धन और वैभव के देवता कुबेर

माना जाता है कि समय प्रवाह सदा एक सा नहीं रहता है, वक्त और हालात बहुत कुछ बदल के रख देते हैं। यहां तक कि कभी हम जिस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं, आने वाला समय उसे सच साबित कर देता है। संभवत: अगर यही जीवन चक्र की नियति है तो कहीं न कहीं जीवन का सौंदर्य भी इसी में सन्निहित है। वक्त का यह उतार-चढ़ाव सिर्फ  इन्सानों को ही प्रभावित नहीं करता। धन-संपदा की जब बात आती है तो इसकी प्राप्ति के लिए लक्ष्मीपूजन की परम्परा हमारे यहां आज भी विद्यमान है, किन्तु धन के रक्षक या देवता माने जाने वाले कुबेर अब सिर्फ  तस्वीरों तक ही सीमित होकर रह गए हैं। वैसे इनकी प्राचीनकाल की प्रतिमाएं अभी भी हमारे संग्रहालयों की धरोहर हैं किन्तु सामान्य चलन में इनके मंदिर या प्रतिमाएं कहीं नहीं दिखती हैं। अगर हम अपने देश के महत्वपूर्ण मंदिरों व देवालयों की सूची पर एक नजर डालें तो यह कह पाना बहुत मुश्किल होगा कि इस देवता का कोई विशेष मंदिर कहीं है भी। लेकिन सामान्य बातचीत में आज भी हमें जब किसी धनी व्यक्ति के वैभव की उपमा देनी होती है तो बहुत सहजता से हमारे जुबान पर जो नाम आता है, वह है कुबेर। 
अपने पौराणिक ग्रंथों की बात करें तो मत्स्य पुराण में इस देवता का वर्णन कुछ इन शब्दों में मिलता है- 
कुबेर को धनपति, धनद, वैश्रवण, अलकापति आदि नामों से पुकारा गया है। हमारे यहां जो दस दिशाएं मानी जाती हैं, उन दिशाओं के लिए अलग-अलग दिक्पाल भी माने जाते हैं। इन दिक्पालों अर्थात दिशा के स्वामियों की बात करें तो वैसे तो समय-समय पर इस सूची में नाम और संख्या में बदलाव देखा जाता है, किन्तु इनमें से इंद्र, वरुण, यम और अग्नि को प्राचीनतम समझा जाता है। कुबेर के कुल की बात करें तो इसे पुलस्त्य ऋषि का पौत्र और विश्रवा का पुत्र माना गया है। विदित हो कि इसी विश्रवा का एक पुत्र लंकाधिपति रावण भी था। इस नाते रावण और कुबेर आपस में सौतेले भाई थे। इसी कुबेर को सोने की लंका स्थापित करने और वहां का अधिपति होने का गौरव प्राप्त था, किन्तु रावण ने इस लंका पर जबरदस्ती कब्जा जमा लिया, जिसके बाद कुबेर ने जो दूसरा नगर बसाया, उसे नाम दिया गया अलकापुरी और इसी अलकापुरी के अधिपति के तौरपर उसका नामकरण अलकापति भी हुआ। कुबेर को उत्तर दिशा का अधिपति माना जाता है किन्तु एक अन्य परम्परा के तहत यह स्थान सोम को दिया जाता है। वैसे कुबेर शब्द का अर्थ कुछ यूं वर्णित है- कुत्सितं बेरं यस्य स: कुबेर: यानी जो निम्न व भोंडा है, वह कुबेर है। इसी कारण से प्रतिमाशास्त्रों में इसका वर्णन मोटे या थुलथुले शरीर वाला किन्तु धन के स्वामी के नाते एक हाथ में स्वर्ण मुद्राओं की थैली लिए व दूसरे हाथ में नेवला लिए दिखाया जाता है। जैनशास्त्रों में इसे सर्वानुभूति नाम दिया गया है। अथर्ववेद और शतपथ ब्राह्मण जैसे ग्रंथों में इसे आसुरी शक्तियों व अपराधियों का प्रमुख माना गया है, किन्तु मनुस्मृति जैसे ग्रंथों में इसे लोकपालों में से एक लोकपाल के साथ ही धनपतियों के संरक्षक जैसा सम्मानजनक स्थान भी दिया गया है। हालांकि महाभारत के वर्णन को मानें तो यहां इसे पुलस्त्य का पुत्र माना गया है किन्तु पुराणों में इसे पुलस्त्य का पौत्र और विश्रवा तथा देववर्णिनी की संतान माना गया है। इस देववर्णिनी के पिता हैं ऋ षि भारद्वाज तथा भ्राता हैं ऋषि गर्ग। वहीं विश्रवा की दूसरी पत्नी असुर राजकुमारी