‘विरासत कर’ पर क्यों बरपा हंगामा ?

इंडियन ओवरसीज कांग्रेस के प्रमुख सैम पित्रोदा ने विरासत कर संबंधी दिये अपने बयान के बाद सफाई देते हुआ कहा कि कांग्रेस सहित किसी भी पार्टी की नीति का कोई इससे कोई संबंध नहीं है। लेकिन लगता है पित्रोदा को सफाई देने में देर हो गई, क्याेंकि जब तक उनकी सफाई आती, इसके पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पित्रोदा की इस बयान को कांग्रेस को घेरने के लिए लपक लिया। उन्होंने अंबिकापुर (छत्तीसगढ़) में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए कहा, ‘शाही परिवार के शहज़ादे के सलाहकार, जो उनके पिता के भी सलाहकार थे, ने एक बार देश के मेहनतकश मध्यवर्ग पर भारी कर लगाने का सुझाव दिया था। अब, कांग्रेस एक कदम आगे बढ़ गई है और उसका इरादा उस सम्पत्ति पर कर लगाने का है, जो आप अपने माता-पिता से विरासत में पाते हैं, आपकी कड़ी मेहनत से अर्जित सम्पत्ति से आपके बच्चे वंचित हो जायेंगे। इसका अर्थ है कि लूटना कांग्रेस का मंत्र है... ज़िन्दगी के साथ भी, ज़िन्दगी के बाद भी। 
कांग्रेस ने पित्रोदा के बयान से खुद को अलग करते हुए कहा कि ‘विरासत कर का समर्थन भाजपा के मंत्री करते हैं, हमारी ऐसी कोई योजना नहीं है’। कांग्रेस नेता जयराम रमेश के अनुसार, ‘भाजपा के वित्त राज्यमंत्री जयंत सिन्हा ने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि वह 2014 में विरासत कर लाना चाहते थे। 2018 में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने विरासत कर की तारीफ की थी.. कांग्रेस की कोई योजना विरासत कर लाने की नहीं है।’ गौरतलब है कि अनेक देशों में विरासत कर लगाया जाता है। जापान में यह 55 प्रतिशत है, अमरीका व इंग्लैंड में यह 40 प्रतिशत है। दिवंगत व्यक्ति के पैसे व सम्पत्ति के कुल मूल्य (छूट व कटौती के बाद) पर विरासत कर लगाया जाता है और उसके बाद ही उसे उसके कानूनी वारिसों में वितरित किया जाता है। भारत में एस्टेट टैक्स 1953 में लागू किया गया था (जोकि कुछ राज्यों में 85 प्रतिशत तक था), लेकिन 1985 में कांग्रेस की राजीव गांधी सरकार ने इसे निरस्त कर दिया था। वेल्थ टैक्स जो व्यक्ति की सम्पत्ति पर कुछ सीमाओं के साथ लगाया जाता था, को 2015 के बजट में खत्म किया गया क्योंकि इस पर खर्च अधिक आ रहा था और सरकार को आमदनी कम हो रही थी। इसकी जगह सुपर-रिच (जिनकी आय सालाना एक करोड़ रुपये से अधिक है) व्यक्तियों पर सरचार्ज लगाया गया। 
आर्थिक असमता भारत की ही नहीं बल्कि वैश्विक समस्या है, क्योंकि कहीं बहुत ज्यादा तो कहीं बहुत कम पैसा है। 