपी होती है। 
एक महत्वपूर्ण कारण घर का नकारात्मक माहौल भी है जहां  माता-पिता के बीच आये दिन होने वाली कलह और उनकी संतानों से संवादहीनता बच्चों के मन-मस्तिष्क पर दुप्रभाव डालती है। ऐसे बोझिल वातावरण में बच्चों के मन में हीन ग्रंथियां पैदा होती हैं और वह स्वयं को उपेक्षित महसूस करने लगते हैं। उन्हे लगता है कि कोई उसे प्यार नहीं करता। इस स्थिति में बच्चा कुसंगति में फंसकर असामाजिक कार्यों को अंजाम देने लगता है। 
नाबालिक किसी न किसी रोल माडल का अनुकरण करते हैं। विडम्बना यह है कि वे अपना आदर्श या रोल माडल फिल्मी हीरो, पैसे अथवा ताकत वाले को मानने लगे हैं। यह स्थिति पूरे समाज के लिए शोचनीय है। इधर यह भी देखा जा रहा है कि बच्चों में खिलौना हथियार के प्रति लालसा कुछ ज्यादा ही बढ़ी है। टेलीविजन में हर क्षण हिंसक कार्यक्रम देखने से बच्चे के अंतर्मन में हिंसक विचारों की जड़ें जमने लगती हैं। बच्चों को सही दिशा देने की बुनियादी ज़िम्मेदारी पहले अभिभावकों की और फिर शिक्षकों की। 
घर में प्रेमपूर्ण व अनुशासित वातावरण तैयार करने की ज़िम्मेदारी अभिभावकों की ही है। उन्हें बच्चों के लिए वक्त निकालना चाहिए। वे बच्चों की सभी मांगों को गौर से सुनें परन्तु उनकी उचित मांगों को ही पूरा करें। वहीं नाबा अपराध खत्म करने की दिशा में मीडिया को सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए। मीडिया अपराध करने वालों को नायक के रूप में पेश न करे। जहां तक संभव हो, बच्चों को टी.वी., कम्प्यूटर अथवा महंगे मोबाइल के हवाले करके निश्चित होकर न बैठ जाएं बल्कि नज़र रखें कि वह किसी सोशल मीडिया से ते नहीं जुड़ा है और क्या कर रहा है। अफसोस की बात तो यह है कि आजकल माता-पिता भी दिन भर फेसबुक, वाह्ट्सअप, कम्प्यूटर अथवा टी.वी, से चिपके रहते हैं, ऐसे में बच्चे सीखें भी तो आखिर किससे? 
मौजूदा दौर में भौतिक मूल्य नैतिक मूल्यों पर हावी हो रहे है। इस पृष्ठभूमि में स्कूली पाठयक्रमों में नैतिक मूल्यों की शिक्षा पर विशेष ज़ोर दिए जाने की ज़रूरत है। शिक्षक छात्रों को समझाएं कि दुनिया में पैसे के अलावा प्रेम, कर्त्तव्य-निष्ठा, उदारता और ईमानदारी जैसे नैतिक मूल्यों का भी महत्व है। 
आश्चर्य तो यह है कि एक ओर हमारी सरकारें बच्चों को धर्म के आधार पर बांटती है। में सरकार को भी हठधर्मिता छोड़ संबंधित विभागों के साथ स्वयंसेवी संगठनों की मदद से बच्चों को अपराध से दूर रखने की दिशा में काम करना चाहिए। क्या यह उचित समय नहीं है कि देश के कर्णधार चुनने के बाद हम अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की राह चुनें। (युवराज)