मेहरबान, ज़माना ़कयामत की चाल चल गया

मेहरबान, कद्रदान। हमने आंखें बंद तो नहीं कर रखीं, लेकिन ज़माना कयामत की चाल चल गया। हमें कुम्भकर्णी नींद सोने की आदत तो नहीं। न इस पौराणिक गाथा के अनुसार छ: महीने बरस में कुम्भकर्णी नींद सोते और छ: महीने जागते हैं, लेकिन यह नींद हमारी खुली आंखों में कब उतर आयी कि बदलाव की हमें ़खबर ही न हुई।
इससे पहले हमने अपने देश के भाग्य विधाताओं, अपने नेताओं को खुली आंखों से पंचवर्षीय झपकी लेते हुए देखा था। हमने चुनाव के विजयनाद में वोटों की पुष्प हारों से उनकी कुर्सी सजा दी। बस साहिब इस कुर्सी पर बैठते ही उन्होंने ऐसी झपकी ली कि पूरे पांच बरस के बाद चुनाव की अगली रणभेदी बजने के साथ उन्हें हमारी मर-मर कर जीती ज़िन्दगी, सहम-सहम कर जागती बस्तियों की याद आई। हम ऐसा नहीं कह सकते कि वह घोर निंद्रा थी, क्योंकि इस बीच उन्हें अपनी झोंपड़ी को प्रसाद बना देने की याद रही, अपने बेटे, नाती-पोतों को राजकुंवर बता टिकट दिलाने की याद रही, भाषणों और जुमलों से स्वप्न जाल बिछाने की याद रही, लेकिन किस जिस बस्ती से वह आये थे, उसे कतई भूल गये। नहीं भूले नहीं, बस झपकी ग्रस्त हो गये। आज झपकीग्रस्त होना कितना सुविधाजनक हो गया है। नाक के नीचे से नकल माफिया से लेकर नशा माफिया तक दनदनाता रहे। भू-माफिया आपके पार्कों और खुले मैदानों का हुलिया बिगाड़ दे। बाहर कोई लाख चिल्लाये, नहीं अब यह और सहन नहीं होगा। तब ऊंघते हुए राज प्रासाद चौकेंगे, पर्यावरण प्रदूषण के विरुद्ध प्रस्ताव पास कर देंगे। डेंगू से लेकर चमकी बुखार तक हर बरस फैलेगा, आप इसे प्राकृतिक प्रकोप जानियेगा। जनता का दर्द अगर आपको बहुत सताये तो प्रभावित इलाकों का एक हवाई दौरा कर डालिये। आपको हवाई जहाज से उतरते हुए मीडिया घेरे तो कह डालिये स्थिति नियंत्रण में है।
जी हां, मेहरबान, यह ऐसा देश है, यहां कुछ भी हो जाये ‘स्थिति नियंत्रण में रहती है।’ आतंकवादी दनदनायें, रैड अलर्ट की चेतावनियां चक्कर लगाये, यहां इन खुली आंखों की नींद नहीं खुलती। खुलती है तो सीधे आकस्मिक प्रहार पर खत्म होती है। उड़ी में आतंकवादी काबू नहीं आ रहे थे, शूरवीर थल सेना ने सीधा प्रहार किया। आतंकी आधार कैम्प नष्ट कर दिये, यह दीगर बात है कि उसके बाद आतंकी अतिक्रमण और बढ़े। शत्रु की दीदादिलेरी देखिये, हमारे पुलवामा में रण- बांकुरों की कुमक पर हमलावर हो गये।
 हमारी वायु सेना के शूरवीर आकस्मिक प्रहार कर उनकी बालाकोट तक खबर ले आये। अहा। देश में कैसा राष्ट्रवाद का ज्वार उठा है। देश का बच्चा-बच्चा आंख में पानी भर कर ‘ऐ मेरे वतन के लोगो’ गा कर लता जी को याद करने लगा। मां भारती को प्रणामरत हो, देश भूल गया अपनी भूख, बेकारी, बीमारी और भ्रष्टाचार। अच्छे दिन रुठे थे, रुठे रहे। सब देश पर न्यौछावर हो जाने के दिन इससे कहीं बेहतर होते हैं।
देश की सुरक्षा के लिए नेता कुर्सी पर जमे रहे, और इधर हमारी आंख खुली तो पाया कि इस बीच आर्थिकता के जंगल में प्रगति के नाम पर पूरा देश ही जैसे अपनी पगडंडिया भूल गया। तेज विकास दर का प्रशस्ति गायन करने वालों ने हमें बताया कि आर्थिक विकास दर अचानक सत्तरह सप्ताह से सबसे निचले स्तर पर चली गई। नौजवानों में बेकारी दर इतनी बढ़ी कि पिछले पैंतालीस बरस में नहीं देखी थी इतनी।
लेकिन चिंता नहीं। अभी देश सुरक्षित हो गया है। विश्व भर में इसकी अंतर्राष्ट्रीय साख का झंडा बुलंद हो गया। क्या तुमने वहा सूचकांक नहीं देखा, कि पिछले बरसों में भारत की व्यापारिक साख कितनी बढ़ी है। महा-व्यापार कितना सहज हो गया है?
देखी है साहिब अपनी सब बुलंदियां सिर ऊंचा करके हम देख रहे हैं। आज हमारा सिर ऊंचा हो गया, कल हमारा पेट भी भर जाएगा। देखो, देश की 18वीं सदी के अंधेरे विदेशों की 21वीं सदी की रौशन आयातित टैक्नालोजी से संवारे जा रहे हैं।
तत्काल प्रभाव नज़र नहीं आ रहा, तो क्या हुआ? यह देश का संक्रांत काल है, बन्धु। इसे झुटपुटा काल कहा जाता है। अंधेरा छंटता है, तो उसकी जगह रौशनी धीरे-धीरे लेती है। इस बीच घपले-घोटालों के स्टिंग अभियान तनिक ठंडे बस्ते में डाल लेने दो। देश की नेतृत्व शून्यता को नेताओं के भाई-भतीजों, नाती-पोतों से भर लेने दो। नारी स्वाधीनता और नारी सशक्तिकरण के नाम पर लड़कियां निर्भया कांडों के लगातार सिलसिलों से डरती हुई फिर नकाबों की शरण में चली गई हैं, तो क्या? वह गाना भूल गये क्या? ‘रात भर का है मेहमां अंधेरा किसके रोके रुका है सवेरा’ गाते हुए तुम्हारी जुबान लड़खड़ाती है तो क्या? बस एक गाना ही तो है, गा दो उसे। झुटपुटा छंटने की उम्मीद में।