24 अप्रैल, 2024 को भारत के चुनाव अभियान में भी यह बड़ा मुद्दा बना, लेकिन निजी एसेट्स के पुन:वितरण ने आज तक कहीं भी असमता की समस्या का समाधान नहीं किया है। मुफ्त राशन वितरण भी इस मुश्किल का हल नहीं है। दरअसल, जब आर्थिक गतिविधि में हिस्सेदारी का विस्तार किया जाता है, तभी हर कोई जीतता है और लोकतंत्र व निजी सम्पत्ति हाथ में हाथ डालकर आगे बढ़ते हैं। संक्षेप में यह कि विरासत कर व वेल्थ टैक्स न केवल ख़राब विचार हैं बल्कि गलत प्रतिक्रियाएं हैं, समाज की आर्थिक ऊंच-नीच को दूर करने के लिए। भारत में अनेक लोग लगभग प्रतिदिन भिखारियों को भिक्षा देते हैं, लेकिन इससे भिक्षावृत्ति तो दूर नहीं हुई, बल्कि बढ़ती ही जा रही है और किसी भिखारी को आर्थिक रूप से स्वतंत्र होते नहीं देखा गया। आर्थिक गतिविधि में हिस्सा लेने से ही आर्थिक आत्मनिर्भरता आती है। इससे ही अमीरी व गरीबी की खाई को पाटा जा सकता है। 
अमरीका के राष्ट्रपति जो बाइडन हैं, लेकिन जब उन्होंने वेल्थ टैक्स का प्रस्ताव रखा तो उन्हें भी मुंह की खानी पड़ी। दरअसल, इनमें से कोई भी विचार नया नहीं है। इन्हें इसलिए नहीं अपनाया गया क्योंकि ये अव्यवहारिक हैं। मसलन, अमरीका को ही लें, वहां फैडरल विरासत कर नहीं है। केवल छह राज्यों में एक प्रकार का विरासत कर है और इन राज्यों में भी बड़े कॉर्पोरेट या टेक जायंटस नहीं हैं। अन्य राज्यों में विरासत कर इसलिए नहीं लगाया गया है क्योंकि वहां से पूंजी छूमंतर हो जायेगी। दुनिया नयी औद्योगिक क्रांति के मध्य में है, जिसका आधार कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी है। यह पिछली औद्योगिक क्रांतियों के पैटर्न का ही पालन कर रही है। टेक्नोलॉजिकल परिवर्तन के लाभ असमतल बहते हैं। ज़ाहिर है कि इस बदलाव के सबसे निचले पायदान पर श्रम है, क्योंकि नई ज़रूरतों की पूर्ति करने के लिए मानव स्किल्स को अपग्रेड करने में समय लगता है। सरकारें इस परिवर्तन के त्वरित कुप्रभाव या प्रभाव का प्रबंधन करने के लिए कभी-कभार खराब विचार लेकर आती हैं; विरासत कर व वेल्थ टैक्स ऐसे ही खराब विचार हैं। 
यह विचार अपने आपमें हवाहवाई और बेतुका है क्योंकि यह काल्पनिक वेल्थ को अपनी तरफ आकर्षित करता है जैसा कि बाइडन का वेल्थ टैक्स। इसमें अवास्तविक पूंजी लाभ पर कर लगाना प्रस्तावित है। जिसका अर्थ यह है कि यह भविष्य में होने वाले लाभ या अनुमान पर लगाया जायेगा। यह विचार कितना अव्यवहारिक है इसका अंदाज़ा एलन मस्क की घटती-बढ़ती ‘दौलत’ से ही लगाया जा सकता है। दो वर्ष पहले उनका काल्पनिक लाभ आसमान छू  रहा था, लेकिन आज शेयर मूल्य में ज़बरदस्त गिरावट के कारण उनकी नेट वर्थ वैसी नहीं रही है। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि लाभ के बहाव की जो असमतल गति है, उसके वास्तविक संसार में गंभीर परिणाम हैं। भारत में यह इस रूप में दिखायी देता है कि पिछले चार दशकों में जीडीपी ग्रोथ तो मज़बूत हुआ है, लेकिन रोज़गार की संरचना निरन्तर कमज़ोर हुई है। ज़मीनी स्तर पर रोज़गार सृजन की गति आर्थिक विकास की तुलना में बहुत धीमी रही है। इस नुकसान को नियंत्रित करने के लिए सत्ता में आने के बाद भारत के सभी राजनीतिक दलों ने वेलफेयर स्टेट का ही विस्तार किया है कि मुफ्त राशन बांट दो, सब्सिडी दे दो, मुफ्त रेवड़ियों का चुनावी वायदा कर लो, आदि।

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