कैकेशी से जो चार संतानें हुईं, उनके नाम हैं रावण, विभीषण, कुंभकर्ण और शुर्पणखा। इस तरह से देखा जाए तो कुबेर का जो वर्णन हमें मिलता है, उसके आधार पर हम कह सकते हैं कि इसे पहले तो नकारात्मक शक्तियों का अधिपति माना गया, किन्तु बाद के ग्रंथों में इसे देवता संघ में स्थान दिया जाने लगा। इस कुबेर को यक्ष, किन्नर, गुह्यक और गंधर्वों का अधिपति भी माना गया है। वाल्मीकि रामायण में इस देवता का एक अन्य नाम मिलता है ‘एकाक्ष’। वहीं इसे भगवान शिव का मित्र और स्नेही होने का गौरव भी प्राप्त है। पौराणिक ग्रंथ ‘ललितविस्तर’ में इसकी गणना पूजनीय देवताओं की सूची में है, तथा कुषाण काल में निर्मित इसकी अनेक प्रतिमाएं भी मिलती हैं। वैसे कुषाणों के पहले से यानी पुष्यमित्र शुंग के आचार्य पतंजलि के वर्णनों में भी इसकी उपासना और मंदिरों के होने का प्रमाण है। प्रतिमाशास्त्र के अनुसार थुलथुले शरीर वाले कुबेर के माथे पर उष्णीय, कानों में कुण्डल तथा गले में कंठहार रहता है। कुछ मूर्तियों में कुबेर का दाहिना हाथ अभय मुद्रा में तथा बाएं हाथ में नेवले के आकार की धन की थैली रहती है। इस थैली को नकुली या नकुलक कहा जाता था। वहीं सामान्य तौरपर उपलब्ध कुछ प्रतिमाओं में अभयमुद्रा की बजाय हाथ में मद्य की प्याली या पात्र पाया जाता है। कुबेर की पत्नी का नाम भद्रा है अत: कुछ प्रतिमाओं में कुबेर के साथ कमलधारिणी भद्रा को दर्शाया गया है। कुषाण काल में कुबेर की प्रतिमाओं के साथ भद्रा और लक्ष्मी का भी अंकन मिलता है। इस तरह की प्रतिमा जहां लक्ष्मी के हाथ में कमल सुशोभित है, वहीं भद्रा के हाथ में मद्यपात्र है। किन्तु लगता है कि गुप्त काल के आते-आते कुबेर की पूजा की इस स्थिति में बदलाव आने लगा। ऐसा अनुमान इतिहासकार इस आधार पर लगाते हैं कि इस काल में जो थोड़ी बहुत प्रतिमाएं मिलती हैं, उनके संबंध का मूल स्रोत कहीं न कहीं कुषाणकालीन ही है। वर्तमान में लखनऊ संग्रहालय में संग्रहीत सातवीं सदी की कुबेर प्रतिमा उल्लेखनीय है जिसमें नकुलक और मद्यपात्र के साथ ही पैरों के पास घटपात्र रखे हैं, जिसे एक तरह से कुबेर प्रतिमा का प्रमुख लक्षण समझा जाता है। जैन धर्म में कुबेर को सर्वनाभूति नाम दिया गया है। जिसे 19वें तीर्थंकर मल्लीनाथ का सहायक यक्ष माना गया है। इस देवता के चार सिर और आठ हाथ हैं व इसका रंग इंद्रधनुषी है। जैन धर्म के दिगम्बर मत में इस देवता को तीन सिर वाला दर्शाया गया है। वहीं श्वेतांबर मत में इसे चार या छ: हाथों के साथ दर्शाया गया है। वाहन की बात करें तो इसे हाथी या मनुष्य की सवारी करते अंकित किया जाता है। बौद्ध धर्म में जिस देवता जंभल का वर्णन है, उसे यूं तो कुबेर का ही बौद्ध स्वरुप माना जाता है किन्तु कुछ विद्वानों का मानना है कि जंभल और सर्वानुभूति में ज्यादा निकट साम्यता है। जैन धर्म में जहां सर्वानुभूति को मल्लीनाथ से सम्बद्ध समझा जाता है, वहीं बौद्ध धर्म में जंभल को अक्षोभ्य तथा रत्नसंभव से सम्बद्ध किया जाता है। इसे बौद्धों का धनपति माना जाता है। कुबेर की तरह ही इसके पास भी धन की थैली होती है। अलबत्ता सामने रखे घटपात्र की स्थिति थोड़ी भिन्न होती है। कुबेर के सामने रखा मुद्राओं से भरा घटपात्र कलश की तरह सीधा रहता है जबकि जंभल के सामने का घटपात्र अधोमुख होता है जिससे धनराशि निकलती हुई दिखाई पड़ती है। -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

—सुमन कुमार सिंह