कुर्सियों के रखवाले!


पिछले दिनों इतना कोलाहल रहा कि कान पड़ी आवाज़ हमें सुनाई नहीं दी। आपने हमें सुना तो शुबहे की नज़र से देखा, फिर ठट्ठा कर हंसे, ‘लो सुन लो मियां की बात। आवाज़ कान में पड़े और सुनाई न दे।’ हम कान खुजलाते रह गये, और उन्होंने हमें दर-किनार कर दिया। अब हम कैसे-कैसे उन्हें समझायें कि प्रतिदिन ऐसी न जाने कितनी आवाज़ें रोज़ हमारे कान में पड़ती हैं, लेकिन सुनाई हमें वही देता है, जो हमें अपने-अपने समय के महाप्रभु सुनाना चाहते हैं।’
जी हां, यहां आम आदमी के लिए समय बदले न बदले, महाप्रभुओं के लिए अपना-अपना समय बदलने की धक्कमपेल चलती रहती है। एक-दूसरे के बीच से कुर्सी खींचने का प्रयास होता रहता है। इन सब महाप्रभुओं ने नारे उछालने, नाटकीय भंगिमायें बदलने का प्रशिक्षण प्राप्त कर लिया है। वेशभूषा धारण करने और समयोचित परिधान धारण करने के नये डिप्लोमें भी उनके लिए बाज़ार में आ गये हैं।
अच्छा महाप्रभु वही जो गंगा गये तो गंगाराम हो गये, और जमना जाये तो जमनादास हो जाये। इसलिए पहाड़ियों में जाओ तो पहाड़ी वेशभूषा पहनो और ग्रामीण अंचलों में दर्शन देने का उपकार करना है, तो पहले अपने टेलर मास्टर उस अंचल की वेशभूषा के अध्ययन के लिए भेज दो। आजकल महा प्रभुओं का साधारणीकरण हो रहा है। सुना है बापू गांधी समता सन्देश के लिए हरिजन बस्तियों में रह जाते थे। अपने अनशन और मौन व्रत का संकल्प वहीं रहकर पूरा किया करते थे। उन्हीं से प्रेरित हैं, महाप्रभु। उनकी बस्तियों में रह नहीं सकते, तो कम से कम उनके घरों का भोजन तो अपना रसोइया भेज कर बनवा लिया और थैले से बिसलेरी निकाल, दो घूंट भर कर कहा, ‘अहा! स्वच्छ भारत! देखते-ही देखते पानी दोष रहित हो गया।’
देश तरक्की कर रहा है, इसका साक्ष्य यही है कि आपका अपना परिवार तरक्की करता रहे। आया राम गया राम की बात कहना आज अर्थहीन हो गया है, क्योंकि सभी महाप्रभु एक ही समय आने की फिराक में लगे रहते हैं और दांव न लगे तो वहां से उड़न-छू होते हुए भी उन्हें देर नहीं लगती। कल जो तांगा पार्टी कहलाते थे, आज वह शासन का रथ हांकते नज़र आते हैं। उनके रथ का पहिया कीचड़ में धंस जाये, तो इसे खानदायी अदावत का नाम दे अपने पीरो-मुर्शिद की पीठ में छुरा घोंपते उन्हें देर नहीं लगती।
रोज़ इनके सामूहिक गान बदलते हैं, ‘कस्मे वादे प्यार वफा सब, बातें हैं बातों का क्या?’
बातें, बातें और सिर्फ बातें। यहां बातों का हुजूम है, जो अपने बाहुबलि हो जाने में देश के बाहुबलि हो जाने की घोषणा करता है। मरने से पहले बेटे को एक दल में नाती-पोतों को दूसरे दल में भिड़ा देने में कोई सैद्धांतिक संकट नहीं है उन्हें प्यारे। देश की सेवा का नारा लगाना है, किसी भी मंच से लग जाये, लेकिन लगे अवश्य। अभी एक दादा जी अपने बेटे को एक दल में भिड़ा पोते सहित दूसरे दल में छलांग लगा गये, क्योंकि वहां बर्थ खाली थी। उनका बेटा इस आवागमन के चक्कर को देखता है, तो सब चलने देता है, क्योंकि आजकल जीने का स्वर्णिम सिद्धांत है, सवारी अपने सामान की खुद ज़िम्मेदार है। तुम अपनी कुर्सी संभालो, हम अपनी कुर्सी संभालें बाबा। बाकी जनता भजे गोपाला गोपाला।
हमारे आसपास राजनीति का ऐसा बवंडर उठा है कि अन्धे को बहरा घसीट रहा है। अंधविद्यालय में अज्ञानी विज्ञानी बने ब्रेल लिपि से शिक्षा दे रहे हैं। अनाथाश्रमों के मुखिया और विधवाश्रमों के तारणहार अपने परिचय-पत्रों को समाजसेवा से महिमामंडित करके सफलता की एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी तक कूद जाना चाहते हैं।
सच निर्वासित हो गया है। नया युगबोध बना है, झूठे का बोलबाला और सच्चे का मुंह काला। जो जितनी लम्बी फेंक सके, उतना बड़ा फेंकू राम। जितना बड़ा फेंकू राम उतनी अधिक जनता को राम राम। जो कल पप्पू कहलाते थे, उन्हें आज दूसरों को गप्पू कहते देर नहीं लगती। विकास का अर्थ समझाने निकलते हैं तो बोलते हैं, हम इसलिए अपनी कार्यतालिका पेश नहीं करते कि तुम्हारे पिछले सत्तर वर्ष के निकम्मेपन का कच्चा चिट्ठा न खुल जाये। फिर तुम इस दबी-कुचली जनता में किस मां को अपनी मौसी कहोगे?
अजी साहब, यहां न कोई मां है और न मौसी। आज जो आपकी मां कहलायी, कल वह उनकी मौसी बनी। उन्हें पुचकारती नज़र आयी। जैसे अब लेखक बनने के लिए पढ़ना ज़रूरी नहीं, अभिव्यक्ति के लिए भाषा का ज्ञान ज़रूरी नहीं, क्योंकि यह भी जनसेवा है जो लोगों का हर गलत काम सही करवाने से पैदा होती है। 
भला ऐसी सेवा में पढ़ने-लिखने का क्या काम? यहां तो सत्ता के अखाड़े में ‘खेलोगे कूदोगे तो बनोंगे नवाब, पढ़ोगे-लिखोगे तो रोज़गार दफ्तरों के बाहर एड़िया रगड़-रगड़ होगे खराब’ बाहर गूंजता है।
विजयी नेताओं की शोभायात्रा निकल रही है। वर्षों से वहां एक ही नारा गूंजता है, ‘अल्लाह मेहरबान तो गदहा पहलवान।’ लेकिन अब सोचते हैं यह नारा, भी बदल जाना चाहिए। इतने वर्षों की विकास यात्रा में गदहों को कतार में खड़ा आ गया है। उन्हें सत्ता के मीनारों की चाटुकारिता में जीना भी आ गया है। इसलिए वक्त बदला तो नाश भी बदल गया। महाप्रभुओं ने नया नारा लगा दिया है, ‘अल्लाह मेहरबान, तो भाई-भतीजा पहलवान।’ नारा बदलता भी क्यों न। जब मज़दूर का बेटा मज़दूर और किसान का बेटा किसान हो सकता है, तो नेता का बेटा नेता ही बने, यह तो उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। हमें कान पड़ी आवाज़ सुनाई नहीं दी थी, यह नारा अवश्य सुनाई दे गया। हम गदगद भाव से इसके समक्ष विनत हो गये।