भाजपा बनाम ममता- संयम से चलने की ज़रूरत

देश भर में हुए लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को भारी बहुमत मिला है। यह बहुमत पूर्व लोकसभा चुनावों से कहीं ज्यादा है। इसके बाद नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री के तौर पर अधिक मजबूत होकर उभरे हैं। नई सरकार से देश की बेहतरी के लिए बड़ी आशाएं रखी जा रही हैं। यह भी उम्मीद की जा रही है कि मोदी देश के संविधान का सही अर्थों में पालन करेंगे। इसकी वचनबद्धता उन्होंने भाजपा संसदीय पार्टी और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का नेता चुने जाने के समय संसद के केन्द्रीय हाल में हुए समारोह के दौरान भी व्यक्त की है। नरेन्द्र मोदी ने वहां रखी गई संविधान की प्रति के समक्ष सिर भी झुकाया था। इस बेहद विलक्षणताओं से भरपूर देश को चलाने के लिए उदारता और संतुलन बना कर चलने की आवश्यकता होगी। पैदा हुई समस्याओं से गुण-दोष के अनुसार ही निपटा जाना चाहिए। 
गत समय के दौरान जिस तरह कुछ कट्टरवादी संगठनों के हौसले बढ़े हैं, उनको काबू में रखना भी सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती होगी। परन्तु चुनावों के दौरान और चुनावों के बाद भी जो कुछ पश्चिम बंगाल में होता दिखाई दे रहा है, वह चिंताजनक है। एक दशक पूर्व ममता बैनर्जी पश्चिम बंगाल में अपनी तृणमूल कांग्रेस पार्टी के बलबूते पर इसलिए उभर कर सामने आई थीं, क्योंकि उस समय सत्तारूढ़ पार्टी मार्क्सवादी पार्टी में बहुत सारी त्रुटियां उभर आई थीं। राज्य में तीन दशकों से भी अधिक सरकार चलाने के बाद इस पार्टी के स्थानीय स्तर पर ऐसे समूह उभर आए थे, जिन्होंने अपनी मनमानी करनी शुरू कर दी थी और सैद्धांतिक पक्ष से भी वह पार्टी की विचारधारा से कहीं दूर चले गये दिखाई देते थे। ऐसे हालात में ममता आंधी की तरह आईं और उन्होंने पश्चिम बंगाल की राजनीति पर अपना अधिकार जमा लिया। चाहे अपने शासनकाल के समय ममता ने राज्य की बेहतरी के लिए योजनाएं भी बनाई और बहुत कमज़ोर हो चुकी, योजनाओं को नई शक्ति भी प्रदान की, जिसका सीधा असर लोगों पर पड़ा। ममता ने यह प्रयास भी किया कि राज्य में निवेश की नई सम्भावनाएं पैदा हों, जो मार्क्सवादी सरकार के समय दम तोड़ती जा रही थी। परन्तु जिस तानाशाही ढंग से ममता ने शासन चलाया, उस कारण अधिकतर लोग निराश होने शुरू हो गए थे। मार्क्सवादी और वामपंथी पार्टियां पहले ही दम तोड़ चुकी थी। इसलिए इस रिक्तता को भरने के लिए भारतीय जनता पार्टी मैदान में आई। ममता ने एक साफ-स्वच्छ प्रभाव से राज्य की बागडोर सम्भाली थी, परन्तु शीघ्र ही उनके साथी अनेक घोटालों में फंस गये। इनमें सबसे बड़ा घोटाला शारदा चिटफंड का था, जिसके लिए ममता के कई मंत्रियों और उनके निकटतम अधिकारियों को कटघरे में खड़ा होना पड़ रहा है। अपना अड़ियल स्वभाव होने के कारण उन्होंने अपने निकटतम साथी खास तौर पर मुकुल राय द्वारा उनका साथ छोड़ कर भाजपा का दामन थामने से स्थिति में बड़ा बदलाव आया है। ममता ने मार्क्सवादी सरकार के खिलाफ सिंगूर और नंदीग्राम में छोटे किसानों से भूमि लेने के मामले में सख्त लड़ाई लड़ी थी। यही मामला उनके राजनीतिक उभार का बड़ा कारण बना था। परन्तु अब सिंगूर से उनको नमोशी भरी हार होने से यह स्पष्ट होता प्रतीत होता है कि आम और ज़रूरतमंद लोग उनकी मनमानी नीतियों से तंग आ गये प्रतीत होते हैं।
चुनावों के दौरान यदि भाजपा का उनके साथ राजनीतिक टकराव हुआ तो ऐसा दिखाई देने लगा था कि जैसे वह इस स्थिति से बेहद बौखला गई हैं। इस बौखलाहट का लक्षण ही उनके द्वारा चुनावों के दौरान भाजपा के वरिष्ठ राष्ट्रीय नेताओं को बंगाल में प्रचार करने से बार-बार और हर हाल में रोकने का प्रयास किया गया। जिसने उनके प्रभाव को और भी खराब किया। भाजपा द्वारा लोकसभा चुनावों में 42 में से 18 सीटों पर जीत प्राप्त करना ममता के अवसान का लक्षण ही कहा जा सकता है। यह भी बौखलाहट के ही परिणाम है कि चुनावों के बाद भी राज्य में लगातार हिंसा की घटनाएं हो रही हैं। इसने पहले ही इस उखड़ चुके राज्य को और भी हिला कर रख दिया है। भाजपा एक राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर उभरी होने के कारण और ममता राज्य की मुख्यमंत्री होने के कारण दोनों का ही यह बड़ा दायित्व बन जाता है कि वह संयम से काम लेते हुए लोकतांत्रिक परम्पराओं पर पहरा देने की अपनी ज़िम्मेदारी को पहचान कर चलने का प्रयास करें, ताकि हर पक्ष से राज्य की बिगड़ रही स्थिति को रोका जा सके। 
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द